Tuesday 27 September 2022

पुस्तकें बदल गईं- कविता-देवेंद्र कुमार

 

पुस्तकें बदल गईं- कविता-देवेंद्र कुमार

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मैं कहीं और था

यहां

पुस्तकें बदल गईं

बाहर ही रोककर

पूछा गया

यह नहीं

कि क्या था मेरे पास

बताऊं

मैं हूं किसके साथ?

 

 

मैं था जंगल में

डरी हुई चिडि़या से बातों में

और  यहां वे लगे थे

धरती-आकाश मिलाने में

सच

बहुत कुछ बन गया था

पूरी बस्ती

खर्च हो गई थी

एक दीवार उठाने में

 

मैं फिरा था

हवा में

फूलों पर टलमल  मोतियों में

इंद्रधनुष देखता

वहां

हंसी का अर्थ

खिलना

यहां

खिलखिल अमरबेल

चढ़ी है

गैर आंसुओं की मुंडेरी

सचमुच

पुस्तकें बदल गईं।

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खाली गिलास -कहानी-देवेंद्र कुमार ==========

                              खाली गिलास -कहानी-देवेंद्र कुमार

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सवेरे का समय था, बलवान चाय वाले की दूकान पर काफी भीड़ थी रोज की तरह। वहीँ काम करता था रमुआ। उसका काम था जूठे गिलास धोना, टेबल पर कपडा मारते रहना और आस पास की दुकानों में  चाय दे कर आना। उसका कोई नहीं था इसलिये बलवान को ही बापू कहता था। वैसे बलवान उसका कौन था, यह बात उसे मालूम नहीं थी। पर उसने बलवान को कई बार ग्राहकों से इस बारे में  कहते सुना था।

 

 वह कहता था – “अरे साहब, क्या बताऊँ रमुआ की कहानी। यह तो मुझे सड़क पर रोता हुआ मिला था। बस मुझे दया आ गयी और मैं इसे साथ ले आया। कई बरस हो गए तब से इसे अपने बेटे की तरह पाल रहा हूँ।” सुनने वाले बलवान की तारीफ़ करते और चाय पीकर चले जाते। इस बीच वह सिर  झुकाए काम में  लगा रहता। उसे अच्छी तरह पता था कि जरा हाथ रुके नहीं कि आफत आ जाएगी। बलवान के प्यार का कड़वा सच उसे खूब मालूम था। बात बेबात रमुआ के गाल लाल करने में बलवान को जैसे मज़ा आता था। उसकी आँखों  में आंसू आते और सूख़ जाते, वह किस से अपना दुःख कहता, कहाँ जाता।

 

हर दिन एक ही ढंग से बीतता था। रात को चाय की दुकान बंद होने का कोई समय नहीं था, जब तक ग्राहक आते रहते दुकान चलती रहती, और रमुआ के हाथ और पैर भी काम में लगे रहते। वह जरा भी ढिलाई नहीं कर सकता था, फिर चाहे भूख लगी हो या सिर दुःख रहा हो, उसे छुटकारा नहीं मिलता था। एक दिन उसने भूख लगने की बात कह दी तो जोर का तमाचा गाल पर पड़ा था, एक भद्दी गाली सुनने को मिली थी। उस दिन बलवान ने साफ़ कह दिया था कि खाना दुकान का काम पूरा होने के बाद ही मिलेगा। रमुआ को पता चल गया था कि क्या बात बलवान से नहीं कहनी है। मतलब यह कि जब बलवान दे तभी खाना है, और जब छुट्टी दे तभी मेज कुर्सियों के बीच नंगी जमीन पर लेट जाना है, फिर चाहे टूटी- फूटी नींद पूरी हो न हो, उसे सही समय पर उठ जाना है।

 

1

 

दो दिन से उसे नींद नहीं आ रही है, सिर में दर्द होता रहता है। सुबह दूध वाला आकर शटर बजाता है तो रमुआ अंदर से शटर उठा कर दूध ले लेता है। यह रोज का नियम है। दूध वाला सुबह बहुत जल्दी आ जाता है, तब तक दिन भी नहीं निकला होता है पर रमुआ का काम तभी से शुरू हो जाता है। उस दिन रमुआ को शटर उठाने में देर हो गई, पूरे बदन में  दर्द हो रहा था। उसे बुखार था। दूध वाले ने बलवान से देरी की शिकायत कर दी। फिर तो आफत ही आ गई, बलवान ने चांटों से उसके गाल लाल कर दिए। पर यह नहीं पूछा कि उठने में  देर क्यों हुई थी।

