Monday 29 April 2024

अंगूठी--देवेंद्र कुमार

 

                                                        अंगूठी--देवेंद्र कुमार

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 एक दोपहर मैं स्कूल से लौटा तो देखा चमन मामा आये हुए हैं| उन्होंने मुझे प्यार किया और फिर माँ से बातें करने लगे। माँ के सामने एक डिब्बा खुला हुआ था। उसमें कई अंगूठियां चमक रही थीं |मामाजी गाँव में सुनार की दूकान चलाते थे।मामाजी वे अंगूठियां किसी ग्राहक के लिए लाये थे।मैं भी अंगूठियों को उठा उठा कर देखने लगा। एक अंगूठी मेरी ऊँगली में फिट आ गई  और मैंने उसे पहन लिया। तभी माँ ने कहा-'विमल, अपने मामाजी के लिए गरम पकौड़ियाँ  ले कर आ।  मैं बाहर की ओर  चला तो माँ बोली-यह अंगूठी तो उतार दे।'  पर मैंने जैसे उनकी बात सुनी ही नहीं, ऊँगली  में अंगूठी सुन्दर लग रही थी |

 

हमारी गली में ओमप्रकाश ठेले पर पकौड़ियाँ बेचता था। उसकी पकौड़ियाँ  सबको पसंद थीं।ओमप्रकाश पकौड़ियाँ तल रहा था। कई जने इन्तजार में खड़े थे । मैं भी एक तरफ खड़ा हो गया। तभी मेरी नज़र ओमप्रकाश के हाथ पर गई , उसकी ऊँगली में अंगूठी चमक रही थी लेकिन मेरी ऊँगली खाली थी। न जाने अंगूठी कहाँ गिर गई थी।मैं सन्न रह गया। और मुड  कर घर की तरफ भागा।मैं ध्यान से देखता गया, पर अंगूठी कहीं न थी,मैं घर में घुसा तो माँ ने कहा-' पकौड़ियाँ लाया?’

 

मैं फिर बाहर  की तरफ दौड़ा, मेरी आँखें गली का चप्पा चप्पा देख गईं,  पर अंगूठी कहीं न मिली।मैं फिर से ठेले के पास जा खड़ा हुआ।                                                                 

ओमप्रकाश ने पूछा -कितनी  पकौड़ियाँ दूँ ?तभी किसी ने कहा-'पकौड़ियां बाद में ,पहले बच्चे से यह तो पूछो कि रो क्यों रहा है !'अब मुझे पता चला कि मैं रो रहा था।  अब तो वहां खड़े कई जने भी पूछने लगे –क्यों  रो रहे हो ?'  चबूतरे पर ख़ड़ी ओमप्रकाश  की पत्नी उमा ने  मुझे रोते  देखा तो मेरे पास आ खड़ी हुई। मेरा सिर सहला कर पूछा -'क्या बात है बेटा, क्यों रो रहे हो। पैसे  खो गए क्या?’

 

'अंगूठी' मैंने कहा और उन्हें बता दिया कि अंगूठी न जाने कहाँ गिर गई।

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उमा मेरी माँ को जानती थीं। कहा-'घबराओ मत। मिल जाएगी अंगूठी। मैं चलती हूँ तुम्हारे साथ। कोई कुछ नहीं कहेगा तुम्हें ' उन्होंने एक कटोरे में पकौड़ियाँ रखी और मेरा हाथ थाम कर माँ के पास ले आईं। मेरे कुछ कहने से पहले ही उन्होंने माँ को मेरे रोने के बारे में बता दिया।

 

 माँ ने कहा -मैंने तो इससे कहा भी था कि अंगूठी पहन कर बाहर मत जा। मामाजी ने मुझे प्यार किया मेरे साथ जाकर बहुत ध्यान से कई बार गली में घूम घूम कर खोई हुई अंगूठी को खोजा ,पर अंगूठी नहीं मिली|मामाजी ने माँ से कहा -जो हो गया उसे भूल जाओ। वचन दो कि मेरे जाने के बाद विमल से कुछ नहीं कहोगी.''

