Sunday 28 August 2022

कान और हाथ—कहानी—देवेन्द्र कुमार

 

कान और हाथ—कहानी—देवेन्द्र कुमार

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  आज रविवार है,एग्रो पब्लिक स्कूल में त्यौहार का वातावरण है, सरदी की गुनगुनी धूप में स्कूल के मैदान में बच्चों के रंग बिरंगे परिधान इंद्रधनुषी छटा बिखेर रहे थे। स्कूल में बच्चों की चित्र कला  प्रतियोगिता हो रही थी। बाल चित्रकारों के हाथ और चेहरों पर रंग लग गए थे,पर इस सबसे बेखबर बच्चे चित्र बनाने में जुटे थे। स्कूल की अध्यापिकाएं बच्चो के बीच घूम घूम कर उनका उत्साह बढ़ा रही थीं। 

  आखिर प्रतियोगिता समाप्त हुई। बाल कलाकारों ने अपने अपने चित्र निर्णायकों को सौँप दिए।   अब सबको परिणाम घोषित होने की प्रतीक्षा थी। सबसे अच्छे चित्र को प्रथम पुरस्कार के रूप में बहुत अच्छा इनाम मिलने वाला था। दस सांत्वना पुरस्कार भी दिए जाने वाले थे। चित्रकारी के बाद अब बच्चे नाश्ता कर रहे थे, लेकिन सबकी निगाहें निर्णायकों  की ओर लगी थीं जो एक एक चित्र को परख रहे थे। लेकिन एक समस्या थी--कई बच्चों ने अपने बनाये चित्र पर अपने नाम नहीं लिखे थे।लेकिन परिणाम तो घोषित करने ही थे।   

  सब जजों की राय में एक चित्र सबसे अच्छा था। लेकिन उसे बनाने वाले बच्चे ने एक विचित्र विषय चुना था, और उस चित्र पर कोई नाम भी नहीं था। चित्र में दो कान बनाये गए थे जिन्हें दो हाथों ने पकड़ा हुआ था। निश्चय ही चित्र में एक संकेत छिपा हुआ था। क्या बच्चा यह बता रहा था कि उसे दंड दिया जा रहा था अथवा उसने किसी को दंड मिलते देखा था। आखिर सच क्या था? क्या नाम न लिखने के पीछे यह डर काम कर रहा था कि उसकी पहचान उजागर होने पर उसे सजा मिल सकती थी।   

  कुछ देर तक आपस में विचार करने के बाद स्कूल की प्रिंसिपल लताजी माइक पर आईं। उन्होंने कहा- ‘बच्चो,निर्णायकों ने सबसे अच्छे चित्र का चुनाव कर लिया है,लेकिन एक समस्या है, चित्र पर उसे बनाने वाले ने अपना नाम नहीं लिखा है। हम चाहेंगे कि इसका चित्रकार सामने आकर प्रथम पुरस्कार प्राप्त करे।’ प्रिंसिपल ने ‘कान पकड़ हाथ’ वाला चित्र नोटिस बोर्ड पर लगा दिया। वहां मौजूद सब बच्चे तालियाँ बजाने लगे। सबको प्रथम पुरस्कार जीतने वाले अनाम बच्चे का इन्तजार था।   लेकिन काफी समय तक प्रतीक्षा करने के बाद भी कोई बच्चा पुरस्कार लेने नहीं आया। 

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  सब छात्र हैरान थे कि प्रथम पुरस्कार विजेता इनाम लेने क्यों नहीं आ रहा है, लेकिन प्रिंसिपल लताजी  तथा अन्य अध्यापिकाएं इसका कारण अच्छी तरह समझ चुकी थीं। निश्चय ही वह अपनी पहचान उजागर होने से डर रहा था। तब उस बच्चे को पहचानने का क्या उपाय था?यह एक गंभीर बात थी। लताजी ने स्कूल की सब टीचर्स की मीटिंग बुलाई। उन्होंने प्रत्येक टीचर से पूछा कि क्या उन्होंने कभी किसी छात्र को कोई सजा दी है, उसके साथ मारपीट की है?क्योंकि स्कूल में इस पर प्रतिबन्ध था। टीचर्स ने एक स्वर से छात्रों को कैसा भी दंड देने से इनकार किया। कहा-‘ अगर कोई छात्र कभी गलत आचरण करता है तो वे प्यार और समझाने का तरीका अपनाती हैं, दंड का नहीं।’

