Friday 25 September 2020

गैंद का बचपन-कहानी देवेंद्र कुमार

  

 

                               

                      गेंद का बचपन-कहानी-देवेंद्र कुमार                                                        

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  जया की रमा दादी पूजा कर रही थीं। रविवार का दिन था, घर के सब लोग बाहर गए थे, नीचे बच्चे शोर मचा रहे थे। इसलिए दादी का ध्यान बार बार भटक जाता था। तभी झन्न की आवाज के साथ पूजा की थाली उलट गई। जलता दीपक बुझ गया, पूजा की सामग्री बिखर गई। बच्चों द्वारा उछाली गई फुटबाल खिड़की से होती हुई पूजा की थाली में आ गिरी थी। रमा गुस्से से भर उठीं और जोर से चिल्लाईं –‘ शैतान बच्चे ठीक से पूजा भी नहीं करने देते। उन्होंने फुटबाल उठा कर खिड़की से बाहर फेंक दी। थाली में पूजा की सामग्री फिर से सजाई, बुझा हुआ दीपक दोबारा जलाया और पूजा में ध्यान लगाने का प्रयास करने लगीं। लेकिन पूजा में मन नहीं लगा। मन उड़ कर न जाने कहाँ जा पहुंचा। 

  आँखों में एक छोटी लड़की की छवि उभर आई। वह गाँव की कच्ची, धूल भरी गलियों में सहेलियों के साथ गेंद से खेल रही है,झूला झूल रही है,हंस रही है, रो रही है, माँ की गोदी में लेटी हंस रही है।   और फिर रमा ने उस लड़की को पहचान लिया—यह तो वह खुद थी। फिर उनका अपना बचपन सामने जीवंत हो उठा। उनकी आँखों से आंसू बह चले। उन्होंने अपने हाथों को फुटबाल खिड़की से बाहर फेंकते देखा। होंठो से निकला-‘वह फुटबाल नहीं, मेरा बचपन मेरे पास आया था, जिसे मैंने अपने ही हाथों से दूर फेंक दिया। अब वह कभी लौट कर नहीं आएगा। पूजा अधूरी रह गई, दादी देर तक अपने बचपन की उबड़ खाबड़ गलियों में भटकती रही।      

    पर आखिर कब तक अपने बचपन की गलियों में भटकती रह सकती थी रमा दादी। कुछ देर तक आँखें मूंदे बैठी रहने के बाद, वह उठ कर खिड़की में से नीचे झाँकने लगीं। उन्होंने देखा बच्चे चुप खड़े थे, शोर थम गया था। वे रह रह कर दादी की खिड़की की ओर देख रहे थे। रमा ने कहा,  ’बच्चो , वह फुटबाल कहाँ है जिसे मैंने गलती से नीचे फेंक दिया था।

  ‘गलती से’बच्चों ने अचरज से कहा। रमा दादी की बात किसी की समझ में नहीं आ रही थी। 

  ‘हाँ,मुझे फुटबाल को नहीं फेंकना चाहिए था। क्या तुम सब उस फुटबाल को खोज कर मेरे पास ला सकते हो। बदले में मैं तुम बच्चों को एक नई फुटबाल इनाम में दूँगी। 

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    नई फुटबाल के लालच में बच्चे तुरंत खोज में लग गए।  लेकिन उनकी पुरानी फुटबाल कहीं न मिली। जब बच्चे निराश होकर लौटे तो रमा खिड़की में ही खड़ी थीं। उन्होंने कहा-‘ नहीं मिली न, मुझे पता था कि मैंने जिस फुटबाल को अपने से दूर फेंका था, वह अब मेरे पास कभी वापस नहीं आएगी,पर इसे छोड़ो, तुम्हें नई फुटबाल जरूर मिलेगी। फिर उन्होंने एक बच्चे को ऊपर बुला कर नई फुटबाल के लिए पैसे दे दिए। फुटबाल--प्रेमी बच्चे रमा के विचित्र व्यवहार को कभी समझ नहीं पाए।   रमा के मन के भीतर भला कौन झांक सकता था। 

   इस बात को कई दिन बीत गए। अपने बचपन की यादें रमा को आराम से नहीं रहने दे रहीथीं,वह ठीक से पूजा में ध्यान नहीं लगा पा रही थीं। उस दिन पूजा के बाद रमा सोसाइटी के पार्क में जा बैठीं।सामने माली रामधन क्यारी में काम कर रहा था। पास में उसका छह सात का बेटा राजू घास पर फुटबाल लुढका रहा था। फुटबाल कई जगह से कटी हुई थी इसलिए घास पर ठीक से लुढ़क नहीं रही थी। 