 रमुआ ने बुखार के बारे में  कुछ नहीं कहा, कहने से कुछ फायदा भी नहीं था, बुखार कोई पहली बार नहीं हुआ था। मार खाकर वह  काम में लग गया। पर काम में रोज जैसी फुर्ती नहीं थी। चाय बनाने वाले मुन्ना ने उसका हाथ छूकर देखा तो चौंक  कर बोला- “ अरे, तुझे तो तेज बुखार है!” पर वह इससे ज्यादा कुछ नहीं कह सका, क्योंकि बलवान उधर ही देख रहा था। मुन्ना को भी बलवान के गुस्से के बारे में खूब अच्छी तरह पता था। रमुआ की हिमायत लेकर उसे अपनी मुसीबत नहीं बुलानी थी।

ग्राहक चाय-नाश्ते का मज़ा ले रहे थे, इस बीच रमुआ बाज़ार में भी कई बार चाय दे आया था, उसका मन कर रहा था कि गरमागरम चाय पी ले तो शायद तबीयत कुछ ठीक हो जाये, लेकिन पी नहीं सकता था। तभी बलवान ने बाज़ार में चाय दे आने को कहा। वह चाय का गिलास लेकर चल दिया, पर  ठीक से चल भी नहीं पा रहा था।

 आगे एक आदमी चबूतरे पर बैठा अखबार पढ़ रहा था | वह रमुआ को जानता था, उसे बलवान की दुकान पर लट्टू की तरह घूमते देखा था। उसने भी रमुआ के बारे में बलवान के मुंह से खुद की तारीफ कई बार सुनी थी| उसने रमुआ को डगमगाते आते देखा तो पुकार लिया – “सुन तो।” फिर बढ़ कर उसका हाथ पकड़ लिया। चौंक कर बोला- “ तुझे तो तेज बुखार है,रो क्यों रहा है? चाय पी या नहीं?’

रमुआ ने इनकार में सिर हिला दिया, और जोर से रो पड़ा, उस आदमी ने चाय का गिलास रमुआ के हाथ से ले लिया, फिर बोला-“ यहाँ बैठ और चाय पी ले, “

रमुआ ने रोते हुए कहा –“ मार पडेगी।”

उस आदमी ने कहा-“ कोई नहीं मारेगा ,तू चाय पी ले, फिर मैं तुझे अपने साथ ले जाकर दवा दिलवा दूंगा।”

2

 

रमुआ चुप बैठा रोता रहा पर उसने चाय नहीं पी, उसे अच्छी तरह पता था कि बलवान उसके साथ क्या करेगा। उस आदमी ने रमुआ के सिर पर हाथ फिराया,बोला-“ तू आराम से चाय पी, फिर मैं तुझे डॉक्टर के पास ले चलूँगा| अब बलवान के पास जाने की कोई जरुरत नहीं। “

रमुआ एकटक उस की ओर देखता रहा, उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था।

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दुकान पर बलवान ने रमुआ को पुकारा तो मुन्ना ने कहा-‘ वह तो चाय देकर लौटा  ही नहीं है।”

सुनते ही बलवान  आग बबूला हो गया| मुन्ना से बोला-“ उसे पकड़ कर तो ला जरा, आज उसकी हड्डियाँ अच्छी तरह नरम करूंगा, तभी अक्ल ठिकाने होगी उसकी।”

मुन्ना समझ गया कि आज रमुआ की खैर नहीं| उसने सब जगह देख डाला, पर रमुआ कहीं नहीं था। एक दुकान के चबूतरे पर चाय का खाली  गिलास रखा था। पर चाय का खाली गिलास रमुआ के बारे में कुछ कहने वाला नहीं था।