   तो क्या उस बच्चे को घर पर या कहीं और परेशान किया जाता है? इस बात को पता करने का क्या तरीका था? लताजी ने काफी सोच विचार के बाद एक तरीका अपनाया। उन्होंने ‘कान और हाथ’ वाला चित्र स्कूल के प्रवेश द्वार पर एक नोटिस बोर्ड पर लगा दिया। और फिर कुछ टीचर्स से वहां नज़र रखने को कहा। उन्हें यह देखना था कि क्या कोई छात्र बार बार उस चित्र के सामने आकर खड़ा होता है। यह उपाय कारगर साबित हुआ। ऐसे तीन छात्र थे जो बार बार आकर उस चित्र को देखते थे। उनके नाम थे-अमर, विनीत और रजत।   

  लताजी उन तीनों के पेरेंट्स से बात चीत करना चाहती थीं लेकिन स्कूल में नहीं। वह समझ रही थीं इस बात का पता स्कूल में किसी को भी नहीं लगना चाहिए। उन्होंने तीनों के माँ बाप को बारी बारी से अपने घर बुलाया। और उन्हें सावधान कर दिया कि इस बारे में किसी से कुछ न कहें।   अमर और विनीत के माता पिता ने कसम खाकर कहा कि वे अपने बच्चे को कभी कैसा भी दंड नहीं देते। हमेशा प्यार से पेश आते हैं। लेकिन रजत के पैरेंट्स लताजी के इस प्रश्न का सही उत्तर नहीं दे सके। आखिर रजत की माँ ने पति के सामने ही बताया—‘ इन्हें जल्दी गुस्सा आ जाता है। मेरे बार बार समझाने पर भी उसे मारने लगते हैं।‘ जब रजत की माँ लताजी से बात कर रही थी तो रजत के पिता एकदम चुप बैठे थे।   

   लताजी ने रजत के पिता से प्रश्न किया तो कुछ देर चुप रहने के बाद उन्होंने कहा—‘ मैं मानता हूँ कि मुझे जल्दी गुस्सा आ जाता है। मैं अपने गुस्से पर काबू करने की बहुत कोशिश करता हूँ   लेकिन फिर भी... ’ कमरे में कुछ देर मौन छाया रहा। रजत के पिता के अटपटे व्यवहार से सारी  बात साफ़ हो गई। लताजी ने उन्हें शांत करते हुए कहा-‘ आपके गलत व्यवहार का रजत के कोमल मन पर बुरा प्रभाव पड रहा है। यह उसके लिए अच्छा नहीं है।’ मुझे आशा है कि आप रजत के साथ प्यार और समझदारी से पेश आयेंगे।‘ 

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  मैं उससे माफ़ी मांग लूँगा।’ रजत के पिता ने कहा तो लताजी ने उन्हें टोकते हुए कहा-‘ ऐसी गलती भूल कर भी मत करना। इस बारे में रजत को कुछ भी पता नहीं चलना चाहिए। हम सबको इस बात को एकदम भूल जाना चाहिए।’

  और ऐसा ही हुआ। स्कूल के नोटिस बोर्ड पर लगा चित्र गायब हो गया। सुबह की प्रार्थना सभा में लताजी ने कहा–‘ न जाने वह चित्र कहाँ गया। पता नहीं यह किसने किया है। हम बहुत कोशिश करने पर भी उस चित्र को बनाने वाले बच्चे की पहचान नहीं कर पाए।’

   लताजी रजत के माता पिता से निरंतर बात करती रहीं। रजत की माँ के अनुसार उसके पिता का व्यवहार एकदम बदल गया था। रजत के ‘कान पकड़ हाथ’ वाले चित्र ने अपना काम कर दिया था।  और कोई कुछ भी नहीं जान पाया था। वैसे रजत के बनाये चित्र को लताजी ने अपने पास        संभाल कर रख लिया था। लताजी किसी को कुछ बताने वाली नहीं थीं।   ( समाप्त)                                         

Wednesday 17 August 2022

बच्चे फूल हैं-कहानी-देवेंद्र कुमार

 