   रमा उठ कर राजू के पास जा खड़ी हुई। उन्होंने कटी हुई फुटबाल को उठाया तो लगा जैसे यह वही फुटबाल है जिसे उन्होंने खिड़की से बाहर फेंक दिया था। रमा ने फुटबाल को दोनों हाथों में कस कर पकड़ लिया। फिर रामधन से कहा-‘मैं तुम्हारे बेटे के लिए नई फुटबाल मंगवा दूँगी। अगर तुम कहो तो इस फुटबाल को मैं ले जाऊं।   

  रामधन ने हैरान स्वर में कहा-‘ माँजी, ले जाइये,वैसे भी यह फुटबाल मेरी तो है नहीं।मुझे तो यह एक क्यारी में पड़ी मिली थी।    

   रमा फुटबाल को सावधानी से हाथों में थामे हुए अपने फ़्लैट में आ गईं, और फुटबाल को पूजा की थाली के पास रख दिया। फिर देर तक उसे देखती रहीं। आँखों के सामने फिर से अपने भूले बिसरे बचपन के अनेक चित्र तैर गए। देर तक अपने बचपन में खोई बैठी रहीं।लगा जैसे सामने फुटबाल नहीं बचपन के दरवाजे की जादुई चाबी रखी थी। 

  अगली दोपहर रमा पार्क में गईं तो उनके हाथ में रामधन के बेटे राजू के लिए नई फुटबाल थी।   उन्होंने इधर उधर देखा पर रामधन नहीं दिखाई दिया, राजू भी नहीं था। कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद उन्होंने सोसाइटी के गार्ड से पूछा। पता चला कि रामधन के गाँव में किसी रिश्तेदार की शादी है, परिवार के साथ वहीँ गया है। दो दिन में वापस आ जायेगा। एक हफ्ता बीत गया, पर रामधन नहीं लौटा। गार्ड ने बताया कि गाँव में राजू बीमार हो गया है, इसीलिए रामधन अभी कुछ दिन के लिए गाँव में ही रुक गया है। 

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  रमा को चिन्ता ने घेर लिया। उन्हें लगा कि गाँव जाकर राजू का हाल चाल लेना चाहिए। वह समझती थीं कि राजू के कारण ही उन्हें बचपन की गलियों में ले जाने वाली फुटबाल फिर से मिल सकी थी। उन दोनों के बीच जैसे एक अनोखा सम्बन्ध बन गया था। 

  रमा ने बेटे नरेश से पटल गाँव चलने को कहा तो वह चौंक उठा। बोला—‘ पटल गाँव में तो हमारा कोई सम्बन्धी रहता नहीं है, फिर वहां क्यों जाना है!’

   ‘मेरा कोई तो है वहां, बस सवाल मत पूछ, ले चल मुझे। रमा ने कहा। पटल गाँव ज्यादा दूर नहीं था। नरेश की कार गाँव में पहुंची तो लोग जमा हो गए। रामधन रमा दादी को देख कर चौंक पड़ा, फिर रमा को राजू के पास ले गया। राजू बिस्तर पर लेटा था। रमा ने राजू का सिर सहलाया और एक नई चमचमाती फुटबाल उसके हाथो में थमा दी। नई फुटबाल पाकर राजू बहुत खुश हो गया। रमा ने रामधन से कहा-‘ तुम्हारे बेटे को अच्छे इलाज की जरूरत है। तुम मेरे साथ वापस चलो। मैं एक अच्छे डाक्टर को जानती हूँ। उनकी दवाई से राजू और भी जल्दी स्वस्थ हो जाएगा। 

  अपने शहर पहुँच कर रमा ने कार डाक्टर अनु के क्लिनिक के बाहर रुकवा ली। वह डॉ.अनु को अच्छी तरह जानती थीं। क्लिनिक के वेटिंग हाल में रामधन और राजू को बैठा कर रमा कक्ष में जाकर डॉ. अनु से मिलीं और उन्हें राजू के बारे बताया। फिर कहा-‘राजू का पिता इलाज का खर्च नहीं उठा सकेगा। दवा के पैसे मैं दूँगी,लेकिन यह बात उसे पता नहीं चलनी चाहिए। उसके स्वाभिमान पर चोट लग सकती हैडॉ, अनु की मेज पर रुपये रख कर रमा बाहर आ गईं। 

