Saturday 15 January 2022

गेंद का बचपन-कहानी-देवेंद्र कुमार

  

                 गेंद का बचपन-कहानी-देवेंद्र कुमार 

                           ===

  जया की रमा दादी पूजा कर रही थीं। रविवार का दिन था, घर के सब लोग बाहर गए थे, नीचे बच्चे शोर मचा रहे थे, इसलिए दादी का ध्यान बार बार भटक जाता था। तभी झन्न की आवाज के साथ पूजा की थाली उलट गई। जलता दीपक बुझ गया, पूजा की सामग्री बिखर गई। बच्चों द्वारा उछाली गई फुटबाल खिड़की से होती हुई पूजा की थाली में आ गिरी थी। रमा गुस्से से भर उठीं और जोर से चिल्लाईं –‘ शैतान बच्चे ठीक से पूजा भी नहीं करने देते। उन्होंने फुटबाल उठा कर खिड़की से बाहर फेंक दी। थाली में पूजा की सामग्री फिर से सजाई, बुझा हुआ दीपक दोबारा जलाया और पूजा में ध्यान लगाने का प्रयास करने लगीं। लेकिन पूजा में मन नहीं लगा। मन उड़ कर न जाने कहाँ जा पहुंचा। 

 

  आँखों में एक छोटी लड़की की छवि उभर आई। वह गाँव की कच्ची, धूल भरी गलियों में सहेलियों के साथ गेंद से खेल रही है,झूला झूल रही है,हंस रही है, रो रही है, माँ की गोदी में लेटी हंस रही हैऔर फिर रमा ने उस लड़की को पहचान लियायह तो वह खुद थी। फिर उनका अपना बचपन सामने जीवंत हो उठा। उनकी आँखों से आंसू बह चले। उन्होंने अपने हाथों को फुटबाल खिड़की से बाहर फेंकते देखा। होंठो से निकला-वह फुटबाल नहीं, मेरा बचपन मेरे पास आया था, जिसे मैंने अपने ही हाथों से दूर फेंक दिया। अब वह कभी लौट कर नहीं आएगा। पूजा अधूरी रह गई, दादी देर तक अपने बचपन की उबड़ खाबड़ गलियों में भटकती रही।

      

    पर आखिर कब तक अपने बचपन की गलियों में भटकती रह सकती थी रमा दादी। कुछ देर तक आँखें मूंदे बैठी रहने के बाद, वह उठ कर खिड़की में से नीचे झाँकने लगीं। उन्होंने देखा बच्चे चुप खड़े थे, शोर थम गया था। वे रह रह कर दादी की खिड़की की ओर देख रहे थे। रमा ने कहा,  ’बच्चो , वह फुटबाल कहाँ है जिसे मैंने गलती से नीचे फेंक दिया था।

                                                 

 

  ‘गलती सेबच्चों ने अचरज से कहा। रमा दादी की बात किसी की समझ में नहीं आ रही थी।

 

  ‘हाँ,मुझे फुटबाल को नहीं फेंकना चाहिए था। क्या तुम सब उस फुटबाल को खोज कर मेरे पास ला सकते हो। बदले में मैं तुम बच्चों को एक नई फुटबाल इनाम में दूँगी। 

                                        1    

    नई फुटबाल के लालच में बच्चे तुरंत खोज में लग गए।  लेकिन उनकी पुरानी फुटबाल कहीं न मिली। जब बच्चे निराश होकर लौटे तो रमा खिड़की में ही खड़ी थीं। उन्होंने कहा-नहीं मिली न, मुझे पता था कि मैंने जिस फुटबाल को अपने से दूर फेंका था, वह अब मेरे पास कभी वापस नहीं आएगी,पर इसे छोड़ो, तुम्हें नई फुटबाल जरूर मिलेगी। फिर उन्होंने एक बच्चे को ऊपर बुला कर नई फुटबाल के लिए पैसे दे दिए। फुटबाल--प्रेमी बच्चे रमा के विचित्र व्यवहार को कभी समझ नहीं पाए।   रमा के मन के भीतर भला कौन झांक सकता था। 