 

इस बीच उमा माँ को तसल्ली देती रही। कुछ देर बाद मामाजी ग्राहक को अंगूठियां दिखाने चले गए। जाते जाते उन्होंने माँ से  फिर  कहा-'विमल को डांटना मत। ' मैं एक तरफ बैठा हुआ अंगूठी के बारे मे सोच रहा था। फिर न जाने कब नींद आ गई।बाहर बारिश होने लगी|

                                                           

 

एकाएक नींद टूट गई,कोई दरवाज़ा   खटखटा  रहा था। 'इस बारिश में कौन आ गया। ' माँ ने कहा और दरवाज़ा खोलने चली गई। आँगन में बारिश का पानी जमा हो गया था। मम्मी ने दरवाज़ा खोला, आश्चर्य से कहा-'उमा, तुम   रात के समय  इतनी तेज बारिश में ,!' घडी में रात के दस बज रहे थे। मैं सोचने लगा -भला  इस समय क्यों आई हैं उमा ! वह माँ के पीछे कमरे में आ गईं। फिर एक डिबिया माँ को देकर कहा-' मैं इसे न जाने कब से ढूंढ रही थी। खोज में कितने घंटे बीत गए।'

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'क्या है इस डिबिया में जो तेज बारिश में  लेकर आई हो!'कहते हुए माँ ने डिबिया खोली और अचरज से कहा – अंगूठी  कहाँ मिली।

मैं उछल कर माँ के पास जा खड़ा हुआ,  मन ख़ुशी से झूम उठा -तो आखिर मिल गई खोई हुई अंगूठी!’ ,कहाँ मिली।?’

                                                                                 

‘'नहीं यह तुम्हारी खोई हुई अंगूठी नहीं है, यह तो मेरे गोपेश की है,'-उमा ने कहा और रोने लगी।

'अरे रे यह क्या  ,रो क्यों रही हो ?' माँ ने उमा से पूछा। कमरे में कुछ देर सन्नाटा रहा ,फिर उमा ने कहा-'बहन,तुम्हेँ शायद याद होगा,एक साल पहल…' और फिर रो पड़ी।

 

माँ ने कहा-मुझे गोपेश की याद है , दुःख न करो,वह जरूर लौट आएगा।' गली में सब जानते थे गोपेश के गायब होने के बारे में। एक साल पहले की बात है। गोपेश स्कूल से न जाने कहाँ चला गया था। पुलिस में उसके खो जाने की रिपोर्ट कराई  थी उसके पिता ने, पर इतना समय बीत जाने के बाद भी गोपेश का पता नहीं चला था।

 

माँ उमा को ढाढस बंधाती रही। उमा ने  गोपेश के लिए अंगूठी बनवाई थी। वही मेरे लिए देने आई थी। उमा अंगूठी को मेरी ऊँगली में पहनाने लगी तो माँ ने कहा-'उमा,रुक जाओ। मैं  गोपेश की अंगूठी  नहीं ले  सकती। दुःख न करो। मेरा मन कहता है तुम्हारा गोपेश जल्दी ही लौट आएगा।

 

 

उमा ने कहा -'ईश्वर करे आपकी बात  सच हो जाए। लेकिन अंगूठी को लेने से मना  मत करो। जब मैंने विमल को ठेले का पास खड़े रोते  देखा तो एकदम गोपेश का चेहरा आँखों के सामने आ गया। लगा जैसे सामने गोपेश खड़ा हो। आपके पास से जाने के बाद मैं अंगूठी की खोज में जुट गई। अब मिली तो तुरंत यहाँ चली आई। विमल भी मेरे गोपेश जैसा ही है।  अंगूठी नहीं लोगी तो मुझे बहुत दुःख होगा। मना  मत करो। ' उमा की आँखों से आंसू बह रहे थे। और यह कह कर दरवाज़े से बाहर निकल गईं।

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माँ  और पापा देर तक अंगूठी के बारे में बात करते रहे। निश्चय हुआ कि अंगूठी उमा को वापस करनी है। सारी  रात तेज बारिश होती रही। सुबह जैसे ही बारिश रुकी तो माँ अंगूठी लौटाने उमा के  घर चली गईं पर घर बंद मिला। उनके पडोसी से पता चला -रात में ओमप्रकाश की  तबीयत खराब हो गई थी इसलिए गली वालों ने उसे अस्पताल में दाखिल करा दिया था। उमा भी वहीँ है। पता पूछ कर माँ और  पापा अस्पताल चले गए।

अस्पताल के बाहर उमा मिल गई।उसने माँ से पूछा –तो आप अंगूठी वापस करने यहां भी आ गईं।

 