   डॉ. अनु के इलाज से राजू जल्दी स्वस्थ हो गया। और फिर एक दिन उन्होंने राजू को नई फुटबाल के साथ खेलते देखा। रामधन ने कहा-‘माँजी,डॉ। साहिबा बहुत अच्छी हैं। रमा मुस्करा कर अपने फ़्लैट में चली आईं। पूजा की थाली के पास रखी पुरानी फुटबाल को देख कर मन फिर से पीछे की यात्रा पर निकल पड़ा। सचमुच वह फुटबाल अतीत के दरवाजे की जादुई चाबी थी। घर में सब को पता था कि पुरानी फुटबाल को  उसकी जगह से हिलाना नहीं है। इस बारे में रमा किसी प्रश्न का उत्तर देने वाली नहीं थीं।  (समाप्त)                                   

Sunday 20 September 2020

बाबा का स्कूल,कहानी,देवेन्द्र कुमार

 

    बाबा का स्कूल-कहानी-देवेन्द्र कुमार

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  निशि अपनी प्रिय पुस्तक पढ़ रही थी,तभी एक चीख सुनाई दी।वह भाग कर दूसरे कमरे में गई तो देखा-काम वाली प्रीतो फर्श से उठने की कोशिश कर रही है  और आस पास किताबें बिखरी हुई हैं। निशि ने सहारा देकर उठाया और पूछा-‘ क्या हुआ,कैसे गिर गई। चोट तो नहीं लगी?’

  प्रीतो ने अपना सिर दबाते हुए कहा-‘ चोट नहीं, चेतावनी मिली है।’यह कहते हुए वह हंस रही थी।निशि ने अचरज से पूछा-‘चेतावनी! कैसी चेतावनी! मैं तो तुम्हारी चीख सुन कर आई हूँ ,लेकिन  तुम हो कि हंस रही हो! आखिर बात क्या है?’  

   प्रीतो ने जो कुछ कहा उससे निशि को पता चला कि जब प्रीतो फर्श की सफाई कर रही थी तभी ऊपर वाले शेल्फ से कई किताबें उसके सिर पर आ गिरीं। वह घबरा कर उठी तो फिसल कर गिर गई।तभी उसके मन ने कहा कि पुस्तकें सिर पर गिरा कर जैसे देवी सरस्वती ने चेतावनी दी हो कि क्या वह उम्र भर इसी तरह अनपढ़ ही बनी रहेगी!

   ‘देवी सरस्वती का नाम क्यों ले रही हो,उनके बारे में क्या जानती हो ?’—निशि ने पूछा। वह  कुछ समझ नहीं पा रही थी।

  ‘मैडम जी, हमारी गली में देवी का मंदिर है। वहां के पुजारी जी अक्सर ही  कहते हैं कि विद्या की देवी हैं सरस्वती, और पुस्तकें हैं उनके मंदिर की खिड़कियाँ। पढना लिखना ही देवी सरस्वती की पूजा है। यही सोच कर कई बार अपने अनपढ़ रह जाने पर मन दुखी हो जाता है। बचपन में पढ़ नहीं   पाई और अब कौन पढाये मुझे।’

  अब जाकर निशि प्रीतो के मन की  कसक को समझ पाई। उसने कहा-‘ मुझे तो अब पता चला है कि तुम सच में पढना लिखना चाहती हो।’

  ‘आपने ठीक कहा, मन कितना चाहता है कि अनपढ़ न रहूँ। इसीलिए बेटी की पढाई पर बहुत ही  ध्यान देती हूँ।’

  ‘ अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें पढ़ा सकती हूँ।’-निशि ने कहा।

 प्रीतो की आँखें अचरज से फैल गईं।’क्या आप मुझे सचमुच पढ़ाएंगी! ‘प्रीतो के होंठ खुलकर हंस रहे थे।’पर कैसे!’    

