Friday 19 February 2021

हम लोग--कहानी—देवेन्द्र कुमार

 

           हम लोग--कहानी—देवेन्द्र कुमार

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  जय बड़ी बड़ी सीलबंद बोतलें टेम्पो से उतार रहा था। वह होटलों और घरों में बोतलबंद पानी पहुंचाने की नौकरी करता है।लोग समझते हैं कि नगर निगम द्वारा साफ़ पानी की सप्लाई नहीं होती, इसीलिए वे बाज़ार में बिकने वाले बोतलबंद पानी पर ज्यादा भरोसा करते हैं।तीन दुकानों में पानी की बोतलें पहुँचाने के बाद वह ड्राईवर की सीट की तरफ बढ़ा ही था कि एक आवाज़ सुनाई दी-‘तुम्हारे पास बाल्टी है?’

  जय ने पलट कर देखा तो एक लड़की नज़र आयी,उम्र होगी कोई सात-आठ साल,फटेहाल और नंगे पैर। उसने कहा-‘बिटिया, मेरे पास बाल्टी तो नहीं है। मैं तो पानी की बोतलें सप्लाई करता हूँ। पर तुम्हें बाल्टी क्यों चाहिए?’

  ‘वो लड़का मेरी बाल्टी उठा कर भाग गया।मैं पानी की लाइन में खड़ी थी। अब मैं पानी कैसे ले जाऊंगी, माँ डाटेंगी मुझे।’ लड़की ने कहा। 

  जय को अभी और कई जगह पानी की सप्लाई करनी थी, लेकिन उसे लगा कि लड़की की मदद करनी चाहिए। वह लड़की के साथ वहां गया जहाँ वह पानी की लाइन में खड़ी थी। जय ने देखा कि पानी के टैंकर के आगे काफी भीड़ थी। पानी भरने के लिए लोग आपस में धक्का मुक्की कर रहे थे।   वह समझ गया, उस लड़की के लिए पानी भरना संभव नहीं था। वह अपने छोटे हाथों से भरी बाल्टी कभी न उठा पाती। जय ने पूछा कि उसकी बाल्टी कौन ले गया था? पर लड़की कुछ बता न सकी।         जय ने कुछ सोचा और पानी की एक बड़ी बोतल लेकर लड़की के साथ उसके घर जा पहुंचा।कमरे के अंदर एक औरत चारपाई पर लेटी खांस रही थी।लड़की को देखते ही वह चिल्लाई-‘इतनी देर कहाँ लगाई रमा। और ये कौन है?’

  रमा कुछ कहती इससे पहले ही जय ने पूरी घटना के बारे में बता दिया। अपना परिचय भी दिया।  बोला-‘आपने रचना को भीड़ के बीच पानी लेने क्यों भेज दिया। आपको तो पता ही होगा कि यह् नन्ही बच्ची कभी पानी नहीं ला सकेगी।’

                                

  ‘मैं कई दिनों से बीमार हूँ। घर में बिलकुल पानी नहीं है,मैं जा नहीं सकती इसलिए इसे भेजना पड़ा।’ रचना की माँ जूही ने कहा और हांफने लगी। फिर बोली-‘और तुम जो पानी लेकर आये हो,वह तो पैसों से मिलता है लेकिन ...’ 

 

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  जय ने कहा-‘हाँ, यह बोतलबंद पानी पैसों से मिलता है। पर इस समय मैं इसके दाम नहीं मांग रहा हूँ।   इस बोतल को रख लो। पैसे बाद में दे देना।’ इतनी देर में जय समझ चुका था कि उस घर में बेहद गरीबी है। तभी रमा ने कहा-‘माँ ने सुबह से कुछ भी नहीं खाया है। हमारे घर में मिटटी का तेल भी नहीं है। खाना बना ही नहीं।‘ 

  ‘ खाना कैसे बने। बीमारी के कारण मैं काम पर नहीं जा पा रही हूँ। काम नहीं तो पगार भी नहीं।‘ रचना की माँ जूही बोली। 

