गेंद का बचपन-कहानी-देवेंद्र
कुमार
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जया की रमा दादी
पूजा कर रही थीं। रविवार का दिन था, घर के सब लोग बाहर गए थे, नीचे बच्चे शोर मचा
रहे थे। इसलिए दादी का ध्यान बार बार भटक जाता था। तभी झन्न की आवाज के साथ पूजा
की थाली उलट गई। जलता दीपक बुझ गया, पूजा की सामग्री बिखर गई। बच्चों द्वारा उछाली
गई फुटबाल खिड़की से होती हुई पूजा की थाली में आ गिरी थी। रमा गुस्से से भर उठीं और
जोर से चिल्लाईं –‘ शैतान बच्चे ठीक से पूजा भी नहीं करने देते।‘ उन्होंने फुटबाल उठा कर
खिड़की से बाहर फेंक दी। थाली में पूजा की
सामग्री फिर से सजाई, बुझा हुआ दीपक दोबारा जलाया और पूजा में ध्यान लगाने का
प्रयास करने लगीं। लेकिन पूजा में मन नहीं लगा। मन उड़ कर न जाने कहाँ जा पहुंचा।
आँखों में एक छोटी
लड़की की छवि उभर आई। वह गाँव की कच्ची, धूल भरी गलियों में सहेलियों के साथ गेंद
से खेल रही है,झूला झूल रही है,हंस रही है, रो रही है, माँ की गोदी में लेटी हंस
रही है। और फिर रमा ने उस लड़की को पहचान लिया—यह तो वह
खुद थी। फिर उनका अपना बचपन सामने जीवंत हो उठा। उनकी आँखों से आंसू बह चले। उन्होंने
अपने हाथों को फुटबाल खिड़की से बाहर फेंकते देखा। होंठो से निकला-‘वह फुटबाल नहीं, मेरा बचपन मेरे पास आया था, जिसे मैंने अपने ही हाथों से दूर फेंक दिया। अब
वह कभी लौट कर नहीं आएगा।‘ पूजा अधूरी रह गई, दादी देर तक अपने
बचपन की उबड़ खाबड़ गलियों में भटकती रही।
पर आखिर कब तक अपने बचपन की गलियों में भटकती
रह सकती थी रमा दादी। कुछ देर तक आँखें मूंदे बैठी रहने के बाद, वह उठ कर खिड़की
में से नीचे झाँकने लगीं। उन्होंने देखा बच्चे चुप खड़े थे, शोर थम गया था। वे रह
रह कर दादी की खिड़की की ओर देख रहे थे। रमा ने कहा, ’बच्चो , वह फुटबाल कहाँ है
जिसे मैंने गलती से नीचे फेंक दिया था।‘
‘गलती से…’बच्चों ने अचरज से कहा। रमा दादी की बात किसी की समझ में नहीं आ रही थी।
‘हाँ,मुझे फुटबाल
को नहीं फेंकना चाहिए था। क्या तुम सब उस फुटबाल को खोज कर मेरे पास ला सकते हो। बदले
में मैं तुम बच्चों को एक नई फुटबाल इनाम में दूँगी।‘
1
नई फुटबाल के
लालच में बच्चे तुरंत खोज में लग गए। लेकिन
उनकी पुरानी फुटबाल कहीं न मिली। जब बच्चे निराश होकर लौटे तो रमा खिड़की में ही
खड़ी थीं। उन्होंने कहा-‘ नहीं मिली न, मुझे पता था कि मैंने जिस फुटबाल को अपने से
दूर फेंका था, वह अब मेरे पास कभी वापस नहीं आएगी,पर इसे छोड़ो, तुम्हें नई फुटबाल
जरूर मिलेगी।‘ फिर उन्होंने एक बच्चे को ऊपर बुला कर नई फुटबाल के लिए
पैसे दे दिए। फुटबाल--प्रेमी बच्चे रमा के
विचित्र व्यवहार को कभी समझ नहीं पाए। रमा के मन के भीतर भला कौन झांक सकता था।
इस बात को कई दिन
बीत गए। अपने बचपन की यादें रमा को आराम से नहीं रहने दे रहीथीं,वह ठीक से पूजा
में ध्यान नहीं लगा पा रही थीं। उस दिन पूजा के बाद रमा सोसाइटी के पार्क में जा
बैठीं।सामने माली रामधन क्यारी में काम कर रहा था। पास में उसका छह सात का बेटा
राजू घास पर फुटबाल लुढका रहा था। फुटबाल कई जगह से कटी हुई थी इसलिए घास पर ठीक
से लुढ़क नहीं रही थी।
रमा उठ कर राजू
के पास जा खड़ी हुई। उन्होंने कटी हुई फुटबाल को उठाया तो लगा जैसे यह वही फुटबाल
है जिसे उन्होंने खिड़की से बाहर फेंक दिया था। रमा ने फुटबाल को दोनों हाथों में कस