 

   इस बात को कई दिन बीत गए। अपने बचपन की यादें रमा को आराम से नहीं रहने दे रही थीं,वह ठीक से पूजा में ध्यान नहीं लगा पा रही थीं। उस दिन पूजा के बाद रमा सोसाइटी के पार्क में जा बैठीं।सामने माली रामधन क्यारी में काम कर रहा था। पास में उसका छह -सात का बेटा राजू घास पर फुटबाल लुढका रहा था। फुटबाल कई जगह से कटी हुई थी इसलिए घास पर ठीक से लुढ़क नहीं रही थी।

 

   रमा उठ कर राजू के पास जा खड़ी हुई। उन्होंने कटी हुई फुटबाल को उठाया तो लगा जैसे यह वही फुटबाल है जिसे उन्होंने खिड़की से बाहर फेंक दिया था। रमा ने फुटबाल को दोनों हाथों में कस कर पकड़ लिया। फिर रामधन से कहा-मैं तुम्हारे बेटे के लिए नई फुटबाल मंगवा दूँगी। अगर तुम कहो तो इस फुटबाल को मैं ले जाऊं।

   

  रामधन ने हैरान स्वर में कहा-माँजी, ले जाइये,वैसे भी यह फुटबाल मेरी तो है नहीं।मुझे तो यह एक क्यारी में पड़ी मिली थी।

    

   रमा फुटबाल को सावधानी से हाथों में थामे हुए अपने फ़्लैट में आ गईं, और फुटबाल को पूजा की थाली के पास रख दिया। फिर देर तक उसे देखती रहीं। आँखों के सामने फिर से अपने भूले बिसरे बचपन के अनेक चित्र तैर गए। देर तक अपने बचपन में खोई बैठी रहीं।लगा जैसे सामने फुटबाल नहीं बचपन के दरवाजे की जादुई चाबी रखी थी।

 

  अगली दोपहर रमा पार्क में गईं तो उनके हाथ में रामधन के बेटे राजू के लिए नई फुटबाल थी। उन्होंने इधर उधर देखा पर रामधन नहीं दिखाई दिया, राजू भी नहीं था। कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद उन्होंने सोसाइटी के गार्ड से पूछा। पता चला कि रामधन के गाँव में किसी रिश्तेदार की शादी है, परिवार के साथ वहीँ गया है। दो दिन में वापस आ जायेगा। एक हफ्ता बीत गया, पर रामधन नहीं लौटा। गार्ड ने बताया कि गाँव में राजू बीमार हो गया है, इसीलिए रामधन अभी कुछ दिन के लिए गाँव में ही रुक गया है। 

                                       2

  रमा को चिन्ता ने घेर लिया। उन्हें लगा कि गाँव जाकर राजू का हाल चाल लेना चाहिए। वह समझती थीं कि राजू के कारण ही उन्हें बचपन की गलियों में ले जाने वाली फुटबाल फिर से मिल सकी थी। उन दोनों के बीच जैसे एक अनोखा सम्बन्ध बन गया था।

 

  रमा ने बेटे नरेश से पटल गाँव चलने को कहा तो वह चौंक उठा। बोला—‘ पटल गाँव में तो हमारा कोई सम्बन्धी रहता नहीं है, फिर वहां क्यों जाना है!

