Saturday 23 March 2019

मुफ्त मिले--बाल गीत--देवेन्द्र कुमार


मुफ्त मिले---देवेन्द्र कुमार –बाल गीत
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महंगाई के इस मौसम में
मुफ्त मिले बस मां का प्यार

जब-जब देखे प्यार जताए
अच्छी अच्छी बात बताए
खुद न खाकर हमें खिलातीं
पल पल करती रहे दुलार

कभी कभी गुस्सा भी आता
होंठों से मुस्कान भगाता
माथे पर बल पड़ जाते हैं
अब कैसे हो बेड़ा पार

पर दिल मां का बहुत नरम है
गुस्सा तो एक झूठ भरम है
हमें उदास देखकर भर ले
अपनी गोदी में हर बार

महंगाई के इस मौसम में
मुफ्त मिले बस माँ का प्यार
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Monday 11 March 2019

ठूंठ वाला जंगल-बाल कहानी-देवेन्द्र कुमार

 ठूँठ वाला जंगल—बाल कथा—देवेन्द्र कुमार

 

क्या उस ठूंठ को किसी जादूगर ने इतना कुरूप और हरियाली विहीन बना दिया था. सारा जंगल उसे अपने माथे पर कलंक मानता था. क्या करता बेचारा ठूंठ...
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एक था जंगलउसमें पेड़ हरे भरे थे, जहाँ हर समय परिंदों की चूं चिर्र गूँजती रहती थी। लगभग हर पेड़ पर पक्षियों के घोंसले थे। सुबह परिंदे दाने की तलाश में निकलते तो सारा जंगल उनके शोर से गूँजने लगता, इसी तरह दिन ढलते समय शाम को परिंदे अपने घोंसलों की तरफ लौटने तब भी वे खूब शोर मचाते। जैसे आपस में एक दूसरे का हाल-चाल पूछ रहे हों कि दिन भर किसने क्या किया।
लेकिन जंगल में एक पेड़ ऐसा था जो सबसे अलग था। अलग इस तरह कि वह था एक ठूँठ जिस पर कभी पत्ते नहीं आते थे। भरपूर बारिश में जब जंगल में हर तरफ हरियाली छा जाती थी, उस समय भी उस ठूँठ पर हरियाली का एक अंकुर नहीं फूटता था।
जंगल  से गुजरने वाले लोग उस ठूँठ को अचरज से देखते। तरह-तरह की बातें करते। किसी की समझ में नहीं आता था कि आखिर इसका क्या कारण है कि एकमात्र ठूँठ ही ऐसा है, जिस पर हरियाली का एक अंकुर भी नहीं फूटता था। लोग कहते-“जरूर किसी जादूगर ने इस ठूँठ पर अपना जादू चलाया है, जो अकेला यही अभागा पेड़ है जिससे हरियाली रूठ गई है। ‘’
उसी ठूँठ के कारण यह हरा भर जंगल जैसे बदनाम हो गया था। सब उसे ठूँठवाला जंगल कहते थे। पता नहीं ऐसा क्यों कहते थे लोग। जंगल में सैंकडों पेड़ थे। पेड़ों पर जाने कितने घोंसले थे जिनमें सैंकड़ों परिंदो के परिवार रहते थेठूँठ तो बस एक ही थातब फिर लोग जंगल को ठूँठ वाला जंगल क्यों कहते थे?
लोग जंगल से गुजरते तो उस हरियाली विहीन ठूँठ को जरूर देखते। ठूँठ के पास खड़े होकर आपस में बातें करते। तरह-तरह के तर्क देते कि आखिर इस हरे-भरे जंगल में एकमात्र यही पेड़ अभागा क्यों है। हरियाली इससे क्यों रूठ गई है हमेशा के लिए। यह अपने आप में बड़ी विचित्र बात थी। असल में उस जंगल में सैलानी उसी विचित्र ठूँठ को देखने के लिए ही आते थे। बाकी हरियाले पेड़ों पर कोई ध्यान नहीं देता था। वे साधारण थे, ठूँठ विशेष था।
उस जंगल में बसने वाले परिंदों को यह पसंद नहीं था। वे उड़कर कहीं जाते, अपना परिचय देते कि वे ठूँठ वाले जंगल से रहे हैं। वे आपस में शिकायत करते—“भला यह भी कोई बात हुई। एक ठूँठ के कारण सारा जंगल बदनाम हो जाए। इससे तो अच्छा है कि आँधी-पानी, तूफान में यह ठूँठ उखड़ जाए तो हमारे जंगल के माथे से यह कलंक मिट जाए।‘’ और सच एक बार भयानक तूफान गया, तेज आँधी-पानी में अनेक पेड़ जड़ से उखड़कर गिर गए, झाड़ियाँ झुक गईं, पर उस ठूँठ का कुछ
                                            