     ‘और शायद तुमने दवा भी नहीं ली है। लाओ दवा का परचा मुझे दो।’-जय बोला -‘एक बात कहूँ --तुम्हारी सूरत मेरी बहन से हूबहू मिलती है। वह दूर गाँव में रहती है। मैं बहुत समय से उससे नहीं मिल पाया हूँ। तुम मेरी बहन भले ही नहीं, पर उस जैसी जरूर दिखती हो।क्या मैं तुम्हें बहन कह सकता हूँ?’ इतनी ही देर में जय ने यह बात अच्छी तरह समझ ली थी कि गरीब जूही के स्वाभिमान को चोट नहीं लगनी चाहिए। इसीलिए झट अपनी गाँव वाली बहन की झूठी कहानी गढ़ डाली थी।  यह सुन कर जूही धीरे से मुस्करा दी,फिर दवा का परचा उसे थमाते हुए कहा-‘ पर देने के लिए आज पैसे नहीं हैं मेरे पास।‘ 

     ‘जब तुम पूरी तरह से स्वस्थ होकर काम पर जाओगी और पगार मिलेगी तो मेरा उधार चुका       देना।‘ जय ने हँसते हुए कहा और जूही के लिए दवा लेने चला गया। पहले उसने पानी की सप्लाईका       काम पूरा किया, उस के बाद इतना भोजन ले लिया जो दो तीन बार के लिए काफी हो जाये। फिर किरोसिन लेकर जूही के घर जा पहुंचा।      

    जूही ने कहा-‘भैया,खाने का इतना सामान क्यों ले आये। मैं कैसे अदा करूंगी तुम्हारा उधार...’    

    ‘उधार है तो चुकाना ही पड़ेगा।’-जय ने हंस कर कहा। ’लेकिन अभी उसकी चिंता मत करो, पहले नियम से दवा लो, भोजन करो और शीघ्र चंगी होकर काम पर जाना शुरू करो।‘ कह कर जय चला आया।         

                                    

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  घर तक के सारे रास्ते वह जूही और रचना के बारे में सोचता रहा। घर पहुँच कर उसने पत्नी लता को इस बारे में बताया। लता ने कहा –‘ तुमने जो किया अच्छा किया। हमें उनकी आगे भी मदद करनी चाहिए। एक दिन मैं भी चलूंगी तुम्हारे साथ उन्हें देखने।‘ लता का बेटा स्कूल जाता था ,  और वह घर पर बच्चों को पढाया करती थी| ये वे बच्चे थे जो सडकों पर मेहनत मजूरी करते थे और वहीँ  रहते भी थे। पढाने के साथ लता कभी कभी उन बच्चों को घर पर भोजन भी खिलाती थी। इसलिए दूसरों की मदद करना उसके लिए कोई नई बात नहीं थी। 

   एक शाम काम से घर लौटने के बाद जय लता के साथ जूही के घर गया। साथ में उनका बेटा रतन भी था। दरवाजे में घुसने से पहले ही जूही के खांसने की आवाज सुनाई दी।वह स्टोव के सामने बैठी थी।स्टोव से धुआं निकल रहा था। पूरे कमरे में किरोसिन की गंध फैली थी। लता ने तुरंत स्टोव बंद कर दिया। जय ने जूही का हाथ पकड कर उसे चारपाई पर लिटा दिया। लता ने जूही को अपने और रतन के बारे में बताया। जूही ने कहा-‘मैं खाना बनाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन स्टोव...’  और जोर जोर से खांसने लगी।          

  इस बीच जय बाहर निकल गया था। कुछ देर में लौटा तो उसके हाथ में एक थैली में खाने की सामग्री और एक थर्मस में चाय थी। जूही से बोला-‘चाय के साथ कुछ खाकर दवा ले लो। मुझे चाय वाले का थर्मस लौटाना है।‘ 

   ‘तुम फिर...’ जूही अपनी बात पूरी करती, इससे पहले ही जय ने हंस कर कहा-‘ तुम मेरा उधार नहीं चुकाना चाहती, इसीलिए स्वस्थ नहीं होना चाहती।‘ 

   जूही मुस्करा दी, पर कुछ बोल न सकी। लता ने कहा-‘ तुम भाई-बहन बाद में लड़ना, पहले मेरी बात सुनो-अब इस घर में स्टोव नहीं जलेगा,क्योकि यह खराब है।‘ फिर जय से बोली-‘ तुम कहीं से छोटा गैस सिलेंडर और एक बर्नर वाले चूल्हे का इंतजाम करो ताकि खाना आसानी से बन सके।‘ 