अंगूठी माँ के पर्स में थी, पर उन्होने कहा-'उमा,यहां मैं बीमार का हाल जानने आई हूँ, ओमप्रकाश कैसे हैं?' माँ और पापा ओमप्रकाश के पास गए तो पापा के परिचित डाक्टर मिल गए। पापा ने उनसे ओमप्रकाश का ध्यान रखने को कहा। घर लौट कर पापा और मम्मी फिर अंगूठी के बारे में चर्चा करने लगे। माँ ने कहा -मैं गोपेश की अंगूठी विमल के लिए लेना नहीं चाहती लेकिन….' पापा ने कहा-अगर अंगूठी वापस करोगी तो उमा को बहुत दुःख होगा।'

 

ओमप्रकाश अस्पताल से लौट आया,पर वह काफी कमजोर था। कुछ दिन बाद  दोनों गाँव चले गए।। जाते समय उमा हमारे घर आई तो माँ ने कहा-'उमा,कहीं तुम अंगूठी वापस लेने तो नहीं आई हो, मैं लौटाने वाली नहीं। जैसे तुम्हें विमल के चेहरे में गोपेश नज़र आता है,मैं भी विमल में गोपेश को देखती हूँ।  इस पर उमा रोने लगी और फिर मुस्करा दी।माँ भी हॅंस दी।

इस बात को वर्षों बीत गए हैं। मेरा बचपन कहीं बहुत पीछे  छूट गया है,लेकिन गोपेश की अंगूठी को मैंने धरोहर की तरह जतन  से संभाल कर रखा है। जब जब अंगूठी को देखता हूँ तो मन बैचैन हो जाता है।आशा करता हूँ गोपेश जरूर घर लौट आया होगा| (समाप्त ) 

 

 

 

  

 

 

    

      

                             

 

Saturday 20 April 2024

कौन जाने-देवेंद्र कुमार

 

  कौन  जाने-देवेंद्र कुमार

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हरिराम अकेला था। घर, परिवार। छोटा-मोटा काम करता और इस तरह दो जून की रोटी मिल जाती। बस, ऐसे ही जीवन चल रहा था। घूमता-फिरता वह तपाई गाँव के पास से गुजर रहा था तो बारिश होने लगी। तब शाम हो रही थी। गाँव में किसी ने हरिराम को नहीं टिकाया। वह बारिश में भीगता खड़ा था, तभी किसी ने कहा, ‘गाँव के बाहर एक खंडहर है। वहाँ चले जाओ। भीगने से बच जाओगे।

हरिराम खंडहर में चला आया। खंडहर के आसपास झाड़-झंखाड़ थे। थोड़ी दूर से रास्ता गुजरता था। उस पर कई लोग आते-जाते दिखे पर किसी ने हरिराम में रुचि नहीं ली। उसके होठों से निकला, ‘ऐसे कब तक चलेगा?’ तभी चहचहाहट सुनाई दी। देखा एक कोने में नन्ही-सी चिड़िया बैठी थी। उसके पंख भीगे थे।

हरिराम के होंठों पर बरबस मुसकान गई। जैसे चिड़िया से बोला, ‘चलो, एक से दो हुए। उसने चिड़िया को उठाकर पंख पोंछे फिर कुछ दाने निकालकर डाल दिए। चिड़िया दाना चुगने लगी। तभी बाहर से आवाज आई, “अरे, कौन है‌?”

हरिराम ने देखा एक आदमी छाता लगाए खड़ा था। बोला, “मैं इधर से कई बार गुजरा हूँ। यहाँ हमेशा सन्नाटा पाया। आज आवाज सुनी तो हैरानी हुई।‘’

अजनबी की बात सुन, हरिराम बोला, “अकेला था, यह चिड़िया दिखाई दी तो इसी से बात करने लगा।

अजनबी ने चिड़िया को देखा। वह दाना चुगती हुई फुदक रही थी। दोनों हँस पड़े।कुछ देर में बारिश थम गई। धूप निकल आई। अजनबी ने बताया, उसका नाम जयंत था। किसी काम से गाँव में जा रहा था। आवाज सुनी तो रुक गया। बैठ कर जयंत ने अपनी पोटली खोल ली उसमें भोजन था। हरिराम से बोला, “आओ खा लो।

हरिराम कह गया कि कई दिन से खाना नहीं खाया है। फिर अपने बारे में सब बता गया। जयंत ने कहा, “जीवन ऐसे ही चलता है, आओ, थोड़ा-सा खा लो।

