Tuesday 1 June 2021

तालेश्वर -मेरा बचपन-देवेंद्र कुमार

 

तालेश्वर -मेरा बचपन-देवेंद्र कुमार

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तालेश्वर पंडित को माइक की जरूरत नहीं थी ,उनकी सुरीली और ऊँची आवाज़ गली में गूंजती थी। मैं अपनी नानी के साथ गली लेहसवा ,बाजार सीता राम में रहता था। पिता को मैंने नहीं देखा और माँ की दूसरी शादी उनकी मर्ज़ी के विपरीत कर दी गई।मैं बाधा न बनूँ इसलिए नानी ने मुझे अपने पास रख लिया। मेरी माँ विद्या के दूसरे पति अधेड़ उम्र के विधुर थे। मेरी माँ को उनके पांच बच्चो की सौतेली माँ बनना पड़ा।

 

  तालेश्वर पंडित गर्मियों में हमारी गली में कथा सुनाने आया करते थे। उनके दोनों पैर पोलियो से ग्रस्त थे। वह आने जाने के लिए व्हील चेयर का उपयोग करते थे।पता नहीं वह उत्तर प्रदेश में कहा रहते थे,कुछ दिनों के लिए गली के एक घर में उनके ठहरने का इंतजाम किया जाता था। गर्मी की छुटटियों की गरम संध्याएं  उनके आने से बहुत अच्छी लगती थीं। शाम के समय सबको उनके आने की प्रतीक्षा रहती। मेरे बचपन में मकानों के बाहर चबूतरों पर दरिया बिछा कर सबके बैठने का इंतजाम किया जाता। ।आज कल तो चबूतरों को मकानी के अंदर समा लिया गया है।और वहां दुकानें बन गई हैं।

 

वह एक जलूस की तरह आते। तालेश्वर पंडित की व्हील चेयर के  आगे पीछे कई लोग चलते। एक के हाथों में हारमोनियम होता तो दो जने तबले संभाले रहते। उन्हें सावधानी से संभाल कर चबूतरे के आसान पर बैठाया जाता।। और फिर उनके स्वर का जादू सब को बाँध लेता।मुझ पर उनका जादू पूरी तरह चढ़ गया था। वह कथा कहते,भजन गाते और मैं पता नहीं कहाँ पहुँच जाता।

 

दिन में वह आराम करते ,मैं नानी से बिना कहे शर्मा जी के मकान के चक्कर काटता रहता,तालेश्वर पंडित हर बार उन्हीं के घर में टिकते थे। बड़े आंगन  में हारमोनियम और तबले  के सुर गूंजते रहते। मैं सोचता क्या मैं उनकी तरह गा सकूंगा! मैं एक दोपहर शर्मा जी के मकान के बाहर खड़ा था तभी नानी मुझे घर ले गईं। उन्होंने कहा-'इसी तरह आवारागर्दी करेगा या खाना पीना और पढाई -सब कुछ भूल गया है!'अब ध्यान आया कि मैंने स्कूल से लौटने के बाद कुछ खाया ही नहीं था।उस रात  मैंने नानी से अपने मन की बात कह दी-'क्या मैं तालेश्वर पंडित की तरह बन सकता हूँ?'

 

नानी ने कहा संगीत सीखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। अभी तो मन लगा कर पढ़,कुछ बन के दिखा जिससे तेरी माँ और मुझे चैन मिले।'माँ का  नाम आते ही मुझे रोना आ  जाता और तब नानी भी रोने  लगती।।ऐसा अक्सर होता था।

 

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नानी के  लाख मना  करने पर भी मेरी दोपहर शर्मा जी के घर के  आसपास गुजरती थी।एक दोपहर  मैं वहां आँगन में खड़ा था। तभी एक लड़का आया और एक तरफ रखे हारमोनियम पर उंगलियां चलाने  लगा।सब हंसने लगे, मैं भी पास जा खड़ा हुआ मैं भी उस लड़के की तरह हारमोनियम पर उंगलियां चलाना चाहता था। तालेश्वर जी पास ही बैठें थे| वह मुझे देख कर मुस्कराये और मैं नीचे बैठ कर हारमोनियम पर उँगलियाँ चलाने लगा। तभी न जाने क्या हुआ,मेरे गाल पर जोर का तमाचा पड़ा और किसी ने मुझे आँगन में धकेल दिया। मेरा सिर पत्थर से टकराया और फिर मुझे होश न रहा। जब होश आया तो मेरे माथे पर पट्टी बंधी थी और सर में बहुत दर्द हो रहा था। मैं नानी की गोद  में सर रखे लेटा था। आसपास कई लोग थे। तभी मुझे तालेश्वर जी दिखाई दिए और मैंने हाथ जोड़ दिए।

 