बच्चे फूल हैं-कहानी-देवेंद्र कुमार

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सुबह का समय। छुट्टी का दिन था। अभी सूरज पूरी तरह उगा नहीं था। सैलानी बाग में सैर कर रहे थे। हल्की हवा बदन पर अच्छी लग रही थी। पेड़-पौधों के पत्ते और टहनियों पर झूलते सुंदर सुगंधित फूल धीरे-धीरे हिल-डुल रहे थे जैसे आपस में बातें कर रहे हों। फूलों की मीठी-मीठी खुशबू हवा में तैर रही थी।

 

  दो व्यक्ति एक क्यारी के पास रुककर वहां खिले फूलों को देखने लगे। बहुत सुंदर दृश्य था। एक ने दूसरे से कहा-‘‘अद्भुत। अति सुंदर।’’

 

दूसरे ने जवाब दिया-‘‘आपने ठीक कहा। फूल ऐसे लग रहे हैं जैसे सुंदर-सलोने बच्चों के झुंड।

 

-‘‘हां, बच्चे इन फूलों जैसे सुकोमल होते हैं।’’ दोनों व्यक्ति कुछ देर फूलों की क्यारी के पास रुककर इसी बारे में बातें करते  रहे -फूलों जैसे बच्चों और बच्चों जैसे फूल।

 

फूल भी उनकी बातें ध्यान से सुन रहे थे। उन दोनों के जाने के बाद एक फूल ने दूसरे फूल से कहा-‘‘तुमने सुना इन दोनों ने क्या कहा।

 

‘‘हां, सुना। वे बच्चों की तुलना हम फूलों से कर रहे थे।

‘‘लेकिन बच्चे तो मनुष्य की संतान हैं। वे हम फूलों जैसे कैसे हो सकते हैं।’’

 

दूसरा फूल बोला-‘‘यह सब मैं नहीं जानता। लेकिन अक्सर ही मां-बाप कहते हैं-मेरा बच्चा फूलों जैसा कोमल है, नाजुक है।’’

 

खामोशी छा गई। हवा का झोंका आया तो फूल फिर से डालियों पर हिलडुल करने लगे। फूल ने हवा से पूछा तो हवा ने भी वही कहा। फूल बोला-‘‘मैं भी देखना चाहता हूं उन बच्चों को जिनकी तुलना उनके मां-बाप हमसे करते हैं। लेकिन मैं भला कैसे कहीं जा सकता हूं। मैं तो टहनी से जुड़ा हूं।’’ तभी हवा का दूसरा तेज झोंका आया और पौधे को हिला गया। एक कोमल टहनी पौधे से अलग हो गई। टहनी पर एक फूल खिला हुआ था। हवा फूलवाली टहनी को उड़ा ले चली ।

 

 

 

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‘‘वाह!’’ फूल ने कहा। उसे लग रहा था जैसे वह बंधन मुक्त हो गया है। अब कहीं भी जा सकता है। हवा फूल को उडाए लिए जा रही थी। आगे कूड़े का बड़ा ढेर पड़ा था|  हवा कूड़े के ढेर के ऊपर से गुजरी तो बदबू से सामना हुआ। फूल ने देखा दो बच्चे कूड़े के ढेर में जैसे कुछ खोज रहे थे। कूड़े में से निकालकर कुछ चीजें पास में रखी एक बड़ी बोरी में डालते जा रहे थे।

 

फूल ने हवा  से पूछा-‘‘क्या इन बच्चों को हम फूलों जैसा कहा जा सकता है?’

हवा बोली-‘‘भले ही ये दोनों बच्चे गंदे और मैले-कुचैले हैं, पर शायद इनके मां-बाप को इनका चेहरा फूलों जैसा सुंदर लगता होगा।’’

 

फूल ने कहा-‘‘ये तो बहुत गंदे हैं। देखो तो सब तरफ कितनी बदबू फैली है।

 

हवा बोली-‘‘ये गरीब हैं न। घर गंदा, बस्ती गंदी। पेट भरने के लिए इन बच्चों के मां-बाप कूड़े के ढेर में से काम लायक चीजें चुनकर बेचते हैं, तब इनका घर चलता है। ये बच्चे इस काम में अपने मां-बाप की मदद करते हैं। लो, इनसे बात करो। इनका हाल-चाल पूछो।’’ इतना कहकर हवा ने फूल को बच्चों के पास कूड़े के ढेर पर छोड़ दिया और आगे चली गई। अब फूल कूड़े के बड़े ढेर पर पड़ा हुआ सोच रहा था-‘‘यह मैं कहां आ गया!’’