 हुआ। वह पहले की तरह सीधा खड़ा रहा। उसके पास खोने के लिए कुछ था ही नहींन डालियां, पत्ते और फूल। तूफ़ान उसका कुछ बिगाड़ सका
जंगल में कई घोंसले गिरकर नष्ट हो जाए। हरे भरे पेड़ सहमे से ठूँठ की शान देखते रहे। उसने तो भयानक तूफान को भी परास्त कर दिया था। क्या उसमें जादुई शक्ति थी? क्या पता, कौन जाने।
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ठूँठ कुछ ऊँची जमीन पर था। उसके सब तरफ गोलाई में जमीन अंदर को धंसी हुई थी। इस कारण वहाँ एक विशाल कटोरे जैसा गड्ढा दिखाई देता था। पर बरसात में उस गड्ढे में पानी भर जाता था, जो गरमी का मौसम आते-आते सूख जाया करता था। पर इस तूफानी बारिश में गड्ढे में इतना पानी भर गया कि किनारों से बहकर दूर तक फैल गया। वहाँ एक झील सी बन गई। झील का दृश्य बहुत सुंदर था। झील के चारों ओर हरे भरे पेड़, झील के बीच ऊँची जमीन पर खड़ा ठूँठ, जो देखने में अपने जैसा एकमात्र पेड़ था। समय बीतने के साथ-साथ झील में लाल, सफेद और पीले कमल के फूल खिल गए। अब तो वातावरण और भी सुहाना हो गया।
पूरी बरसात ठूँठ वाली झील लबालब भरी रही। जंगल से गुजरने वाले लोगों ने उस नई झील के बारे मे लोगों को बताया तो सैलानी उसे देखने के लिए आने लगे। जिसने भी रंगारंग कमल के फूलों वाली झील को देखा वही देखता रह गया। कमल पुष्पों से सजी झील के बीच जरा ऊँचाई पर खड़ा वह ठूँठ अब कुरूप नहीं लगता था। देखने वालों के मुँह से बरबस निकल पड़ता था-“वाह क्या सुदर दृश्य है।
फिर तो झील के कमल और बीचोंबीच खड़े ठूँठ की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। जंगल में सैलानियों के झुंड जुटने लगे। कुछ लोग तो इतने उत्साही थे कि अपने साथ छोटी नौका ले आए और फिर झील में नौका विहार का आनन्द लेने लगे। सैलानी आए तो वहाँ दिन में खाने पीने के स्टाल भी लग गए। स्टाल सैलानियों के जाने के साथ बंद हो जाते। फिर भला जंगल में कौन रुकता।
सर्दियों का मौसम आया तो एक चमत्कार हुआ। उत्तर की कड़ी ठंड से बचकर दक्षिण में आने वाले  प्रवासी पंछी पहली बार झील के बीच खड़े ठूँठ की डालियों पर उतरे। नए प्रवासी पंछी, उनकी नई आवाजें जो इससे पहले कभी सुनी नहीं गईं थीं। जंगल में मंगल हो गया।
प्रवासी पंछियों के ठूँठ पर उतरने की खबर फैली तो अनेक पक्षी-प्रेमी कैमरे लेकर पहुँचे। ये नए तरह के सैलानी थेउनका उद्देश्य केवल मौज मजा करना नहीं, बल्कि झील पर आए प्रवासी पंछियों के बारे में जानकारी जुटाना और उनके चित्र खींचना था।
कई पक्षी प्रेमी आए तो फिर कई दिन तक नहीं गए। ये झील के पास ही अपने तम्बू लगाकर टिक गए। इसमें आराम नहीं था, पर वे सच्चे प्रकृति प्रेमी थे। कई लोग जंगल में खोज करने निकल जाते। जंगल में उन्होंने कई नए फूल खोजे। उनके नमूने लिए।
सैलानियों की एक टोली जंगल में भटकती हुई एक खँडहर इमारत पर जा पहुँची, जो घने झाड़-झंखाड़ में छिपी हुई थी। खँडहर की दीवारें आँधी-पानी की मार से काली हो रही थीं। सैलानियों ने खँडहर की एक दीवार पर विचित्र लिपि में कुछ लिखा, उकेरा हुआ देखा। उन्होंने लिपि के चित्र उतारे, फिर अखबारों में उसकी चर्चा होने लगी। आखिर क्या मतलब था उस लिपि का?
सब कुछ एकदम बदल गया था। कमल-झील के बीचों-बीच खड़ा ठूँठ, सर्दियों में उसकी सूनी डालियों पर उतरने वाले प्रवासी पंछी और जंगल का वह प्राचीन खँडहर, जिसकी एक दीवार पर विचित्र लिपि में कुछ लिखा मिला था।
यह सब उस ठूँठ के कारण ही तो हुआ था, जिसे पहले जंगल के हरे भरे पेड़, वहाँ बसने वाले परिंदे और जंगल से गुजरने वाले पथिकसभी अभागा और जाने क्या-क्या कहते थे। पर वही अभागा कहा जाने वाला ठूँठ अब उस जंगल का राजा बन गया था। अब किसी को ठूँठ से शिकायत नहीं थी। समय बदल गया था।(समाप्त)