Sunday 9 April 2017

बप्पा बाहर गए हैं

बच्चे को सिर्फ इतना पता है कि उसके बप्पा बाहर गए हैं. वह कहाँ ,क्यों गए हैं और कब तक वापस आयेंगे इस बारे में माँ ने कुछ नहीं बताया है. वह उस जगह को देखने आया है जहाँ उसके बप्पा बैठा करते थे. वह खुद भी वहीँ बैठना चाहता है. लेकिन इसकी एक शर्त है.
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          मेट्रो का भूमिगत स्टेशन बन जाने के बाद हौज़ काजी चौक का रूप काफी संवर गया है| वहां बहुत कुछ बदल गया है.  हौज़ काजी की चौमुहानी पर अजमेरी गेट, बाज़ार सीताराम, चावडी बाज़ार और लाल कुआं की सड़कें मिलती हैं. वहीँ लोहे की बदरंग रेलिंग से घिरा जमीन  का एक ऊबड़ खाबड़ टुकड़ा हुआ करता था जिसे पार्क कहा जाता था. जिसमें संगमरमर का सिर-- टूटा फव्वारा था और थीं कूड़े की ढेरियाँ जो दिनों दिन बड़ी होती जा रही थीं, क्योंकि लोगों ने उसे कूड़ाघर समझ लिया था. उन्हीं के बीच कुत्ते जूठन पर झगड़ते थे और सर्दियों की गुनगुनी धूप में कुछ लोग अधलेटे पड़े रहते थे.
      लेकिन अब उसका कायाकल्प हो गया है. वहां रंगीन शीशों का एक गुम्बद बन गया है,जिसमें से रंगीन प्रकाश फूटता है रात के समय. जो दिल्लीवाले पहले वहां कभी नहीं आते थे,अब मेट्रो के सहारे आकर चौक की चाट का मज़ा लेते हैं. लेकिन इस बदलाव के बीच एक चीज है जो एकदम नहीं
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बदली है. और शायद बदलेगी भी नहीं. अगर उस अपरिवर्तन को देखना हो तो वहां एकदम सुबह सुबह आना होगा. बंद दुकानों और सूनी पटरी से लग कर २०-२५ लोग कतार मैं बैठे दिखाई देंगे, कुछ इस तरह जैसे पंगत में बैठे हुए दावत की बाट जोह रहे हों. वे बाट देखते हैं लेकिन दावत की नहीं,रोजनदारी के काम की. वे सब दिहाड़ी मजदूर हैं जो काम की तलाश में सुबह मुंह अँधेरे वहाँ आकर बैठ जाते हैं. किसी को काम मिल जाता है तो कोई शाम तक निराश आशा में बैठा रहता है. हरेक के आगे उसकी पहचान रखी रहती है. जैसे बिजली मजूर के आगे तारो का बण्डल तो बढ़ई के सामने आरी और हथोडा ; रंग-- रोगन करनेवाले अपने सामने ब्रश और कूंची रखते हैं तो मजदूर के सामने फावड़ा और कुदाल देखे जा सकते हैं.
    कौन कहाँ बैठेगा यह तय नहीं है लेकिन फिर भी लोगों को पता रहता है कि कौन कहाँ बैठता  आ रहा है. इसलिए हर रोज लोग आकर अपनी अपनी जगह संभाल लेते हैं. इस पर कोई झगडा नहीं होता. बीच में कुछ लोग आना बंद कर देते हैं तो कई नए चेहरे उभर आते हैं. कोई किसी का नहीं है, पर रोज साथ बैठने से सम्बन्ध बन ही जाते हैं. कोई एकाएक आना बंद कर दे तो कुछ दिन चर्चा होती है फिर लोग भूल जाते हैं. लेकिन कभी-कभी कुछ याद भी आ जाता है
    उस दिन ऐसा ही हुआ था. सर्दियों के दिन , ठंडी हवा बह रही थी. धूप अभी नीचे नहीं उतरी थी. लेकिन मौसम की परवाह न करते हुए काम की तलाश करने वालों की पंगत लग चुकी थी. तभी एक औरत वहां आ खड़ी हुई.उसने एक बच्चे का हाथ पकड़ रखा था. आखिर कौन थी वह! पहचानने में थोड़ी देर लगी, फिर किसी ने कहा-‘ अरे, यह तो श्याम की पत्नी है.’ फिर तो श्याम की पत्नी को कई लोगों ने पहचान लिया. एकाएक भूला हुआ श्याम सबको याद आ गया. श्याम भी इसी जगह बैठ कर काम मिलने की प्रतीक्षा करता था ओरों की तरह. बीच में कुछ समय तक नहीं आया और एक सुबह पहले की तरह लौट आया. पूछने पर उसने बताया कि तबीयत ठीक नहीं रहती. फिर हर कोई अपने काम में लग गया. यानी मजदूरी के बुलावे का इन्तजार.
     फिर तो श्याम अक्सर चौक की मजदूर मंडी से गायब रहने लगा. कभी आता तो फिर कई कई दिन तक न आता. यह कोई खास बात नहीं थी. ओरों के साथ भी ऐसा कई बार हुआ था. और फिर श्याम ने आना बंद कर दिया. एक बुरी खबर सुनने को मिली.कई लोग उसके घर भी गए. समय बीता और फिर सब भूल गए, लेकिन उस दिन श्याम की पत्नी को देख कर भूला हुआ श्याम फिर से याद आ गया. पर श्याम की पत्नी  रमा यहाँ क्यों आई है- हर कोई यही सोच रहा था. तब तक रमा बच्चे का हाथ पकड़ पांत में बैठे लोगों के एकदम पास चली आयी. लोगों ने सुना—‘ तेरे बप्पा यहीं बैठते थे.’—रमा बच्चे को बता रही थी. ‘ मैं भी बैठूँगा.’ बच्चे ने कहा.