 

दोनों बच्चों के नाम थे किशोर और कमल। कूड़े के ढेर में काम लायक चीजें ढूंढ़ते हुए एकाएक कमल के हाथ रुक गए। उसने गहरी सांस ली। उसके मुंह से निकला-‘‘वाह! कितनी अच्छी खुशबू है।

 

किशोर ने कमल की ओर देखा। बोला-‘‘इस बदबू के बीच खुशबू कहां से आ गई।’’ फिर उन दोनों की नजर एक साथ फूल पर जा टिकीं। लाल रंग का सुंदर फूल। इसी में से भीनी-भीनी  खुशबू आ रही थी। दोनों ने फूल को उठाने के लिए हाथ बढ़ाए फिर रुक गए। दोनों की हथेलियां गंदगी से काली हो रही थी।

 

‘‘फूल को मत छुओ। उसे देखो। देखो न हमारे हाथ कितने गंदे हैं।’’ कमल बोला। मेरी मां कहती है फूल कोमल होते हैं। उन्हें तो दूर से देखना चाहिए। छूना या तोड़ना नहीं चाहिए।’’

 

किशोर ने कहा-‘‘अरे हमने इस फूल को तोड़ा कहां है। यह तो हवा में उड़कर अपने आप हमारे पास आ गया है। मैंने तो कभी किसी फूल को छूकर नहीं देखा है।’’ कहते-कहते किशोर ने फूल को उठाकर अपने गंदे गाल से लगा लिया। गाल कालिख से काला हो रहा था।

 

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‘‘अरे ये फूल गंदा हो जाएगा। शीशे में अपना मुंह तो देख ले जरा।’’ कमल ने उसे चिढ़ाया। पर किशोर फूल को इसी तरह अपने गाल से सटाए खड़ा रहा, फिर जोर-जोर से सूंघने लगा। ‘‘वाह, कितनी अच्छी खुशबू है।’’

‘‘क्या फूल की सारी खुशबू तू खुद ही सूंघ लेगा। जरा मुझे भी तो छूने दे इस फूल को।’’ कमल ने याचना भरे स्वर में कहा।

 

‘‘जरा अपना मुंह और अपनी हथेलियां तो देख।’’ कहकर किशोर मुस्कराया और उसने फूलदार टहनी कमल को थमा दी। ‘‘सचमुच बहुत अच्छी खुशबू है। न जाने गंदगी के इस ढेर पर इतना सुंदर सुगंधित फूल कहां से आ गया।’’ कमल ने कहा। फिर दोनेां बारी-बारी से फूल को छूते और सूंघते रहे। वे गंदगी के ढेर से काम लायक चीजें ढूंढ़ने का अपना काम भूल चुके थे।

 

‘‘इस तरह हम फूल को बार-बार छुएंगे तो यह मुरझा जा जाएगा। इसकी खुशबू खत्म हो जाएगी।’’ किशोर ने कहा।

 

‘‘चलो, यहां से चलें और साफ-सुथरी जगह पर बैठकर इस फूल से इसका हाल-चाल पूछे।’’ कमल बोला।

 

‘‘मगर बोरी नहीं भरी तो बप्पा नाराज हो जाएंगे।

पर कमल ने जैसे किशोर की बात सुनी ही नहीं थी। उसकी आंखें कूड़े के ढेर पर कुछ खोज रही थी। कुछ दूरी पर एक टूटा हुआ गमला पड़ा था। कमल ने गमले को उठा लिया, फिर मिट्टी डालकर फूलदार टहनी को गमले में बिठा दिया।

 

‘‘हाँ , अब बन गई बात!’’ किशोर ने कहा। कई बार बाग से गुजरते हुए गमलों में लगे फूल देखे हैं मैंने।’’

 

‘‘पर यह गमला तो टूटा हुआ है। फूल इसमें कैसे टिकेगा?’’