    ‘ देखो, दोपहर  में सारा काम निपटा कर तुम कुछ देर आराम करती हो और बच्चों के स्कूल से  लौटने से पहले मैं भी अपनी मनपसंद पुस्तक के साथ समय बिताती हूँ।मतलब उस दौरान हम दोनों के पास खाली समय होता है।बस तभी मैं तुम्हें आराम से पढ़ा सकती हूँ।’-निशि ने उसे समझाया।

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   ‘यह तो बहुत अच्छा रहेगा लेकिन’ प्रीतो इतना ही कह सकी।  उसके मन में अब भी संदेह था।

   इस बीच निशि अलमारी से लकड़ी की एक पुरानी संदूकची ले आई। उसमें रखा सामान बाहर निकाल लिया। बोली-‘ यह मेरे बाबा की संदूकची है। मैंने उन्हें अपने छुटपन में देखा था। शादी के बाद विदा होते समय मैं उनकी संदूकची को  अपने साथ ले आई। इसे जब जब देखती हूँ तो लगता है कि जैसे बाबा सामने आ खड़े हुए हों।

    प्रीतो ने देखा संदूकची के सामान में एक स्लेट,चाक के कुछ टुकड़े,पूजा की माला,एक टूटा चश्मा,  कई कौड़ियाँ, रामनामी चादर, पुरानी कापी और कई धुंधले फोटो थे।

  निशि ने स्लेट प्रीतो को थमाते हुए कहा-‘समझो कि बाबा के स्कूल में अब से तुम्हारा दाखिला हो गया।’ फिर संदूकची का सामान उसमें रख कर  ढक्कन बंद कर दिया। चाक से स्लेट पर अ आ लिख कर प्रीतो से कहा-‘ स्लेट पर जो अक्षर मैंने लिखे हैं उन्हें देख कर बार बार लिखो। इसी तरह अभ्यास करती रहो।’

  प्रीतो ने स्लेट को माथे से लगाया, निशि की ओर देख कर मुस्कराई और सिर झुका कर निशि के लिखे अक्षरों को देख कर लिखने की कोशिश करने लगी। इस बीच निशि के बच्चे अनिल और  बिभा  स्कूल से लौट आये। उन्होंने प्रीतो को स्लेट पर लिखते देखा तो मुस्करा उठे। प्रीतो ने शरमा कर लिखना बंद कर दिया।

 काम निपटा कर प्रीतो जाने लगी तो निशि ने स्लेट वापस लेते हुए कहा-‘ प्रीतो, बाबा की स्लेट मैं तुम्हें घर के लिए नहीं दे सकती।’ फिर उसे कुछ पैसे देते हुए बोली —‘ तुम नई स्लेट, चाक और हिंदी-अंग्रेजी का कायदा खरीद लेना।’           

  अगले दिन प्रीतो काम पर आई तो उसके हाथों में स्लेट और हिंदी –अंग्रेजी का कायदा था। सोसाइटी के गार्ड वीरू ने कहा-‘ क्या काम छोड़ कर स्कूल में दाखिला ले लिया है!’

 प्रीतो ने कहा –‘हाँ, मैंने बाबा के स्कूल में दाखिला ले लिया है। मैं अनपढ़ नहीं रहना चाहती।’और मुस्करा दी।

  ‘कहाँ है यह बाबा का स्कूल?’

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  ‘वहीँ जहाँ मैं काम करती हूँ।’-कह कर प्रीतो अंदर चली गई।

  शाम को जब प्रीतो काम से अपने घर जा रही थी तो वीरू ने उसे रोक लिया ।बोला-‘ सुबह तुमने कुछ नहीं बताया,अब तो बता दो कि मामला क्या है।’

   प्रीतो ने वीरू को बता दिया कि कैसे क्या हुआ था।सुन कर वीरू बोला-‘प्रीतो,मेरी बीवी रत्ना भी तो अनपढ़ है।वह कई बार पढने की इच्छा प्रकट करती रहती है। क्या तुम मैडम से रत्ना की सिफारिश कर सकती हो।’ रत्ना भी प्रीतो की तरह सोसाइटी के कई घरों में साफ़ सफाई का काम करती थी। दोनों पक्की सहेलियां थीं। प्रीतो ने निशि से रत्ना के बारे में कहा तो उसने झट हामी भर दी,कहा-‘कोई किसी भी उम्र में पढ़ सकता है। बाबा के स्कूल में कोई भी दाखिला ले सकता है। पर तुम्हारी सहेली तो रविवार को ही पढने आ सकती है।’ निशि ने ठीक कहा था। सोसाइटी की सभी कामवालियां रविवार को छुट्टी करती हैं।

  रविवार की दोपहर को प्रीतो और रत्ना एक साथ बाबा के स्कूल में पहुँचीं। छुट्टी के कारण निशि के पति रमेश और बच्चे-अनिल और विभा घर में ही थे। वे सब निशि से सहमत थे कि हर किसी को शिक्षा मिलनी ही चाहिए।