हरिराम ने खाया लेकिन संकोच के साथ। दोनों बातें करने लगे। तभी चिड़िया की चूँ-चूँ सुनाई दी फिर पंखों की फड़फड़ाहट उभरी। चिड़िया खंडहर में इधर से उधर चक्कर काट रही थी। तभी हरिराम की नजर दीवार पर टिक गई। एक सूराख में से साँप बाहर निकलता रहा था। उस तरफ जयंत की पीठ थी। उसे कुछ पता नहीं था कि एक भयानक साँप उसके इतना निकट पहुँचा है। जयंत के प्राण संकट में थे। अब अधिक सोचने का समय नहीं था। हरिराम जयंत को एकदम चौंकाना भी नहीं चाहता था, जो इस सबसे बेखबर पहले की तरह आराम से बैठा हरिराम से बातें कर रहा था।

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हरिराम बिजली की फुरती से उछला। उसने एक साथ दो काम किए, बाँए हाथ से जयंत को जोर से धक्का मारा और उसी क्षण दाएँ हाथ से साँप को कसकर पकड़ लिया। जयंत एकदम लगे धक्के से लुढ़कता हुआ दीवार से जा टकराया और बेहोश हो गया। तब तक हरिराम ने साँप को पत्थर से कुचल डाला और बाहर जाकर झाड़ियों में फेंक आया।

हरिराम स्वयं भी घबरा गया था। सब कुछ एक-दो पल में ही घट गया था। अब उसने खंडहर के फर्श पर बेहोश पड़े जयंत की ओर देखा। हरिराम के मन में विचारों का तूफान उमड़ रहा था। वह सोच रहा था, ‘अगर मैं इस आदमी की पोटली उठाकर चला जाऊँ तो कोई नहीं जानेगा कि यहाँ क्या हुआ है! इसकी पोटली में सामान है, कुछ रुपए भी जेब में जरूर होंगे। जब तक इसे होश आएगा, मैं दूर पहुँच जाऊँगा, फिर यह जहाँ चाहेगा चला जाएगा।

जयंत की जेबें टटोलने के लिए हरिराम के हाथ बढ़ने को हुए, पर फिर रुक गया। कानों में चिड़िया के चहचहाने की आवाज आई। उसने देखा चिड़िया फर्श पर बेहोश पड़े जयंत के पास बिखरे दाने चुगती हुई फुदक रही थी। यह हरिराम का वहम था या सच, उसे लगा जैसे चिड़िया उसे देख रही थी। हरिराम ने दृष्टि  फिरा ली।

वह कुछ और कर पाता तभी पीछे आहट हुई। उसने देखा जयंत को होश गया है और वह फर्श पर हथेलियाँ टेककर उठने की कोशिश कर रहा है। हरिराम जैसे दौड़कर जयंत के पास जा पहुँचा। उसे उठने में सहारा देने लगा तो जयंत ने हाथ झटक दिया। बोला, “तुमने मुझे धक्का क्यों दिया था? आखिर क्या चाहते हो तुम‌?”

हरिराम अब चुप रहा सका, उसने सारी घटना कह सुनाई। संकेत से झाड़ियों में पड़ा साँप भी दिखा दिया। कुछ पल के लिए जयंत को जैसे हरिराम की बातों पर विश्वास नहीं हुआ, पर हरिराम की आवाज में सच्चाई झाँक रही थी। जयंत ने कहा, “तब तो तुमने मेरे प्राण बचा लिए, नहीं तो किसी को कुछ पता चल पाता और यहाँ मेरा शव पड़ा होता।

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हरिराम ने चिड़िया की ओर संकेत किया। बोला, “मैंने नहीं इसने बचाया तुम्हें। इसी ने अपनी चूँ-चूँ से मेरा ध्यान खींचा और तब मेरी नजर साँप पर गई। कौन जाने अगर यहाँ यह होती तो क्या दुर्घटना घट जाती | '

कुछ देर दोनों ही चिड़िया को देखते रहे। फिर हँस पड़े। जयंत बोला, “अब चलना चाहिए। थोड़ी देर में सूरज डूब जाएगा। वैसे बारिश भी थम गई है।

हरिराम खामोश खड़ा रहा, भला उसके पास था ही क्या कहने के लिए। तभी जयंत ने कहा, “आओ, तुम भी चलो।

कहाँ चलूँ?” हरिराम ने पूछा।मैं भला कहाँ जा सकता हूँ। मैं यहीं रहूँगा।

यहाँ! इस खतरनाक खंडहर में! यहाँ तो कभी भी कुछ भी हो सकता है। साँप, जंगली जानवर...”