 

‘‘मैं इसे घर ले जाऊंगा।’’ किशोर बोला-‘‘और इसे मां को दे दूंगा। वह इसे संभालकर रखेगी। कुछ दिन बाद टहनी पर और भी फूल आ जाएंगे।

‘‘दम घुट जाएगा  बेचारे फूल का तुम्हारी झोपड़ी में। फूलों को हवा और धूप चाहिए।’’

 

‘‘तब क्या करें?’

‘‘फूल को यही रहने दो। बोरी भरने का काम भी तो पूरा करना है। वरना डांट पड़ेगी।’’ कमल ने  भरी बोरी को हिलाकर देखा। वह फूल को भूल जाना चाहता था। पर आंखें थी कि उस तरफ से हट ही नहीं रही थी।

 

किशोर और कमल फिर से अपने काम में लग गए। पास में टूटे गमले  में फूल हवा में हिलडुल रहा था।

 

‘‘मैं तो फूल से बात करूंगा।’’ कमल ने बोरी को एक तरफ रखते हुए कहा-काम तो हर रोज ही करते हैं।

‘‘आओ फूल से बातें करें।’’

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‘‘हां, दोस्ती करें। इस काम में हाथ गंदे करते हुए सारा दिन बीत जाता है।

 

‘‘सुबह-शाम कुछ पता ही नहीं चलता।’’

 

‘‘मैं बप्पा से कहूंगा कि कूड़े में हाथ गंदे न करें। कमल ने कहा।

 

‘‘मैं भी यही कहूंगा।’’ किशोर ने हां में हां मिलाई। ‘‘लेकिन वह तो कूड़े वाला काम ही जानते हैं। हमसे भी यही करवाते हैं।’’

 

‘‘मैं तो फूलों का काम करूंगा।

‘‘फूलों का काम! कैसा काम!’’

 

‘‘कोई भी काम...फूलों के बीच रहूंगा। फूलों से बात करूंगा। कूड़े से नफरत है मुझे।

‘‘मुझे भी...आओ अपने इस दोस्त से बात करें।’’ और दोनों टूटे गमले को बीच में रखकर बैठ गए। कूड़े के विशाल ढेर से बदबू आ रही थी। नीले आकाश में परिंदे शोर कर रहे थे। टूटे गमले में लगा फूल खुश था, उसे दो नए दोस्त मिल गए थे। तीन फूल हंस रहे थे।(समाप्त)

  

 

Friday 12 August 2022

मरना नहीं—कहानी—देवेन्द्र कुमार

 

मरना नहींकहानीदेवेन्द्र कुमार

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  रामदयाल इस बड़ी दुनिया में अकेले रह गए थे। उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। वह दो-चार दिन ही बीमार रहीं। मोहल्ले वाले उन्हें अस्पताल ले गए। उन्होने  ही भाग-दौड़ की। रामदयाल खुद बीमार थे। उनका लड़का मुंबई  में रहता है। कई वर्षों से घर नहीं आया था। मां की मृत्यु का समाचार मिलने पर उसने जवाब भेज दिया-बहुत उलझा हुआ हूं, फुरसत होने पर आऊंगा।

 

  पत्र पाने वाली रात रामदयाल तकिए में  मुंह गड़ाकर कितना रोए-कहना कठिन है। उनकी खुद की उम्र पैंसठ वर्ष हो गई थी। अब उन्हें हरदम लगता था जैसे दुनिया में उनके लिए कुछ भी शेष नहीं रहा है। पड़ोसियों ने उनका बहुत ख्याल रखा। हर समय कोई-न-कोई उनके पास मौजूद रहता। लेकिन फिर भी रामदयाल की उदासी बढ़ती गई। वह जितना सोचते, यह विश्वास पक्का होता जाता कि अब इस दुनिया में रहना बेकार है। और एक सुबह घूमने के लिए निकले तो फिर लौटे नहीं। उनके कदम शहर से बाहर की ओर चलते चले गए।

 