  निशि दोनों को अपने कमरे में ले गई। रत्ना बहुत खुश थी।जल्दी ही  बाबा के स्कूल की बात सबको पता चल गई। एक शाम प्रीतो घर जाने लगी तो उसे जमना,कमला,लक्ष्मी,लता और प्रभा ने घेर लिया। उन सबकी एक ही मांग थी कि वे सभी पढना चाहती हैं और प्रीतो को निशि से उनकी सिफारिश करनी होगी। वे सब प्रीतो और रत्ना की तरह सोसाइटी के घरों में काम करती थीं।

  निशि ने प्रीतो से सुना तो कहा-‘  तुम सबको पढ़ा कर मुझे बहुत अच्छा लगेगा। अगले रविवार को अपनी सब सखियों को ले आना।’

   वह रविवार विशेष था। छह छात्राएं बाबा के स्कूल में पढ़ने आईं थीं। निशि का कमरा बाबा का स्कूल बन गया था। निशि ने एक कापी में जमना,कमला,लक्ष्मी,रत्ना, प्रभा और प्रीतो के विवरण लिख लिए –नाम -पता,हरेक के विवाह की तारीख,  मोबाइल नंबर, घर के सदस्यों के नाम और जन्म दिन की जानकारी।उससे पता चला कि अगले रविवार को लक्ष्मी के बेटे अजय का जन्म दिन है।निशि  ने पूछा-‘लक्ष्मी,तुम कैसे मानती हो अजय का जन्म दिन?’ लक्ष्मी ने बताया-‘शाम को काम से लौटने के बाद हम बेटे को आइसक्रीम खिलने ले जाते हैं।उसके लिए मनपसंद खिलौना ले देते हैं।’

  अगले रविवार को एक आश्चर्य लक्ष्मी की प्रतीक्षा कर रहा था बाबा के स्कूल में। वहां पहुंचते ही सब ने उसे रंग बिरंगी पन्नी में लिपटे पैकेट थमा कर कहा-;अजय के लिए हमारे आशीर्वाद,’ कमरे में सम्मिलित खिल खिल गूंजने लगी। उन सबकी ओर  से निशि ने गिफ्ट पैकेट तैयार करवा लिए थे।

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  ‘ मेरे बेटे का ऐसा जन्म दिन तो कभी नहीं मना इससे पहले।’-लक्ष्मी ने प्रसन्न स्वर में कहा।

  निशि ने कहा-‘प्रीतो की बेटी का जन्मदिन मंगलवार को है। पर हम उसे रविवार को मनाएंगे।’

    एक रविवार को प्रभा  स्कूल नहीं आई।निशि ने पूछा तो पता चला कि  वह दो दिन से काम पर भी नहीं आ रही है।उसका पति बीमार है। निशि ने कहा-‘आज स्कूल की छुट्टी। हम सबको प्रभा के घर चलना चाहिए।’ जमना को प्रभा का घर मालूम था।

  अपनी सखियों को एक साथ आया देख प्रभा अपलक ताकती रह गई।उसका पति उठ कर बैठ गया।वह हैरानी से निशि को देख रहा था।निशि ने उसका हाल पूछा तो पता चला कि  अब पहले से ठीक है। निशि ने प्रभा से कहा-‘ क्या हमें चाय नहीं पिलाओगी?’यह सुन कर प्रभा के साथ लक्ष्मी चाय बनाने लगीं।निशि ने रास्ते में नाश्ते के लिए बिस्किट और नमकीन ले लिया था।इस पर प्रभा ने कहा-‘ क्या मैं आप सबको चाय नाश्ता भी नहीं करा सकती।’इस पर निशि ने कहा-‘तो वह सब भी ले आओ।’ और कमरे में खिल खिल गूंजने लगी।

  चलते समय निशि ने कहा-‘ प्रभा,बाबा के स्कूल में एब्सेंट रहने पर जुरमाना भरना होता है।   अगले रविवार को  स्कूल में जरूर हाजिरी लगाना।’ एक बार फिर कमरा हंसी से भर गया। बाबा का स्कूल चल निकला था।(समाप्त )

     

 

ईमानदार रोशनी ,कहानी,देवेंद्र कुमार

ईमानदार रोशनी—कहानी—देवेन्द्र कुमार

 

 