आखिर रमुआ कहाँ गायब हो गया था ! वह एक अनजान आदमी के साथ डाक्टर के पास जा रहा था | रमुआ और वह अनजान आदमी एक दूसरे के कुछ नहीं थे, लेकिन रमुआ के दुःख ने किसी का मन छू लिया था|अगर यह हो सके तो कई  छोटे बच्चों के बड़े दुःख दूर हो सकते हैं | (समाप्त )  

  

 

 

 

 

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Tuesday 20 September 2022

बप्पा बाहर गए हैं-कहानी-देवेंद्र कुमार

 

  बप्पा बाहर गए हैं-कहानी-देवेंद्र कुमार

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     अभी दिन पूरी तरह नहीं उगा है,हौज़ काज़ी चौक की सब दुकानें बंद हैं ,सड़कों पर इक्कादुक्का लोग दिखाई दे रहे हैं। लेकिन पटरी से लग कर १५-२० लोग एक कतार में बैठे हैं। वे रोज बैठते हैं चाहे मौसम कैसा भी हो।  उन्हें देख कर लगता है जैसे पंगत में बैठे हुए दावत की बाट जोह रहे हों। वे बाट देखते हैं लेकिन दावत की नहीं,रोजनदारी के काम की।

      वे सब दिहाड़ी मजदूर हैं जो काम की तलाश में सुबह मुंह अँधेरे वहाँ आकर बैठ जाते हैं। किसी को काम मिल जाता है तो कोई शाम तक निराश आशा में बैठा रहता है। हरेक के आगे उसकी पहचान रखी रहती है। जैसे बिजली मजूर के आगे तारों  का बण्डल तो बढ़ई के सामने आरी और हथौड़ा ; रंग-- रोगन करनेवाले अपने सामने ब्रश और कूंची रखते हैं तो मजदूर के सामने फावड़ा और कुदाल देखे जा सकते हैं|                                                                                             1        

   सर्दियों के दिन , ठंडी हवा बह रही थी। धूप अभी नीचे नहीं उतरी थी। लेकिन मौसम की परवाह न करते हुए काम की तलाश करने वालों की पंगत लग चुकी थी। तभी एक औरत वहां आ खड़ी हुई।उसने एक बच्चे का हाथ पकड़ रखा था। आखिर कौन थी वह? पहचानने में थोड़ी देर लगी, फिर किसी ने कहा-‘ अरे,  तो श्याम की पत्नी है।’ फिर तो श्याम की पत्नी को कई लोगों ने पहचान लिया। एकाएक भूला हुआ श्याम सबको याद आ गया। श्याम भी इसी जगह बैठ कर काम मिलने की प्रतीक्षा करता था औरों  की तरह। बीच में कुछ समय तक नहीं आया और एक सुबह पहले की तरह लौट आया। पूछने पर उसने बताया कि तबीयत ठीक नहीं रहती।

     फिर तो श्याम अक्सर चौक की मजदूर मंडी से गायब रहने लगा। कभी आता तो फिर कई कई दिन तक न आता। यह कोई खास बात नहीं थी। औरों के साथ भी ऐसा कई बार हुआ था। और फिर श्याम ने आना बंद कर दिया। एक बुरी खबर सुनने को मिली, कई लोग उसके घर भी गए। समय बीता और फिर सब भूल गए| लेकिन उस दिन श्याम की पत्नी को देख कर भूला हुआ श्याम फिर से याद आ गया। पर श्याम की पत्नी  रमा यहाँ क्यों आई है- हर कोई यही सोच रहा था। तब तक रमा बच्चे का हाथ पकड़कर  पांत में बैठे लोगों के एकदम पास चली आयी। लोगों ने सुना—‘ तेरे बप्पा यहीं बैठते थे।’—रमा बच्चे को बता रही थी। ‘ मैं भी बैठूँगा।’ बच्चे ने कहा। वह बारी बारी से सबको देख रहा था।  

     सबको याद था कि श्याम कहाँ बैठा करता था। सब इधर-उधर खिसक कर जगह बनाने लगे। अब पांत में एक खाली जगह नजर आने लगी। शिबू ने बच्चे की ओर देख कर कहा—‘बेटा, यहीं बैठा करते थे तुम्हारे बप्पा,’ और बच्चे का हाथ पकड़ कर खाली जगह पर बैठा दिया। बच्चा मुस्कराया—‘मैं यहीं बैठूँगा।’ रमा चुप खड़ी देख रही थी। बेटे को हँसते देखा तो खुद भी मुस्करा दी। लेकिन आँखों में  आंसू झलमला रहे थे।