 

   ‘मेरा कोई तो है वहां, बस सवाल मत पूछ, ले चल मुझे। रमा ने कहा। पटल गाँव ज्यादा दूर नहीं था। नरेश की कार गाँव में पहुंची तो लोग जमा हो गए। रामधन रमा दादी को देख कर चौंक पड़ा, फिर रमा को राजू के पास ले गया। राजू बिस्तर पर लेटा था। रमा ने राजू का सिर सहलाया और एक नई चमचमाती फुटबाल उसके हाथो में थमा दी। नई फुटबाल पाकर राजू बहुत खुश हो गया। रमा ने रामधन से कहा-तुम्हारे बेटे को अच्छे इलाज की जरूरत है। तुम मेरे साथ वापस चलो। मैं एक अच्छे डाक्टर को जानती हूँ। उनकी दवाई से राजू और भी जल्दी स्वस्थ हो जाएगा।

 

  अपने शहर पहुँच कर रमा ने कार डाक्टर अनु के क्लिनिक के बाहर रुकवा ली। वह डॉ.अनु को अच्छी तरह जानती थीं। क्लिनिक के वेटिंग हाल में रामधन और राजू को बैठा कर रमा कक्ष में जाकर डॉ. अनु से मिलीं,उन्हें राजू के बारे बताया। फिर कहा-राजू का पिता इलाज का खर्च नहीं उठा सकेगा। दवा के पैसे मैं दूँगी,लेकिन यह बात उसे पता नहीं चलनी चाहिए। उसके स्वाभिमान पर चोट लग सकती है’ डॉ, अनु की मेज पर रुपये रख कर रमा बाहर आ गईं। 

 

   डॉ. अनु के इलाज से राजू जल्दी स्वस्थ हो गया। और फिर एक दिन उन्होंने राजू को नई फुटबाल के साथ खेलते देखा। रामधन ने कहा-माँजीडॉ. साहिबा बहुत अच्छी हैं। रमा मुस्करा कर अपने फ़्लैट में चली आईं। पूजा की थाली के पास रखी पुरानी फुटबाल को देख कर मन फिर से पीछे की यात्रा पर निकल पड़ा। सचमुच वह फुटबाल अतीत के दरवाजे की जादुई चाबी थी। घर में सब को पता था कि पुरानी फुटबाल को  उसकी जगह से हिलाना नहीं है। इस बारे में रमा किसी प्रश्न का उत्तर देने वाली नहीं थीं।  (समाप्त) 

Thursday 13 January 2022

बूढ़ी छड़ी-कहानी-देवेंद्र कुमार

 

बूढ़ी छड़ी-कहानी-देवेंद्र कुमार

                       ====

अजीब है बाबा की छड़ी। घर में किसी ने कभी बाबा को छड़ी लेकर चलते हुए नहीं देखा। घर के बच्चे कई बार मजाक में पूछते हैं, ‘‘बाबा, क्या आप सिर्फ दिखाने के लिए छड़ी रखते हैं?’बाबा हंसकर कह देते, ‘‘अरे, छड़ी लेकर चलते हैं बूढ़े लोग, पर मैं तो बूढ़ा नहीं हूं।’’  लेकिन बार-बार पूछने पर भी यह कभी न बताते कि जब छड़ी लेकर चलते नहीं तो रखते किसलिए हैं? बच्चे तो बच्चे, घर के बड़े लोग भी नहीं जानते कि आखिर छड़ी का रहस्य क्या है? और छड़ी भी कैसी-एकदम पुरानी, बदरंग! उस पर जगह-जगह लकीरें और दरारें साफ दिखाई देती हैं।

 

घर के लोगों ने देखा है-छड़ी बाबा के कमरे में एक कोने में रखी रहती है। बाकी हर चीज की जगह कई-कई बार बदल जाती है, लेकिन छड़ी का ठिकाना वहीं रहता है। लगता है बाबा के लिए उनकी छड़ी कुछ विशेष है।बाबा का नाम रंजन राय है और उनका इकलौता बेटा है सुरेश। सुरेश की पत्नी दया खूब पढ़ी-लिखी है, पर वह नौकरी नहीं करती। दिन में कई बच्चे घर पर ही पढ़ने आ जाते हैं। उन्हें बहुत ध्यान से पढ़ाती है। पूरी बस्ती में लोग उसे मैडम पास कराने वालीकहकर सम्मान से बात करते हैं|

 