   जय ने कहा-‘ भई, इसमें तो काफी पैसे खर्च होंगे और जूही पर मेरा और उधार चढ़ जायेगा, और गैस का इंतजाम होने में कुछ समय भी तो लगेगा।’ वह हंस रहा था। 

  ‘ तब तक का प्रबंध मैंने सोच लिया है।’-लता जय से बोली-‘ जब तक गैस चूल्हे का प्रबंध नहीं हो जाता मैं सुबह डिब्बे में एक की जगह तीन जनों का खाना पैक कर दिया करूंगी।‘ 

  ‘बन गई बात,’—जय बोला। जूही ने कुछ कहना चाहा पर जय और लता ने उसे बोलने का मौका ही नहीं दिया। कुछ इस तरह जैसे यह जूही का नहीं उनका घर हो। अगली सुबह जय चाय और नाश्ता लेकर जूही के पास पहुँच गया। तीनों ने साथ चाय पी और खाने का डिब्बा जूही को देते हुए कहा- ‘दोपहर का भोजन हम साथ -साथ करेंगे। अब तक तो मैं कहीं भी बैठ कर खा लेता हूँ, पर अब घर में खाऊंगा।‘ 

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  जूही ने कहा-‘और कितने अहसान करोगे मुझ पर।‘ 

  ‘यह मैंने नहीं लता ने किया है। अगर अहसान नहीं लेना है तो जल्दी स्वस्थ होकर काम पर जाने लगो। फिर तुम्हें किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी।‘-कह कर जय बाहर चला गया।          

  समय पर दवा और भोजन लेने से जूही की तबियत में सुधार हो गया। उसने काम पर जाने की सोची।उसने जय को बता दिया कि वह कल से काम पर जायेगी। सुबह काम पर जाने लगी तो जय और लता भी वहां मौजूद थे। जय ने पूछा-‘ जब तुम काम पर जाती हो तो रचना कहाँ रहती है?’

  ‘यह भी मेरे साथ रहती है,इससे मेरी मदद हो जाती है।‘-जूही ने कहा।   

  ‘ अब से यह तुम्हारे साथ नहीं जाएगी।’-जय ने कहा।’लता दूसरे बच्चों  के साथ इसे भी पढाएगी।‘ 

  ‘मुझे पढना अच्छा लगता है।’-रचना ने खुश होकर कहा। 

  लता ने कहा-‘ बचपन खेल और पढाई के लिए होता है।इसे वही करने दो। रचना दिन में मेरे पास रहकर दूसरे बच्चों के साथ पढेगी। शाम को जब तुम काम से लौटो तो इसे अपने साथ ले आना।‘ 

  जूही और रचना के जीवन में परिवर्तन हो गया। जूही अब स्वस्थ थी और रचना बहुत खुश। दोनों परिवारों के बीच एक नया रिश्ता बन गया था,जिसका आरम्भ एक खोई हुई बाल्टी से हुआ था।                                                                     ========.=       

Monday 15 February 2021

बहुत प्यास लगी है-कहानी-देवेंद्र कुमार

 

                                  बहुत प्यास लगी है-कहानी-देवेंद्र कुमार

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  एक था चोर।  उसका नाम नहीं मालूम। वैसे नाम कुछ भी हो ,वह कहीं का रहने वाला हो ; क्या इतना काफी नहीं कि  वह एक चोर था। हाँ तो रात में जब सब नींद की  गोद में आराम कर रहे थे,  तब वह जाग रहा था। उसका इरादा चोरी करने का था। और  फिर  वह चुपचाप चल दिया।सब तरफ सन्नाटा था। कहीं कोई नहीं था।                                 

  तभी न जाने क्या हुआ,उसका गला  सूखने लगा,बहुत जोर की प्यास लगने लगी। उसने पानी की खोज में इधर उधर देखा पर सूनी सड़क पर भला पानी कहाँ मिलता! वह,मेरा मतलब चोर, जरा रुकिए,मैं उसे लगातार चोर कह रहा हूँ, क्या यह ठीक है ?अभी तक, मेरा मतलब आज की रात , उसने किसी के घर में चोरी नहीं की है चलिये पहले उसका कोई नाम रख दिया जाए। मैं और आप उसे नहीं जानते,क्या हम उसे अनजान के नाम से पुकार सकते हैं ?हाँ यही ठीक रहेगा।

