Thursday 30 December 2021

जोकर काम पर-कहानी-देवेंद्र कुमार

 

 जोकर काम पर-कहानी-देवेंद्र कुमार

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सड़क पर काम चल रहा है। सड़क का एक हिस्सा नीचे धंस गया है। गड्ढा खोदकर उसे घेर दिया गया है। लोहे के बोर्ड लगा दिए हैं, जिन पर लिखा  है-‘ सावधान, आदमी काम पर हैं।’ इसलिए वहां सड़क संकरी हो गई है। ट्रैफिक को नियंत्रित करने के लिए सिपाही रामभज की ड्यूटी लगा दी गई है।

 

दोपहर में एक घंटा काम बंद रहता है। तब रामभज भी वहां से चला जाता है। एक दोपहर वह लौटा तो देखा एक मजदूर बोर्ड पर कुछ लिख  रहा है-‘ आदमी’ शब्द पर कागज चिपका कर उस पर ‘जोकर’ लिख दिया गया था। रामभज ने पढ़ा। –‘जोकर काम पर’ – यह क्या है?’ उसने पूछा। जवाब में एक मजदूर ने कहा-‘, हमारे बीच एक जोकर मौजूद है। ‘ और उसने अपने एक साथी की ओर इशारा किया। रामभज ने अचरज से उस ओर देखा और हंस दिया। जिसे जोकर कहा गया था वह उठ कर रामभज के पास आ खड़ा हुआ। उसने कहा-‘ जी, पेशे से मैं जोकर हूँ। लेकिन सर्कस बंद हो गया और मैं बेरोजगार। जब जहाँ जो भी काम मिलता है वही कर लेता हूँ।’ उसका नाम डेविड था।

 

रामभज जोर से हंस पड़ा। बोला-‘ अगर तू जोकर है तो वही करतब दिखा जो सर्कस में दिखाया करता था।’ ‘लेकिन मेरे पास जोकर की पोशाक तो अब है नहीं। डेविड बोला।

 

कोई बात नहीं तू जोकर के करतब दिखा।_–रामभज हंस रहा था।

 

डेविड ने रामभज का डंडा थाम लिया और कुछ देर तक खामोश खड़ा रहा। सबकी आँखें उस पर टिकी थीं। एकाएक डेविड ने डंडा हवा में उछाला और फिर लपक कर पकड़ लिया। तब उसके दोनों पैर हवा में थे। फिर उसने गोल गोल घूमते हुए डंडे को कभी इधर तो कभी उधर उछालते हुए उसे हवा में अधर रखा और हर बार जमीन पर गिरने से पहले ही दुबारा लपक लिया। वह बड़ी कुशलता से अपने करतब दिखा रहा था। डेविड ने डंडे को एक बार फिर हवा में काफी ऊपर उछाल दिया और खुद भी उछला , फिर न जाने क्या हुआ – डंडा फुटपाथ पर आ गिरा और डेविड गड्ढे में।। हवा में एक चीख गूंजी और फिर ख़ामोशी छा गई।

 

डेविड के दो साथी तुरंत गड्ढे में कूद गए। डेविड को  बाहर निकाल कर पटरी पर लिटा दिया गया। वह बेहोश था। रामभज पछता रहा था कि काश उसने डेविड से खेल दिखाने को न कहा होता। अब तुरंत कुछ करना था। उसने वहां से गुज़रती हुई एक कार को रोका फिर कई मजदूरों ने डेविड को सीट पर लिटा दिया। रामभज ने ड्राईवर से हॉस्पिटल चलने को कहा। साथ में डेविड के दो साथी भी थे। डॉक्टर ने डेविड को देखा और उसे एडमिट कर लिया । डॉक्टर ने कहा कि डेविड को ठीक होने में कई दिन लगने वाले थे।

 

 डॉक्टर ने दवा का परचा रामभज को थमा दिया। केमिस्ट की दुकान अंदर ही थी। दवाओं का बिल काफी ज्यादा था। रामभज की जेब में उतने पैसे नहीं थे। उसने केमिस्ट से कहा_ ‘मैं बाकी पैसे अभी लाकर देता हूँ।’ केमिस्ट मान गया। डेविड का एक साथी रामभज के साथ हॉस्पिटल में ही रहा। रामभज सोच रहा था कि अब क्या करे|  डेविड की मां गाँव में रहती थी। अब जो करना था उसे ही करना था। इलाज महंगा था। लेकिन डेविड को इस हालत में बेसहारा तो नहीं छोड़ा जा सकता था। डेविड के साथी ने कहा _’ अब क्या होगा। रामभज ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया_’ चिंता मत करो। कुछ न कुछ इंतजाम तो होगा ही। ‘