 एक दिन दया को गुस्सा आ गया। एक बच्चा अपने काम में लापरवाही कर रहा था। फिर एक दिन उसने दूसरे बच्चों के सामने दया का अपमान कर दिया। दया ने कुछ सोचा फिर अपने ससुर के कमरे में गई और कोने में रखी छड़ी उठा लाई। उस समय बाबा घर में नहीं थे। छड़ी दिखाते हुए बच्चे को धमकाया, फिर एक बार मार भी दिया।उसी समय बाबा घर में लौट आए। उन्होंने दया के हाथ में छड़ी देखी, पर कुछ कहा नहीं। चुपचाप कमरे में जाकर दरवाजा बंद कर लिया। दया ने तुरंत छड़ी को उनके कमरे के दरवाजे से टिकाकर रख दिया और बच्चों को पढ़ाने लगी।

दिन ढल गया, पर बाबा के कमरे का दरवाजा बंद ही रहा। दया चाय बनाकर ले गई। दरवाजा खटखटाया तो बाबा ने दरवाजा खोल दिया। दया उनका गंभीर मुंह देखकर जान गई कि मामला गड़बड़ है। चाय का प्याला तिपाई पर रखकर वह दरवाजे के बाहर रखी छड़ी उठा लाई और उसे कोने में रखने लगी,पर रख न सकी|                                                           1

 

तभी बाबा ने कहा, ‘‘दया, अब मैं इस छड़ी को अपने पास नहीं रखूंगा, अब मुझे इसकी जरूरत नहीं।’’ दया ने देखा बाबा की आंखों में आंसू थे, उनके होंठ कांप रहे थे। इस तरह अपने बूढ़े ससुर को छोटे बच्चों की तरह रोते हुए उसने शायद पहली बार देखा था। उसने कहा, ‘‘पिताजी, मुझसे गलती हो गई। मुझे आपसे पूछकर छड़ी यहां से उठानी चाहिए थी।’’

 

‘‘लेकिन यह छड़ी….’’ और बात को बीच में ही अधूरी छोड़कर रंजन राय फिर उदास हो गए।दया अचरज के भाव से अपने ससुर को देखती रह गई। आखिर उसने पूछ ही लिया, ‘‘पिताजी, पूरी बात बताइए, आप छड़ी के बारे में कुछ कह रहे थे।’’

 

 ‘‘यह छड़ी मेरे अध्यापक की है। बात मेरे बचपन के दिनों की है। वह अध्यापक मुझसे बहुत प्यार करते थे। मैं कक्षा में सबसे आगे भी रहता था । इस कारण क्लास के दूसरे साथी मुझसे नाराज रहते थे। एक बार उनमें से किसी ने मेरी झूठी शिकायत उनसे कर दी। सुनकर मास्टर साहब को बहुत गुस्सा आया। उन्हें लगा यह तो मेरी बहुत बड़ी गलती थी। बस, उन्होंने अपनी छड़ी से मुझे पीटना शुरू कर दिया।

 

‘‘फिर?’’

‘‘वह मारते हुए कहते जा रहे थे-तूने मेरा अपमान किया है। मेरी इज्जत मिट्टी में मिला दी है। मैं कहता रहा-जी, किसी ने मेरी झूठी शिकायत की है। आप पता कर लें।-आखिर उन्होंने छड़ी फेंक दी और खुद रो पड़े। क्योंकि वह मुझसे बहुत स्नेह करते थे।बाद में तो उन्हें पता चल गया कि शिकायत झूठी थी। इसके कुछ दिन बाद ही एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी। तब मुझे बहुत रोना आया।’’उन्होंने आगे कहा, ‘‘इसके कुछ दिन बाद की बात है। मैं मास्टरजी के घर के सामने से जा रहा था। एकाएक मैंने घर के बाहर पड़ी छड़ी देखी। मैंने छड़ी को एकदम पहचान लिया । वह वही छड़ी थी जिससे पहली बार उन्होंने मेरी पिटाई की थी और फिर खूब रोए थे। शायद बेकार समझकर किसी ने उसे बाहर फेंक दिया था। मैंने चुपचाप छड़ी उठाई और घर ले आया। बस, तब से इसे सदा अपने साथ रखता हूं। इस बात को न जाने कितना समय बीत गया है। यह मुझे अपने प्रति मास्टरजी के स्नेह की याद दिलाती रहती है।’’ और रंजन बाबू की आंखों में फिर आंसू आ गए।