हाँ, लेकिन उपाय भी क्या है। रात को आग जलाकर सो रहूँगा। सुबह देखूँगा कि कहाँ जाऊँ।हरिराम ने उदास स्वर में कहा। वह सोच रहा था, “अगर जयंत को पता चल जाए कि कुछ देर पहले मैं क्या सोच रहा था तो...”

जयंत कुछ पल असमंजस की मुद्रा में खड़ा रहा फिर बिना कुछ कहे खंडहर से बाहर निकल गया। हरिराम उसे जाते हुए देखता रहा। उसे लगा जैसे जयंत झाड़ियों में पड़े साँप के पास एक पल को ठिठका हो, फिर आगे बढ़ गया।

खंडहर में धुँधलका-सा छा गया था। तभी चिड़िया की चूँ-चूँ सुनाई दी। हरिराम उसे देखता रहा, ‘बड़ी विचित्र चिड़िया है!’ वह सोच रहा था, ‘सचमुच यहाँ रात बिताना ठीक नहीं, लेकिन भला जाऊँगा कहाँ‌?’ तभी बाहर कदमों की आहट उभरी। देखा जयंत खड़ा है।तुम फिर लौट आए‌?” हरिराम ने अचरज से कहा।

हाँ, मैं जा सका।जयंत बोला, “सच कहूँ तो मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं हुआ था। मुझे लग रहा था जैसे तुमने साँप की कहानी यूँ ही सुना दी है। असल में तो तुम मुझे बेहोश करके लूट लेना चाहते थे।

क्या तुमने ऐसा सोचा!”

हाँ, लेकिन बस थोड़ी ही देर। फिर जैसे  कोई मुझे आगे जाने से रोकने लगा। कोई मेरे कानों में कहने लगा, “अगर ऐसा करना होता तो तुम मुझे साँप से ही क्यों बचाते। वह मुझे डस लेता और तब तुम मजे से मेरा सामान और रुपए-पैसे लेकर जा सकते थे।फिर मैं जा सका। मुझे यह सोचकर ही डर लग रहा है कि तुम रात के अँधेरे में यहाँ अकेले रहोगे।कहकर जयंत ने हरिराम का हाथ पकड़ लिया। बोला, “माफ करना, मैं कितना उल्टा-सीधा सोच गया। तुमने साँप से मेरे प्राण बचाए और मैं...” कहते-कहते उसकी आवाज काँपने लगी।

हरिराम चुप रह सका। बोला, “तुमने कुछ गलत नहीं सोचा।और फिर वह बता गया कि उसके मन में कैसे विचार आए थे।जब मैँ तुम्हारा सामान उठाकर भाग जाने की बात सोच रहा तो लगा था जैसे चिड़िया मुझे देख रही है। और फिर मैं रुक गया।

कुछ देर मौन छाया रहा। सन्नाटे में चिड़िया के पंखों की फड़फड़ाहट और उसकी चूँ-चूँ गूँजती रही। जयंत ने कहा, “तुमने सुना, चिड़िया क्या कह रही है--जो  हुआ उसे भूल जाओ। ­ चलें। मैं किसी भी कीमत पर तुम्हें यहाँ छोड़कर नहीं जाऊँगा।

हरिराम की नजर आप से आप चिड़िया पर जा टिकी। वह चहचहाई तो जयंत हँस पड़ा। बोला, “सुना, चिड़िया क्या कह रही है-यही कि बात मान लो और चले जाओ।

तो क्या तुम भी मानते हो कि चिड़िया सचमुच हमसे बातें कर रही है।हरिराम ने हौले से कहा।

कौन जाने! ऐसा हो भी सकता है।जयंत बोला और हरिराम का हाथ पकड़कर खंडहर से बाहर खींचने लगा।

सूरज पश्चिम में डूब चुका था और वे दोनों चले जा रहे थे। मरा हुआ साँप झाड़ियों में पड़ा था। आकाश में परिंदों का शोर गूँज रहा था।

शायद चिड़िया भी हमारे साथ-साथ चल रही है आकाश में।जयंत ने आकाश में उड़ते परिंदों को देखा।

कौन जाने।हरिराम ने कहा।(समाप्त )