रंगी बाबा को सब सनकी कहते थे। उनकी आदतें कुछ विचित्र थी। जैसे एक तो यही कि उन्होंने कभी कोई दुकान नहीं चलाई, लेकिन फिर भी मोमबत्तियाँ बेचा करते थे। हमारी गली में कोने वाले मकान में रहते थे। जब कभी रात को बिजली चली जाती तो वह झट छोटी-सी चौकी दरवाजे के पास रख लेते और मोमबत्तियाँ बेचना शुरू कर देते। उनकी इस सनक पर सब हँसते। मैं भी सोचता था कि भला इस तरह क्यों मोमबत्ती बेचते हैं रंगी बाबा? क्योंकि गली में और भी कई दुकानें थीं।

एक रात बत्ती गई तो रंगी बाबा हमेशा की तरह मोमबत्तियाँ रखकर बैठ गए। मैंने देखा कि कई लोगों ने उनसे मोमबत्ती खरीदी। मैं पास खड़ा देख रहा था। जब वह खाली हुए तो मेरी ओर देखकर मुसकराए। बोले, “क्यों, तुझे मोमबत्ती नहीं लेनी?”

मैंने कहा, “बाबा, आप मोमबत्ती ही क्यों बेचते हैं भला?”

बाबा ने मेरी ओर ध्यान से देखा। बोले, “इसलिए कि अँधेरा होता है। अँधेरे में उजाला तो होना ही चाहिए।और हँस पड़े। उनकी बात मेरी समझ में नहीं आई। शायद रंगी बाबा ने भी इसे जान लिया। बोले, “सुबह आना तो बताऊँगा।

सुबह मैं उनके पास गया तो उन्होंने स्नेह से बैठाया, फिर एक पुरानी थैली खोलकर मेरे सामने उलट दी। उसमें काफी रेजगारी थी। बाबा ने कहा, “यह मेरी कमाई है।

मैंने देखा उसमें ज्यादातर सिक्के खोटे थे।लेकिन ये सिक्के तो खोटे हैं। आपने इन्हें जमा करके क्यों रखा हैं?”

मैं जानता हूँ ये सिक्के खोटे हैं, इसीलिए तो जमा  कर रहा हूँ।बाबा ने कहा और जोर से हँस पड़े।

                                

मुझे हैरान देख उन्होंने कहा, “बेटा, यही कारण है कि मैं मोमबत्तियाँ बेचता हूँ। इसके पीछे एक कहानी है। एक रात मैं स्टेशन के पास वाली गली से जा रहा था। मैंने देखा एक बुढिया परेशान बैठी है। वह बड़बड़ा रही थी, ‘लोग, ’मुझे खोटे सिक्के

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दे जाते हैं।‘ पता चला उसे कम दिखाई देता था। उससे सामान खरीदने वाले इस बात को जानते थे और उसे ठग लेते थे। मैंने उससे बुढ़ापे में इस तरह दुकान लगाकर बैठने का कारण पूछा तो पता चला उसका जवान लड़का दुर्घटना का शिकार होकर घर में पड़ा था। इसीलिए उसे काम करना पड़ता था। बस, मैंने उससे सारे खोटे सिक्के लेकर बदले में खरे दे दिए। मैंने उससे कहा, माँ, तुम अपने खराब सिक्के मुझे दे दिया करो, मैं इन्हें चला दूँगा।सुनकर बेचारी खुश हो गई। मुझे दुआएँ देने लगी।‘

बाबा ने आगे कहा, “बेटा, लोगों के मन में छिपा पाप अँधेरे में बाहर आता है- मैंने इसे समझ लिया है। मैं तो चाहता हूँ दुनिया भर के खोटे सिक्के मेरे पास जाएँ। मैं जानता हूँ इस तरह अँधेरे में बैठकर मोमबत्ती बेचने से कुछ बेईमान लोग खोटे सिक्के अवश्य चलाने की कोशिश करेंगे, और ऐसा ही होता है। मैं खोटे सिक्के जमा करता जा रहा हूँ, इस तरह कम से कम इतने सिक्के तो अब एक से दूसरे के पास जाकर मनुष्यों को धोखा नहीं दे सकेंगे।

मैं क्या कहता, उनकी महानता देख, मेरा सिर झुक गया। अगर खोटे सिक्कों के ऐसे खरीददार और हों तो दुनिया ही बदल जाए।

जब मैं प्रणाम करके बाहर आने लगा तो बाबा ने मुझसे वचन लिया कि मैं इस बारे में किसी से कुछ नहीं कहूँगा और मैंने कहा भी नहीं। क्योंकि बात कहने की नहीं समझने की थी। आज उनके बारे में तब लिखा है जब वह इस दुनिया में नहीं हैं।==