                                                   2

 

दया की आंखें भी गीली हो गईं। उसने छड़ी उठाकर कोने में पुरानी जगह रख दी और कहा, ‘‘पिताजी, अब चाहे मुझे कितना भी गुस्सा क्यों न आए, मैं किसी बच्चे को हाथ नहीं लगाऊंगी।’’ दया जान गई थी कि रंजन बाबू के लिए वह छड़ी उनके अध्यापक के स्नेह, पिटाई और पश्चात्ताप का प्रतीक थी।

उस छड़ी के बारे में किसी को कुछ पता नहीं चला। दया छड़ी का रहस्य जान गई थी। पर रंजन बाबू ने उससे कह दिया था कि वह इस घटना के बारे में किसी से कुछ न कहे। उसके बाद अनेक बार घर के बच्चों ने छड़ी के बारे में जानना चाहा, पर रंजन बाबू हमेशा की तरह चुप ही रहे। वह जानते थे कि उनके मास्टरजी की छड़ी का रहस्य दया के पास सुरक्षित था।                     ( समाप्त)

 

Sunday 9 January 2022

कहानी-देवेंद्र कुमार=आंसू का स्वाद

 

कहानी-देवेंद्र कुमार=आंसू का स्वाद

                               =====

 

बाजार में बहुत भीड़ थी इसलिए जीवन ठेले को तेजी से नहीं धकेल पा रहा था। लेकिन उसके मालिक पेमू को इसमें उसकी शरारत नजर रही थी। इसलिए तेज तेज चलते हुए वह जीवन को काहिल, कामचोर और जाने क्या क्या कहता हुआ जल्दी कदम बढाने को कह रहा था। पेमू सड़क के मोड़ पर आलू की टिक्की का स्टाल लगाता है। ठेले पर उबले हुए आलू, खट्टी-मीठी चटनी, तेल का डिब्बा, और दूस्र्रे जरूरी सामान लदे हुए थे। पेमू की आलूटिक्की मशहूर है। धंधा अच्छा चलता है। ग्राहकों से बहुत मीठा बोलता है, लेकिन जीवन तक पहुँचतेपहुँचते मिठास में कड़वाहट घुल जाती है।

 

पेमू की गालियाँ सुनना जीवन की आदत बन चुकी थी। वह ठेला धकेलता हुआ यही सोच रहा था कि पेमू से बकाया पैसे कैसे लिए जा सकते हैं? तभी जीवन को लगा किसी ने पीछे से उसका कुरता खींचा हो, उसने गर्दन घुमा कर देखा तो एक लड़की नज़र आई जो हथेली फैला कर कुछ माँग रही थी। साथ ही दूसरे हाथ को मुँह की तरफ ले जाकर अपने भूखे होने की बात कह रही थी। उलझे केश, मलिन मुख और फटे कपड़ों वाली सात-आठ साल की लड़की को खाने के लिए भला क्या दे सकता था जीवन?

 

डबल रोटी के पैकेट ठेले पर आगे की तरफ रखे थे, उसके हाथ के पास आलू की पिट्ठी का बड़ा भिगोना कपडे से ढका हुआ रखा था। उसमें कुछ तैयार टिकिया भी थीं। जीवन ने एक नज़र पेमू पर डाली फिर ठेले को रोके बिना दो तीन टिकिया उस लड़की की हथेली पर  रख कर ठेले को तेजी से आगे बढ़ा दिया। तभी जाने कैसे ठेला उलट गया। जोर की आवाज हुई, भारी तवा दूर जा गिरा। सारा सामान सड़क पर फ़ैल गया।