उन्होंने मेरे माथे पर हाथ रखा और बोले-'कैसे हो बेटा ?'मेरा दर्द जैसे फुर्र हो गया। वह काफी देर तक नानी से बातें करते रहे। और फिर मुझे नींद आ गई। बाद में नानी ने बताया कि मुझे शर्माजी ने थप्पड़ मारा था,क्योंकि मैंने  हारमोनियम को छुआ था। और तभी तालेश्वर जी ने उसका घर छोड़ दिया था। उनके रहने की व्यवस्था एक दूसरे घर में कर दी गई। वह शर्मा जी से बहुत नाराज़ थे| शर्मा जी ने उनसे क्षमा मांगी पर वे बिना कुछ कहे चले आये थे। मुझे उनका स्पर्श आज तक याद है। कुछ देर बाद द्वारका डाक्टर मुझे देखने आये। उनका दवाखाना पास की गली में था। लोग उन्हें कम्पाउण्डर कहते थे।  पर मेरे लिए वह विशेष थे। वह भी कुछ समय तक रामपुर में रहे थे,जहाँ मेरे डाक्टर पिता रहते थे।मेरे पिता की मृत्यु मेरे जन्म  से पहले हो गई थी।

 

तालेश्वर जी की कथा वाले दिनों में हर बार की तरह मथुरा से  रंगराज अपनी नाटक मण्डली लेकर आया था। जहाँ से हमारी गली चौराहे की तरफ मुड़ती थी वहां की खाली जगह में रंगराज अपना मंच लगाता था। उनकी मण्डली एक सप्ताह तक नाटक खेलती थी। तब गली में रिक्शा  नहीं आती थी। इसलिए मंच लगाने में कोई दिक्कत नहीं थी। मण्डली में काम करने वाले जीवन से मेरी दोस्ती हो गई थी ।मैं सोचता था -क्या मैं कभी किसी नाटक में हिस्सा ले सकूंगा!

                                                            

 हाँ तो एक रात कथा के बाद नाटक शुरू हुआ पर खेला न जा सका। क्योंकि पुलिस ने जीवन को पकड़ लिया ।पता चला उसने रंग राज की संदूकची से पैसे चुराए थे। क्यों भला ! कुछ लोग उसे चोर कह रहे थे तो कई उसकी हिमायत कर रहे  थे। किसी ने बताया कि उसने पैसे जीवन  के इलाज के लिए चुराए थे। जीवन हमारी गली के हलवाई की दूकान पर काम करता था। गरम कढ़ाही  से उसका पैर जल गया  और मालिक ने कोई मदद नहीं की थी। उसकी मरहम पट्टी के लिए ही

जीवन ने पैसे चुराए थे। पूछने पर उसने पुलिस को यही बताया था। पर उसने चोरी तो की ही थी। मुझे जीवन के लिए दुःख हो रहा था। पता नहीं अब उसके साथ क्या होगा ! फिर कुछ ऐसा हुआ जिसके बारे में किसी ने सोचा ही नहीं था   

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  यह सब मुझे बाद में नानी ने बताया था। अगली सुबह तालेश्वर पंडित कई गली वालों  के साथ हौज़ काज़ी थाने  गए थे। उनमें रंगराज भी था। उसे पता चल चुका था कि जीवन ने पैसे क्यों चुराये थे। उसने जीवन के खिलाफ चोरी की शिकायत वापस ले ली। जीवन को छोड़ दिया गया। जब तालेश्वर वहां से चलने लगे तो थानेदार ने कहा-'पंडित जी,मैं और मेरे साथी आपके भजन रस का आनंद लेना चाहते हैं,पर ड्यूटी के बंधन हैं, हम सब गली में नहीं आ सकते और यहाँ थाने  में भी यह संभव नहीं,अगर आप ठीक समझें तो मैं फुटपाथ पर आपका आसन लगवा देता हूँ।'

 

तालेश्वर जी तुरंत तैयार हो गए। बाजार में यह खबर फ़ैल गई,तुरंत वहां भीड़ जमा हो गई। एक घंटे तक रस धार बहती रही,पूजा की थाली में सिक्कों और नोटों की भरमार हो गई। तालेश्वर जी ने विदा ली तो  थानेदार ने कहा-'यह रकम आपके लिए है।' इस पर तालेश्वर जी ने कहा--'जीवन एक अनजान के लिए अपने माथे पर चोरी का कलंक लगाने को तैयार हो गया,तो क्या मैं इस रकम का लोभ नहीं छोड़ सकता।' उन्होंने कहा कि ये रकम जीवन के इलाज पर ख़र्च  की जाये।'  द्वारका भीड़ में मौजूद थे,वह बोले -'मैं जीवन का इलाज मुफ्त करूंगा।'तय हुआ कि यह रकम अनाथ बच्चों की देख रेख पर लगाई जाए। तब तक और पैसे जमा हो गए।

द्वारका डाक्टर जीवन का इलाज करते रहे। जीवन अपने दो साथियों के साथ हमारी गली के अखाड़े की कोठरी में रहता था। अब तो वहां मंदिर बन गया है।नानी ने उन तीनों के भोजन की जिम्मेदारी ले ली। सुबह महाराजिन खाना पहुंचा देती थी और शाम को मैं और नानी भोजन लेकर चले जाते थे। एक दिन जीवन ने कहा -मुझे मेरी नानी अब जाकर मिली है।'कहते हुए उसका गला रुंध गया। 'मैं अकेला नहीं हूँ।'

 

 

नानी ने प्यार से कहा-'तुम तीनों मेरे लिए देवन (मैं )जैसे हो।'मैं खुश था। ,मुझे तीन दोस्त मिल गए थे।

 

वह समय कितना पीछे चला गया है। पर ये यादें आज भी मुझे मेरे खट्टे मीठे बचपन की गलियों में ले जाती हैं। (समाप्त )

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