  अनजान नामक एक व्यक्ति रात के समय सूनी सड़क पर पानी खोज रहा था। प्यास से उसका गला सूख रहा था।  इधर उधर देखा तो थोड़ी दूर एक कुआं नज़र आया। अनजान तेज क़दमों से कुएं के पास जा पहुंचा। अब वह  पानी के एकदम पास खड़ा था। लेकिन पानी कैसे मिले,उसके पास लोटा -डोर जैसा तो कुछ था नहीं,तो पानी कैसे पिए! पानी के इतने  निकट पहुँच कर उसकी प्यास और तेज हो गई थी। अब कैसे क्या करे, वह यही सोच कर बैचैन हो गया। तभी पास के मकान का दरवाज़ा खुला और एक आदमी बाहर निकला। उसके हाथ में पानी से भरा लोटा और  गिलास था।

   उसने गिलास अनजान को थमाते हुए कहा-'लो पानी पी लो। 'अनजान गट गट पानी पी गया,उस आदमी ने गिलास को फिर भर दिया। अब अनजान को चैन मिला। उसने पूछा -'भाई,आप कौन हैं? आप को कैसे पता चला कि मैं प्यासा हूँ।'

  उस व्यक्ति ने कहा-'मेरा नाम अमित है। मैं कमरे में बैठा कुछ लिख रहा था,तभी मेरी नज़र खिड़की से बाहर चली गई। मैंने तुम्हें कुएं के पास खड़े देखा और तुरंत समझ गया कि तुम प्यासे हो,अन्यथा इस समय कुएं के पास न खड़े होते।'

  अनजान ने अमित को अपनी प्यास बुझाने के लिए धन्यवाद दिया। वह सोच रहा था -अगर पीने को पानी न मिलता तो न जाने क्या हो जाता।

  तभी अमित ने पूछा -' अरे मैंने तुम्हारा नाम तो पूछा ही नहीं,और यह तो कहो आधी रात के समय कहाँ जा रहे हो ? इस समय तो कोई सवारी मिलने से रही।'

  अनजान चुप रहा ,कहता भी क्या!

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  अमित बोला-'आओ,अंदर आओ,कुछ देर बाद चले जाना,'  अनजान कुछ पल सोचता खड़ा रहा। अचानक लगी प्यास से उसकी योजना गड़बड़ा गई थी, जो  कुछ करने निकला था वह अब नहीं हो सकता था। फिर वह चुपचाप अमित के पीछे पीछे उसके घर में चला गया।

  अनजान ने देखा सब तरफ शेल्फों में बहुत सारी किताबें लगी थीं, मेज पर कागज़ फैले थे। एक तरफ पलंग बिछा था। उसने पूछा -'क्या आप यहाँ अकेले रहते हैं?'

  'नहीं परिवार के साथ रहता हूँ। यह कमरा घर के बाहरी हिस्से में है। मैं यहाँ लिखता पढता हूँ। कई बार देर रात तक काम करता हूँ। घर में किसी को परेशानी न हो,इसीलिए यह कमरा चुना है मैंने। 'अमित ने कहा और अनजान को पलंग पर बैठने का संकेत किया।

    इतनी किताबें देख कर उसे अचरज हो रहा था। 'ये किताबेंक्या आपने सबको पढ़ लिया है? ' अनजान के प्रश्न पर अमित मुस्करा दिया। बोला-'सब तो नहीं पर ज्यादातर को पढ चुका  हूँ|’

 मैं पेशे से पत्रकार हूँ और बच्चों के लिए कविता-कहानी भी लिखता हूँ।'-और उसने एक किताब अनजान को थमा दी। अनजान किताब के पन्ने  उलटने लगा। पुस्तक में बच्चों के गीत थे। हर पृष्ठ पर सुन्दर  चित्र बने थे। मुख  पृष्ठ पर अमित का नाम छपा हुआ था।एकाएक अनजान गीत गुनगुनाने लगा। बोला -'पढ़ कर अपना बचपन याद आ गया।                                                                  