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     सबको याद था कि श्याम कहाँ बैठा करता था. सब इधर-उधर खिसक कर जगह बनाने लगे. अब पांत में एक खाली जगह नजर आने लगी. शिबू ने बच्चे की ओर देख कर कहा—‘बेटा.यहीं बैठा करते थे तुम्हारे बप्पा,’ और बच्चे का हाथ पकड़ कर खाली जगह पर बैठा दिया. बच्चा मुस्कराया—‘मैं यहीं बैठूँगा.’ रमा चुप खड़ी देख रही थी. बेटे को हँसते देखा तो खुद भी मुस्करा दी. लेकिन आँखों में  आंसू झलमला रहे थे.
      ‘’बेटा, नाम बताओ.’—एक ने पूछा,
       ‘श्याम सुंदर.’’
        ‘ बेटा अपना नाम बताओ.’—रमा ने कहा.और एक झोला बेटे के पास रख दिया. वह झोला श्याम का था.  
         ‘विजय बहादुर.’’ बच्चा हंसा तो पांत में बैठे सभी खिलखिला उठे.
     एक जना उठ कर गया और चाय वाले के ठेले के पास रखा स्टूल लाकर श्याम के बेटे को उस पर बैठा दिया. विजय ने कहा—‘ बप्पा बाहर गए हैं . मैं यहाँ बैठूँगा. ‘ हाँ, हाँ जरूर बैठना. ‘’ एक आवाज उभरी. पांत में बैठे लोगों ने विजय को घेर लिया. अभी तक किसी को कोई काम नहीं मिला  था,लेकिन कोई उदास नहीं था.
     तभी उसमें बाधा पड़ी. किसी ने कहा—‘अरे, यह मजमा क्यों लगा रखा है.’ यह रघुवीर था. उन्ही में से एक लेकिन झगडालू. उसे देखते ही लोग परे हट गए. उसने विजय को स्टूल पर बैठे देखा तो चिल्लाया—‘ यह कौन है? मेरी जगह क्यों बैठा है.’’ और झटक कर विजय को हटा कर खुद बैठते हुए स्टूल को दूर खिसका दिया.
     उसकी इस बात से सभी को गुस्सा आ गया. इस तरह हटाये जाने से विजय रो पड़ा. रमा ने कहा—‘बेटा रो मत,आ घर चलें.’  उसका हाथ थाम मुड़ी तो रमन ने रोक लिया—‘ रुको, मत जाओ.विजय अपने बप्पा की जगह बैठा है. इसे कोई नहीं हटा सकता.’ दो जनों ने रघुवीर को जबरदस्ती उस जगह से हटा दिया. फिर विजय को वहां बैठाते हुए बोले –‘कोई नहीं हटा सकता इसे.’
   तब तक फजलू पेंटर ब्रश पेंट में डुबा कर लिखने लगा—‘विजय की जगह’ और शब्दों को एक गोले से घेर दिया.
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       ‘’यह हुई कुछ बात.’—ललन बोला. सबने उसकी हाँ में हाँ मिलाई. नाराज रघुवीर चुप खड़ा गुस्से से देख रहा था. रमा ने बेटे से कहा—‘जरा पढ़ कर तो बताओ.’’ विजय शब्दों को देखता खड़ा था. वह अभी पढना नहीं जानता था. रमा ने कहा—अपना नाम तभी पढ़ सकोगे जब स्कूल जाओगे.’
     ‘ मैं स्कूल जाऊँगा, किताब पढूंगा.’’—विजय बोला. इतने में रमन जाकर कापी पेंसिल और किताब ले आया. विजय को देते हुए बोला—‘ बेटा, स्कूल जाना,मन लगा कर पढना.’’
   ‘बप्पा की जगह बैठूँगा.’ विजय ने कहा. रमा बोली—‘ यह स्कूल जाने को तैयार नहीं होता. आज जिद करके यहाँ आया है.’’ तभी ललन ने जेब से एक कागज निकाल लिया. पेन से उस पर कुछ लिखा और बोला—‘ विजय, मेरे पास तुम्हारे बप्पा की चिट्ठी आई है. उन्होंने लिखा है....
     रमा और विजय ललन की ओर देखने लगे. फजलू  ने कहा—‘पढो विजय के बप्पा की चिट्ठी.’ललन ने पढने का नाटक किया—‘विजय से कहना.मैं जल्दी ही उसके पास आऊंगा.लेकिन एक शर्त है—उसे स्कूल जाकर ख़ूब पढना होगा. और हाँ वह अपनी माँ को परेशान न करे. ‘ ललन ने वह कागज विजय को थमा दिया. कहा –‘ बेटा, तुमने सुना तुम्हारे बप्पा ने क्या लिखा है.’
    ‘’  बप्पा ने लिखा है....’ विजय ने कहा. पास खड़ी रमा की आँखों से आंसूं बह चले. उसने माँ का हाथ थाम लिया –‘’ माँ, मैं स्कूल जाऊँगा,तुम्हें परेशान नहीं करूंगा.’’
      रमा ने नमस्कार किया और विजय का हाथ थाम कर वापस चल दी. वे लोग दोनों को जाते हुए देख रहे थे. अपने बप्पा की चिट्ठी विजय के हाथ में थी. वह स्कूल जाएगा, मन लगा कर पढ़ेगा. तभी बारिश होने लगी फिर धूप भी निकल आई. गीली सड़क पर घेरे में लिखा नाम चमक रहा था—

                                                                   ( समाप्त )