  एक बस आगे की तरफ जा रही थी। रामदयाल बस में बैठ गए। कई घंटे की यात्रा के बाद जब बस एक घने जंगल में से गुजर रही थी, तो वह पेशाब करने के लिए नीचे उतरे और एक दिशा में बढ़ गए। थोड़ी देर बाद उन्होंने बस के भोंपू की आवाज सुनी। ड्राइवर उन्हें जल्दी करने को कह रहा था, लेकिन रामदयाल बाबू वहीं खड़े रहे। उन्होंने न लौटने का फैसला किया था। वह वन में खो जाना चाहते थे।

 

  उस घने जंगल में दिन में भी पेड़ों के नीचे हल्का अंधेरा था। हर तरफ सुनसान। पत्तों में सांय-सांय हवा। रामदयाल बाबू को जैसे होश नहीं था। झाडि़यों में अटकते, उलझते बढ़ रहे थे, पता नहीं किधर। धूप तेज हुई तो प्यास से गला सूखने लगा। अब वह एक ऊंचे कगार की ओर बढ़ रहे थे-आंखों के सामने एक दृश्य तैर रहा था-वह हवा में हाथ-पैर मारते हुए नीचे घाटी की ओर गिरे जा रहे हैं।

 

  और फिर एकाएक उनके कदम रुक गए। जहां ढलान नीचे घाटी की ओर खुलता था, वहां दो लकडि़यां लगाकर रास्ता बंद किया था, वहां मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था-सावधान।रामदयाल बाबू ने इधर-उधर देखा पर कोई नजर नहीं आया। उनकी समझ में न आया कि                           

 लोगों को सावधान रहने की बात किसने लिखी। उन्होंने जरा बढ़कर झांका तो देखा आगे गहरी खाई थी। वह पीछे हट आए-न जाने क्यों उनका मन कांप उठा। वह एक तरफ बैठ गए। कुछ देर पहले रामदयाल आत्महत्या के लिए तैयार थे, लेकिन अब कुछ-कुछ डर लग रहा था।

 

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  वह कुछ देर आंखें मूंदे बैठे रहे, फिर उठे। प्यास से गला खुश्क हो रहा था, लेकिन वहां भला पानी कहां मिलता। तभी उन्होंने देखा पास ही पत्थर की कूंडी में पानी भरा है। वहीं कुछ फल भी रखे दिखाई दिए। कुछ देर सोचते खड़े रहे-पिएं या न पिएं, फिर प्यास ने जोर मारा तो गटागट पानी पी गए। वहां रखे फल भी खा लिए। अब जाकर चित्त कुछ ठिकाने हुआ, लेकिन एक बात रह-रहकर परेशान कर रही थी-यह सब किसने किया है। यहां तो कोई नजर नहीं आता। कौन है वह?

 

  रामदयाल के मन से आत्महत्या का विचार निकल गया। वह जंगल में घूमने लगे। जगह-जगह उन्होंने सावधानलिखा देखा। कई पेड़ों पर जहरीले फलभी लिखा था। उन्होंने पाया कि अगर वह सब न लिखा होता तो कोई भी गिरकर अपने प्राण गंवा सकता था। घास में छिपे हुए गहरे गड्ढे, खतरनाक मोड़, जहरीले फल-सबके बारे में सावधान किया गया था।  अब तक दोपहर ढल चुकी थी। रामदयाल जी ने जोर से पुकारा, ‘‘मेरे प्राण बचाने वाले भाई, मैं आपके दर्शन करना चाहता हूं।’’

 

  पत्तों के पीछे सरसराहट हुई और एक बूढ़ा हंसता हुआ सामने आ गया। उसने कहा-‘‘मैं बहुत देर से आपको देख रहा हूं, कहिए आप यहां कैसे आ गए?’’

 

  ‘‘सच कहूं, मैं आत्महत्या के इरादे से आया था लेकिन खाई के किनारे लिखे शब्दों ने मन बदल दिया।’’ रामदयाल कह गए।

 

  उस व्यक्ति ने पूछा, ‘‘अब क्या इरादा है?’’