    'सबका बचपन खट्टा -मीठा होता है। मैं अपने बचपन से जुड़ा रहूँ इसलिए भी बच्चों के लिए लिखता हूँ। अमित ने कहा फिर पूछने  लगा-'तुम भी बताओ न अपने बचपन के बारे में।'

  अनजान का मन जैसे उड़ कर अपने बचपन में जा पहुंचा ,'बोला -'मेरा बचपन गाँव में बीता,भरा पूरा परिवार था। पर वह सब तो पीछे छूट गया। अब तो मैं शहर में अकेला ही रहता हूँ। 'कहते हुए उसका स्वर उदास हो गया। मन  बचपन और वर्तमान की तुलना कर रहा था।

  अमित ने कहा-तो ताज़ा कीजिये अपने बचपन के दिन।'

  अनजान की आँखों के सामने अपने बचपन की किताब के पन्ने खुल गए। बोला  -हमारा गाँव नदी किनारे और खूब हरा भरा था।थोड़ी दूर पर एक टीला था, जिसे गाँव वाले मल्लू का पहाड़ कहते थे,वैसे टीला बहुत ऊँचा नहीं था।

   'तो फिर उसका नाम मल्लू का पहाड़ क्यों था?'-अमित ने पूछ लिया।

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  अनजान ने कहा-'हमारे गाँव में एक था मल्लू पहलवान। वह हर रोज टीले पर दौड़ कर चढ़ जाता और वहां कसरत करता था।जब वह दूर से भागता हुआ आता और बिना रुके टीले पर चढ़ जाता तो सब तालिया बजाते। हम बच्चों को उस तमाशे में खूब मज़ा आता था।' कह कर वह खिलखिला उठा। बोला -'और जिस दिन कथक्कड़ बाबा आते तो उस दिन सारा गाँव उन्हें घेर कर बैठ जाता।'

   कौन थे कथक्कड़ बाबा?'

     'पता नहीं उनका असली नाम क्या था। वह जब आते, किस्से सुनाते। लोग उन्हें घुमक्कड़ बाबा भी कहते थे क्योंकि वह हर समय यात्रा पर ही रहते थे।

     घुमक्कड़ कथक्कड़ ,वाह!'

      'जब आते तो अपनी यात्राओं के किस्से सुनाते| उनकी यात्रा कथाएं बहुत मजेदार होती थीं।' –अनजान ने कहा।

      उनके कुछ किस्से तो जरूर याद होंगे आपको। क्या कभी किसी  ने उन कहानियों को लिख कर रखा।?'

      अनजान ने इंकार में सर हिला दिया|

      'तो अब आप उनके किस्सों को लिखिए। मेरे लेख और कहानियां अनेक अखबारों में प्रकाशित  होते हैं।आपकी रचनाएँ भी छप सकती हैं। '।मुझे लगता है कथक्कड़ के किस्से पाठकों को जरूर पसंद आएंगे।'

      'लेकिन मैंने तो कभी कुछ लिखा नहीं। '-अनजान ने कहा।

     'अरे, बातों में कितना समय निकल गया। मैंने तो आपको चाय के लिए भी नहीं पूछा| मैं अभी चाय बना कर लाता हूँ। 'अमित ने कहा-मैं  कमरे से सीधे रसोई में जा सकता हूँ। तब तक आप किताबें देखिये।-कह कर अमित दूसरे दरवाज़े से घर के अंदर चला  गया|

     अनजान को जैसे होश आया। वह तुरंत वहां से चला जाना चाहता था।अब तक उसने अपने बारे में अमित को कुछ नहीं बताया था।क्या बिना कुछ कहे चले जाना ठीक होगा? उसने मेज से कागज़ उठा कर लिखा –मैं अपना परिचय दिए बिना नहीं जा सकता। उसने अपना सच लिखा और तेजी से बाहर निकल गया।

     अमित चाय लेकर लौटा तो अनजान नहीं था। उसने वह कागज़ उठा लिया, जिस पर अनजान अपना सच लिख कर चला गया था।

  मैं   नहीं जानता कि अनजान कहाँ चला गया है! सच तो यह है कि मैं और आप उसका असली नाम भी नहीं जानत |यह कहना मुश्किल है कि वह कहाँ जाएगा,क्या करेगा। शायद वह अपनी किताब को फिर से लिखे। मैं समझता हूँ आप भी यही सोच रहे हैं। (समाप्त ) ।