                                                                        1

      ‘’बेटा, नाम बताओ।’—एक ने पूछा,

       ‘श्याम सुंदर।’’

        ‘ बेटा अपना नाम बताओ।’—रमा ने कहा और एक झोला बेटे के पास रख दिया। वह झोला श्याम का था।  

         ‘विजय बहादुर।’’ बच्चा हंसा तो पांत में बैठे सभी खिलखिला उठे।

               एक जना उठ कर गया और चाय वाले के ठेले के पास रखा स्टूल लाकर श्याम के बेटे को उस पर बैठा दिया। विजय ने कहा—‘ बप्पा बाहर गए हैं । मैं यहाँ बैठूँगा। ‘

                                                                             

              हाँ, हाँ जरूर बैठना। ‘’ एक आवाज उभरी। पांत में बैठे लोगों ने विजय को घेर लिया। अभी तक किसी को कोई काम नहीं मिला  था,लेकिन कोई उदास नहीं था।

     तभी उसमें बाधा पड़ी। किसी ने कहा—‘अरे, यह मजमा क्यों लगा रखा है।’ यह रघुवीर था। उन्ही में से एक लेकिन झगडालू। उसे देखते ही लोग परे हट गए। उसने विजय को स्टूल पर बैठे देखा तो चिल्लाया—‘ यह कौन है, मेरी जगह क्यों बैठा है?’’ और विजय को हटा कर खुद बैठते हुए स्टूल को दूर खिसका दिया।

     उसकी इस बात से सभी को गुस्सा आ गया। इस तरह हटाये जाने से विजय रो पड़ा। रमा ने कहा—‘बेटा, रो मत,आ घर चलें।’  उसका हाथ थाम कर मुड़ी तो रमन ने रोक लिया—‘ रुको, मत जाओ।विजय अपने बप्पा की जगह बैठा है। इसे कोई नहीं हटा सकता।’ दो जनों ने रघुवीर को जबरदस्ती उस जगह से हटा दिया। फिर विजय को वहां बैठाते हुए बोले –‘कोई नहीं हटा सकता इसे।’

 तब तक फजलू पेंटर ब्रश पेंट में डुबा कर, जमीन पर लिखने लगा—‘विजय की जगह’ और शब्दों को एक गोले से घेर दिया|

                                                                     2

    ‘’यह हुई कुछ बात।’—ललन बोला। सबने उसकी हाँ में हाँ मिलाई। नाराज रघुवीर चुप खड़ा गुस्से से देख रहा था। रमा ने बेटे से कहा—‘जरा पढ़ कर तो बताओ।’’ विजय शब्दों को देखता खड़ा था। वह अभी पढना नहीं जानता था। रमा ने कहा—अपना नाम तभी पढ़ सकोगे जब स्कूल जाओगे।’

     ‘ मैं स्कूल जाऊँगा, किताब पढूंगा।’’—विजय बोला। इतने में रमन जाकर कापी, पेंसिल और अ आ वाला कायदा ले आया। विजय को देते हुए बोला—‘ बेटा, स्कूल जाना,मन लगा कर पढना।’’

   ‘बप्पा की जगह बैठूँगा।’ विजय ने कहा। रमा बोली—‘ यह स्कूल जाने को तैयार नहीं होता। आज जिद करके यहाँ आया है।’’ तभी ललन ने जेब से एक कागज निकाल लिया। बोला—‘ विजय, मेरे पास तुम्हारे बप्पा की चिट्ठी आई है। उन्होंने लिखा है…..’

