मेरे छाते की तरह
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एक दिन
मेरे हाथ में
नया छाता था
और मन में
बार-बार
यही आता था
पूछूं आकाश से
ऐ भाई!
तेरे बादलों का क्या हुआ?
बरसना क्यों भूल गए?
बस,
इसी तरह
जैसे मेरे हाथ में
नया छाता था
और मन में
बार-बार वही वही
आता था।
इसी तरह जुड़ते चले गए
अन्न से अकाल
जीवन से काल
और भी बहुत से सवाल
मुझसे
मेरे छाते की तरह।
---देवेंद्र कुमार
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