 

  ‘‘सोच रहा हूं क्या करूं।’’ रामदयाल ने कहा और उनकी आंखें भर आईं। बूढ़े के पूछने पर उन्होंने अपनी रामकहानी कह सुनाई। जब उन्होंने बात खत्म की तो उनकी आंखों से लगातार आंसू गिर रहे थे। एकाएक उन्होंने पूछा-‘‘लेकिन आपने अपना परिचय नहीं दिया।’’

 

  बूढ़े ने कहा-‘‘जो आपका परिचय है वही मेरा भी है। मेरा नाम है नरसिंह। क्या सुनाऊं! अनेक वर्ष हो गए। एक दिन मैं अपने बेटे के साथ इस जंगल से गुजर रहा था। तभी बेटा घास में छिपे गहरे गड्ढे में गिर गया। वह इतना नीचे गिरा था कि मैं वहां पहुंच भी नहीं सकता था। मेरी दुनिया अंधेरी हो गई।

                             

पत्नी पहले ही मर गई थी। अब तो कुछ भी नहीं बचा था जीवन में। मैंने तय किया कि मैं भी उसी गड्ढे में कूदकर जान दे दूं।’’रामदयाल जी ध्यान से सुन रहे थे।

 

  नरसिंह ने आगे कहा-‘‘मैं कूदने जा रहा था, एकाएक मन ने कहा यह कायरता है। हो सकता है, इसी तरह लोग आकर इस छिपे गड्ढे में गिरते रहें। नहीं, यह ठीक नहीं। पहले इसका कुछ प्रबंध करना चाहिए। बस, मैंने गड्ढे के चारों ओर पेड़ की डालियां खड़ी करके उन्हें लताओं से बांध दिया।’’

 

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  ‘‘फिर?’’ रामदयाल ने पूछा।

 

  ‘‘फिर मुझे लगा कि ऐसे खतरनाक स्थान तो इस जंगल में और भी होंगे। मैंने देखा, मेरे बेटे की जान लेने वाले गड्ढे के पास ऐसे ही दूसरे स्थान भी थे। बस, मैंने निश्चय  कर लिया कि जंगल में जब तक एक भी ऐसा खतरनाक स्थान रहेगा, मैं नहीं मरूंगा।’’ वह दिन था और आज का दिन है, मैं इसी जंगल में रह रहा हूं-अभी मेरा काम खत्म नहीं हुआ। खतरनाक स्थानों पर मैंने चेतावनियां लिखकर लगा दी हैं। कौन-से फल जहरीले हैं और कौन-से खाने लायक यह भी जान लिया है। जंगल इतना खतरनाक नहीं रह गया है जितना पहले था। मैंने कई भटके लोगों को रास्ता बताया है। खाने-पीने की सामग्री दी है, नहीं तो शायद वे मर जाते। और हर बार मुझे लगा कि आत्महत्या न करने का मेरा निश्चय गलत नहीं था।’’

 

     रामदयाल गंभीर होकर नरसिंह की बातें सुन रहे थे। एकाएक नरसिंह ने कहा-‘‘रात हो रही है, जंगली जानवरों का डर है। सुबह आपको जंगल से बाहर जाने का रास्ता बता दूंगा। आइए।’’

  नरसिंह रामदयाल को एक गुफा में ले गया। उसके बाहर आग जलाकर दोनों लेट गए। रात को जंगली जानवरों की आवाजें सुनाई दीं, कभी दूर, कभी एकदम पास। सुबह रामदयाल की नींद खुली तो नरसिंह ने कहा-‘‘चलिए, आपको जंगल से बाहर जाने वाले रास्ते पर छोड़ दूं।’’

 

 ‘‘लेकिन मुझे कहीं नहीं जाना।’’

 

  ‘‘तब कहां जाएंगे, क्या इरादा है?’’ नरसिंह ने आश्चर्य से पूछा।

 

  ‘‘मैं यहीं रहूंगा, आपके साथ।’’ रामदयाल ने कहा-‘‘अभी जंगल में ऐसे बहुत-से स्थान हैं जहां देखभाल  की जरूरत है- मैंने मरने का इरादा छोड़ दिया है।’’

 

  ‘‘क्या सच।’’ कहते हुए नरसिंह की आंखें चमक उठीं।

 

  ‘‘हां, मैने देख लिया है जीवित रहकर दूसरों को मरने से बचाया जा सकता है।’’ रामदयाल ने कहा और मुसकरा उठे। ‘‘मरने के लिए एक दुख है तो जीने के लिए सौ सुख भी कम हैं।’’ रामदयाल ने कहा और गुफा से बाहर आ गए। सूरज पेड़ों के पीछे से ऊपर उठ रहा था।==