जीवन ने देखा कई बच्चे भिगोने से आलू की पिट्ठी ले जा रहे हैं, उन्हीं में वह लड़की भी थी जिसे उसने पेमू की नज़र बचाकर आलू की टिकिया खाने के लिए दी थीं। तेजी से बढ़कर लड़की का हाथ खींचते हुए चिल्लाया चोर कहीं की। और गाल पर चांटा जड़ दिया। लड़की हाथ छुड़ा कर भाग चली। वह रोते हुए चीख रही थी, “अम्मा, यह मुझे मार रहा है। तभी सामने से एक बुढिया दौड़ कर आई, “क्यों मार रहा है बेचारी मुनिया को?”

यह चोर है। इसकी वजह से मेरा कितना नुक्सान हो गया है।”—बुढिया के पीछे पीछे चलता हुआ जीवन चिल्लाया। उसने देखा बुढिया लड़की को लेकर नाले के किनारे बनी एक झोंपड़ी में घुस गई। गुस्से से उबलता हुआ जीवन भी अंदर चला गया। सचमुच बहुत बड़ी गड़बड़ हो गई थी उस लड़की की भूख मिटाने के चक्कर में। पेमू भला अब क्यों उसे काम पर रखने लगा। और बकाया पैसे भी अब मिलने वाले नहीं थे। इस अबोध ने तेरा क्या नुकसान कर दिया जरा मैं भी तो सुनूँ। बुढ़िया ने पूछा |

                         1               

 

इसी की वजह से मेरा रोजगार चला गया।”—कहते हुए जीवन ने झोंपड़ी में नजर घुमाईसब तरफ् कूड़ा बिखरा था। एक टाट के टुकड़े पर बुढिया उस लड़की को गोद में लिए बैठी थी। और कोई सामान कहीं नजर नहीं रहा था।

 

बुढ़िया ने जैसे उसकी बात समझ ली। बोली, “एक भिखारिन की झोंपड़ी में क्या  ढूँढ रहा है। यह झोंपड़ी भी मेरी नहीं है, जिसकी है वह कुछ दिनों के लिए कहीं गया है। उसके लौटते ही मैं दुबारा सड़क पर जाउंगी। जीवन समझ गया कि दादी-पोती भीख माँगती हैं। कहा, “तुम भीख माँगती हो पर इसे क्यों शामिल कर लिया इस गंदे काम में।

 

 यह मेरी कोई नहीं है। पता नहीं इसके माँ बाप कौन हैं। सारा दिन सड़क पर घूमती है पर शाम होते ही मेरे पास धमकती है, मेरे साथ ही सोती है।

 

अम्मा मुझे कहानी सुनाती है रात में,”—कहकर मुनिया हँस पड़ी।जीवन के गुस्से पर हँसी के छींटे पड़ गए। वह बरबस मुसकरा दिया। फिर उसने भिखारिन् अम्मा को सब बता दिया। यह तो बुरा हुआ तेरे साथ। अब क्या करेगा? जीवन को बताना पड़ा कि उसके माँ बाप गाँव में हैं, वह एक दोस्त के साथ रहता है। काम मिलना आसान नहीं है, पता नहीं अब कैसे क्या होगा। यह सब बताते हुए वह लगातार मुनिया की ओर देख रहा था। आखिर कहाँ हैं इसके माँ बाप? क्या इसका कहीं कोई नहीं जो इसे भीख माँगनी पड़ती है। कुछ देर के लिए जैसे अपनी परेशानी भूल गया। उसने कहा, “अम्मा, तुम भी क्यों हाथ फैलाती हो दूसरों के सामने।अम्मा ने कोई जवाब नहीं दिया। जीवन ने पूछा, “और तुम्हारा घर परिवार?”