     रमा और विजय ललन की ओर देखने लगे। फजलू  ने कहा—‘पढो विजय के बप्पा की चिट्ठी।’ ललन ने पढने का नाटक किया—विजय से कहना   मैं जल्दी ही उसके पास आऊंगा।लेकिन एक शर्त है—उसे स्कूल जाकर ख़ूब पढना होगा। और हाँ वह अपनी माँ को परेशान न करे। ‘ ललन ने वह कागज विजय को थमा दिया। कहा –‘ बेटा, तुमने सुना तुम्हारे बप्पा ने क्या लिखा है।’

    ‘’  बप्पा ने लिखा है…..’ विजय ने कहा। पास खड़ी रमा की आँखों से आंसू बह चले। उसने माँ का हाथ थाम लिया –‘’ माँ, मैं स्कूल जाऊँगा,तुम्हें परेशान नहीं नहीं करूंगा।’’

      रमा  ने सबको नमस्कार किया और विजय का हाथ थाम कर वापस चल दी। वे लोग दोनों को जाते हुए देख रहे थे। अपने बप्पा की चिट्ठी विजय के हाथ में थी। वह स्कूल जाएगा, मन लगा कर पढ़ेगा, और माँ को परेशान बिलकुल नहीं करेगा| तभी बारिश होने लगी फिर धूप भी निकल आई। गीली सड़क पर घेरे में लिखा ‘विजय की जगह’ नाम चमक रहा था|===

                                                                   ( समाप्त )

Wednesday 14 September 2022

परिंदे-कहानी-देवेंद्र कुमार =====

 

  परिंदे-कहानी-देवेंद्र कुमार

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 राजकुमार अभय का  जन्मदिन निकट आ गया है। एक महीना पहले से ही जन्मदिन समारोह की तैयारियाँ होने लगी थीं। पूरा नगर किसी नई नवेली दुल्हन की तरह सजा दिया गया था। हर दिन नृत्य-संगीत की महफिल जमती थी। न जाने कहाँ-कहाँ से कलाकार बुलाए गए थे।

जन्मदिन का भव्य समारोह राजधानी के बीचोंबीच बने विशाल खेल मैदान में किया जाता था। पूरी राजधानी वहाँ उमड़ पड़ती। अभय अपने हाथ से हजारों कैद परिंदों को आकाश में छोड़ता था। दीन-दुखियों को खूब दान भी दिया जाता था। यह हर वर्ष का नियम था। राजकुमार अभय का जन्मदिन राज्य का सबसे बड़ा त्यौहार बन चुका था।

जन्मदिन से एक दिन पहले दूर-दूर से लोग पिंजरों में बंद परिंदों को लेकर मैदान में जमा हो जाते थे-इनाम की प्रतीक्षा में। जो व्यक्ति जितने अधिक पक्षी राजकुमार को भेंट करता था, उसको उतना ही अधिक इनाम मिलता था।

सब लोग खुश हो जाते थे, लेकिन स्वयं राजकुमार अभय को उदासी घेर लेती थी अपने जन्मदिन पर। इधर दो-तीन वर्षों से एक विचित्र घटना घटने लगी थी। जन्मदिन से पहले कई रातों को अभय को एक डरावना सपना दिखाई देता और वह चीखकर जाग उठता, फिर नहीं सो पाता था। सपने में अभय को दिखाई देता कि वह एक घनघोर वन में चला जा रहा है, उसके दोनों ओर परिंदों के पंख फड़फड़ाने और चीखने की आवाजें रही हैं। वह आगे बढ़ता तो एक खौफनाक दृश्य दिखाई देता-दोनों ओर झाडि़यों में असंख्य परिंदे उलझे हुए चीख-चिल्ला रहे हैं।

अभय की समझ में आता कि ऐसा क्यों होता है? लेकिन वह आतंक के कारण अंदर-ही-अंदर कांपता रहता। जन्मदिन समारोह की रात को हँसी-खुशी के बीच अगर कोई उदास होता था तो राजकुमार अभय।

इस बार भी वही हुआ। वही डराने वाला सपना-परिंदों का पंख फड़फड़ाना, चीखना-चिल्लाना। राजकुमार चौंक कर  उठ बैठा। अभी दिन नहीं निकला था। अपने को महल की सुखद शैया पर पाकर भी चैन नहीं पड़ा। आखिर क्यों दिखाई देता है यह सपना? पूरे वर्ष में कभी नहीं दिखाई देता! जिस दिन मैं हजारों कैद परिंदों को मुक्त करता हूँ उससे पहले क्यों परेशान करता है यह मुझे?” इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सका अभय को।