कर पकड़ लिया। फिर रामधन से कहा-‘मैं तुम्हारे बेटे के लिए नई फुटबाल मंगवा दूँगी। अगर
तुम कहो तो इस फुटबाल को मैं ले जाऊं।‘
रामधन ने हैरान
स्वर में कहा-‘ माँजी, ले जाइये,वैसे भी यह फुटबाल मेरी तो है नहीं।मुझे तो यह एक
क्यारी में पड़ी मिली थी।
रमा फुटबाल को सावधानी से हाथों में थामे हुए
अपने फ़्लैट में आ गईं, और फुटबाल को पूजा की थाली के पास रख दिया। फिर देर तक उसे
देखती रहीं। आँखों के सामने फिर से अपने भूले बिसरे बचपन के अनेक चित्र तैर गए। देर
तक अपने बचपन में खोई बैठी रहीं।लगा जैसे सामने फुटबाल नहीं बचपन के दरवाजे की
जादुई चाबी रखी थी।
अगली दोपहर रमा पार्क
में गईं तो उनके हाथ में रामधन के बेटे राजू के लिए नई फुटबाल थी। उन्होंने इधर उधर देखा पर रामधन नहीं दिखाई
दिया, राजू भी नहीं था। कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद उन्होंने सोसाइटी के गार्ड
से पूछा। पता चला कि रामधन के गाँव में किसी रिश्तेदार की शादी है, परिवार के साथ
वहीँ गया है। दो दिन में वापस आ जायेगा। एक हफ्ता बीत गया, पर रामधन नहीं लौटा। गार्ड
ने बताया कि गाँव में राजू बीमार हो गया है, इसीलिए रामधन अभी कुछ दिन के लिए गाँव
में ही रुक गया है।
2
रमा को चिन्ता ने
घेर लिया। उन्हें लगा कि गाँव जाकर राजू का हाल चाल लेना चाहिए। वह समझती थीं कि
राजू के कारण ही उन्हें बचपन की गलियों में ले जाने वाली फुटबाल फिर से मिल सकी थी।
उन दोनों के बीच जैसे एक अनोखा सम्बन्ध बन गया था।
रमा ने बेटे नरेश
से पटल गाँव चलने को कहा तो वह चौंक उठा। बोला—‘ पटल गाँव में तो हमारा कोई
सम्बन्धी रहता नहीं है, फिर वहां क्यों जाना है!’
‘मेरा कोई तो है
वहां, बस सवाल मत पूछ, ले चल मुझे।‘ रमा ने कहा। पटल गाँव ज्यादा दूर नहीं था। नरेश की कार गाँव
में पहुंची तो लोग जमा हो गए। रामधन रमा दादी को देख कर चौंक पड़ा, फिर रमा को राजू
के पास ले गया। राजू बिस्तर पर लेटा था। रमा ने राजू का सिर सहलाया और एक नई
चमचमाती फुटबाल उसके हाथो में थमा दी। नई फुटबाल पाकर राजू बहुत खुश हो गया। रमा
ने रामधन से कहा-‘ तुम्हारे बेटे को अच्छे इलाज की जरूरत है। तुम मेरे साथ वापस
चलो। मैं एक अच्छे डाक्टर को जानती हूँ। उनकी दवाई से राजू और भी जल्दी स्वस्थ हो
जाएगा।‘
अपने शहर पहुँच कर
रमा ने कार डाक्टर अनु के क्लिनिक के बाहर रुकवा ली। वह डॉ.अनु को अच्छी तरह जानती थीं। क्लिनिक के वेटिंग हाल में रामधन और राजू को बैठा
कर रमा कक्ष में जाकर डॉ. अनु से मिलीं और उन्हें राजू के बारे बताया। फिर कहा-‘राजू
का पिता इलाज का खर्च नहीं उठा सकेगा। दवा के पैसे मैं दूँगी,लेकिन यह बात उसे पता
नहीं चलनी चाहिए। उसके स्वाभिमान पर चोट लग सकती है’ डॉ, अनु की मेज पर रुपये रख कर
रमा बाहर आ गईं।
डॉ. अनु के इलाज से राजू जल्दी स्वस्थ हो गया। और फिर एक दिन उन्होंने राजू को नई फुटबाल के साथ खेलते देखा। रामधन ने कहा-‘माँजी,डॉ। साहिबा बहुत अच्छी हैं।‘ रमा मुस्करा कर अपने फ़्लैट में चली आईं। पूजा की थाली के पास रखी पुरानी फुटबाल को देख कर मन फिर से पीछे की यात्रा पर निकल पड़ा। सचमुच वह फुटबाल अतीत के दरवाजे की जादुई चाबी थी। घर में सब को पता था कि पुरानी फुटबाल को उसकी जगह से हिलाना नहीं है। इस बारे में रमा किसी प्रश्न का उत्तर देने वाली नहीं थीं। (समाप्त)