 

मेरी छोड़, अपनी फ़िक्र कर। मेरी माने तो अपने मालिक से माफ़ी माँग ले।

मैं उसके पास तो कभी नहीं जाऊँगा। कोई दूसरा  काम तलाश कर लूँगा। मेरा दोस्त शायद मदद कर दे। पर तुम इस बच्ची को भीख माँगने से मना करो, और मैं तो कहता हूँ तुम भी इस बुढापे में क्यों लोगों के सामने हाथ फैलाती हो।

                    2

अम्मा ने कोई जवाब नहीं दिया, शायद कोई उत्तर था भी नहीं।क्या तुम्हें रोटी बनानी आती है?”एकाएक जीवन ने पूछ लिया।

पूरी जिन्दगी रोटी खिलाकर ही तो जाने कितने छोटों को बड़ा किया है मैंने। और तू है कि...”—बुढिया ने पोपले मुँह से हँसते हुए कहा।जीवन ने और कुछ नहीं पूछा, चुपचाप सड़क पर चला आया।

 

शाम को जीवन फिर आया। उसके साथ एक लड़का और था। उसने एक थैला जमीन पर रखा और उसमें से कुछ निकालने लगा...एक स्टोव, तवा, चिमटा और दो प्लेटें। साथ में एक डिब्बे में आटा भी था।

 

यह क्या उठा लाया?”अम्मा ने अचरज से पूछा। लाना ही था तो खाने को कुछ लाता जिससे मेरी और मुनिया के पेट की आग कुछ तो ठंडी होती। और ये तेरे साथ कौन है?”

 

यह मेरा दोस्त रघु है। हम दोनों साथ साथ रहते हैं। हमें भूख लगी है इसीलिए आए हैं।”—जीवन ने हँसते हुए कहा। बूढी अम्मा अपलक अचरज से ताक रही थी। उसकी समझ में जीवन की यह पहेली नहीं रही थी।

 

जीवन ने कहा, “यह सब सामान रघु का है। कभी कभी इसकी माँ गाँव से यहाँ आती हैं, तब हम दोनों को घर का खाना नसीब हो जाता है, नहीं तो हर रोज ढाबे में खाने जाते हैं. पर ढाबे के खाने से यह बीमार हो जाता है। और अब मैं भी वहाँ नहीं जा सकता। उधार जो चुकाना है। इसीलिए आज तुम्हारे हाथ की रोटियाँ खाने आए हैं।

 

कुछ देर बाद झोंपड़ी में स्टोव की आवाज़ गूँजने लगी। अम्मा ने एक प्लेट में आटा गूँध लिया और फिर गरम रोटी की महक उठने लगी। सब्जी के बदले नमक था। रघु और जीवन खाने लगे। जीवन ने एक रोटी मुनिया को थमा दी। वह भी खाने लगी। बहुत पेट भर गया, अब बस। जीवन के इतना कहते ही अम्मा ने स्टोव बंद कर दिया।

                           3                           

स्टोव क्यों बंद कर दिया। तुम्हारी रोटी कहाँ है?” जीवन ने पूछा तो अम्मा ने ऊपर की ओर देखा।तुम हमारे लिए रोटी बनाओ और खुद भीख माँगो, अब से यह कभी नहीं होगा। कहकर जीवन ने फिर से स्टोव जला दिया। आखिर अम्मा को जीवन की बात माननी पड़ी।

 

अम्मा चुप बैठी है। आज जाने कितने समय बाद अपने हाथ की बनाई गरम रोटी खाई है, अपने बच्चों जैसे दो अनजान लड़कों को पेट भर रूखी रोटियाँ खिलाई हैं। कहीं यह सपना तो नहीं। पेट भर खाने के बाद जीवन और रघु अलसा गए हैं। मुनिया पास में गुड़ीमुड़ी बनी सो रही है। अम्मा की दोनों हथेलियाँ बारी बारी से तीनों के सिर सहला रहीं हैं। मन एकदम बहुत पीछे दौड़ गया है। बहुत कुछ याद रहा है। और फिर आँखों से आँसूं बहने लगे। लेकिन अम्मा ने आँसुओं को रोकने की कोशिश नहीं की। उनकी हथेलियाँ अपना काम कर रही थीं।(समाप्त )