सुबह कुमार की उदासी सब को पता चल गई, पर उससे पूछने का साहस कोई जुटा सका। राजकुमार घोड़े पर बैठ जंगल की ओर चल दिया। चारों ओर से बेखकर, अपने में मस्त राजकुमार को घोड़ा लिए जा रहा था।

घोड़ा रुक गया, तो अभय को जैसे होश आया। देखा, सामने एक तपोवन है। कुटिया के द्वार पर खड़े एक साधु मुसकराते हुए उसकी ओर देख रहे हैं।

अभय घोड़े से उतर पड़ा। साधु के चरण छुए। उन्होंने आशीर्वाद दिया और अंदर ले गए। कुटिया के पिछवाड़े हरे-भरे पेड़ों की घनी छाया में कोयल की कूक गूँज रही थी। रंगबिरंगे फूल सुगंध बिखेर रहे थे। अभय को अच्छा लगा।

साधु बाबा ने उसका हालचाल पूछा, तो अभय अपनी बेचैनी छिपा सका। रात में देखा सपना बता गया। कहते-कहते उसकी आवाज कांपने लगी।

सुनकर बाबा हँस पड़े। उन्होंने कहा, “तुम्हारे जन्मदिन पर मैं स्वयं राजधानी आने वाला था। अच्छा हुआ, तुम गए। मैं जानता हूँ-शायद इसका कारण भी बता सकता हूँ। लेकिन उससे पहले तुम्हें मेरे साथ चलना होगा । तुम केवल देखोगे और सुनोगे बोलोगे कुछ नहीं।

अभय ने तुरंत उसकी बात मान ली। वह अपने सपने का रहस्य जानने को उत्सुक था। थोड़ी देर बाद दोनों साधारण नागरिकों के वेश में एक ओर चल दिए। राजकुमार ने वन में कई स्थानों पर पक्षियों के फंसाने के लिए फंदे लगे देखे। वह आश्चर्य से इधर-उधर देखने लगा। साधु और वह दिन भर इधर-उधर घूमे। राजकुमार ने पाया , हर कहीं लोग उसके जन्मदिन की तैयारी में परिंदों को पकड़ने में लगे हुए हैं। उसने लोगों को पिंजरे तैयार करते हुए भी देखा था।

 अभय ने साधु बाबा से विदा लेनी चाही, तो उन्होंने कहा, “यही कारण है तुम्हारे दुःस्वप्न का। तुम पंछियों को अपने जन्मदिन पर मुक्त करते हो, इसलिए बेचारे पूरे साल कैद में पड़े रहते हैं। इस तरह फंदों में फंसाने से अनेक पक्षी मर जाते हैं। उनके पंख नुच जाते हैं। लोगो ने इसी को अपना धंधा बना लिया है। चाहो तो सपने का अर्थ स्वयं समझ सकते हो। तुम एक दिन की आजादी देने के लिए पंछियों को वर्ष भर कैद में रखवाते हो। उधर तुम परिंदों को मुक्त करते हो, इधर उन्हें फिर से कैद करने का चक्कर चल पड़ता है।

अभय ने जो कुछ अपनी आँखों से देखा था, उसका अर्थ साधु बाबा ने समझा दिया। सचमुच इस बात पर तो उसने कभी विचार ही नहीं किया था।

सोचता-विचारता अभय राजधानी की ओर लौट चला। उसने तुरंत घोषणा करा दी-“आज से  राजकुमार के  जन्मदिन पर कैद परिंदों को मुक्त करने की प्रथा समाप्त की जाती है।

राजकुमार के  जन्मदिन पर लोग तरह-तरह के उपहार लेकर आए। कुछ लोग पिंजरों में कैद पंछियों को भी ले आए थे। उन्हें वहाँ से भगा दिया गया, लेकिन पिंजरे छीनने के बाद। अभय के हाथ पिंजरों के मुंदे द्वार खोलकर, कैद पंछियों को आजाद करने के लिए कसमसा रहे थे।

डस रात डरते-डरते नींद की गोद में गया अभय। कुछ नहीं हुआ, वह आराम से सोता रहा। सुबह उठा तो उसे कोई सपना आया हो ऐसा याद नहीं था। सारे कैद परिंदे आजाद हो चुके थे।====