 

सुबह ड्यूटी से पहले हॉस्पिटल जाकर डेविड का हालचाल लिया। डॉक्टर से बात की । डॉक्टर ने कहा कि हालत पहले से ठीक है ,पर पूरी तरह ठीक होने में समय लगेगा। डेविड के एक साथी से रामभज ने हॉस्पिटल में ही रहने को कहा_’ काम की चिंता मत करो, ।अभी डेविड की देख भाल ज़रूरी है।  बाकी मैं संभाल लूँगा।’

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  वह ड्यूटी पर आ गया। हाथ अपना काम कर रहे थे, लेकिन मन में विचार घुमड़ रहे थे।आगे क्या होगा-- तभी दिमाग में एक विचार आया। वह कुछ पल बोर्ड की ओर देखता रहा_’जोकर काम पर ‘। फिर बढ़ कर नया कागज़ चिपका कर उस पर लिख दिया_ जोकर घायल है। उसे मदद चाहिए।

 

 यह लिख कर रामभज ड्यूटी में व्यस्त हो गया। तभी वहां एक कार आकर रुक गई। कार से उतर कर एक आदमी रामभज के पास आया। उसने कहा_’ यह जोकर का क्या मामला है?’ रामभज ने संक्षेप में पूरी बात बता दी।उस व्यक्ति ने कहा , “अस्पताल में दवाओं की दूकान मेरी ही है। मैं मदद करूंगा।” दवाएं आधी कीमत पर देने का वादा किया ।रामभज को  इसकी आशा नहीं थी।। एक बड़ी चिंता दूर हो गयी थी|

 

जल्दी ही  डेविड की तबियत में काफी सुधार हो गया। कुछ दिन बाद उसे हॉस्पिटल से छुट्टी मिल गई । वह ख़ुशी का दिन था। डेविड फुट पाथ पर कुर्सी पर बैठा था।रामभज और डेविड के साथी आसपास खड़े हंस रहे थे। ‘’ अब क्या इरादा है? ‘रामभज डेविड से पूछ रहा था।‘सोचता हूँ  गाँव चला जाऊं माँ के पास। उन्हें चिता हो रही होगी।’डेविड बोला|

 

हाँ, यही ठीक रहेगा।’_ रामभज ने कहा। डॉक्टर ने डेविड को कुछ दिन आराम करने की सलाह दी थी। रामभज उसी दिन डेविड को उसके गाँव छोड़ आया। डेविड को सही- सलामत देख कर उसकी माँ बहुत खुश हुई।एक साधारण झोंपड़ी थी पर साफ़ सुथरी। आगे फूल लगे थे, पीछे साग; भाजी की  क्यारियाँ। डेविड की माँ सब्जी बेच कर गुज़ारा करती थी। पहले डेविड शहर से पैसे भेज दिया करता था लेकिन सर्कस बंद होने से मुश्किल बढ़ गई थी।

 

रामभज समझ गया कि डेविड को जल्दी ही कोई काम-धंधा करना होगा। चलते समय उसने डेविड से कहा-‘ कुछ दिन आराम कर लो फिर शहर आ जाना। कुछ तो हो ही जाएगा। ‘ रामभज को तसल्ली थी कि एक बड़ी आफत दूर हो गई। घर जाकर वह पत्नी को डेविड के बारे में बताने लगा , तभी उसका बेटा रजत वहां आ गया। डेविड के बारे में सुन कर बोला-‘ पापा, हमारे स्कूल की बस रोज वहाँ से गुज़रती है जहां बोर्ड पर जोकर के बारे में लिखा हुआ है। हमारी क्लास ने जोकर भाई के लिए कुछ पैसे जमा किये हैं। हम पैसे उन्हे देना चाहते हैं।’

 

‘ लेकिन उसे तो मैं अभी-अभी उसके गाँव छोड़ कर आ रहा हूँ।’ पिता की यह बात सुनकर रजत कुछ देर चुप रहा फिर बोला-‘ तब उन पैसों का क्या करें?’रामभज समझ नहीं पा रहा था कि रजत से क्या कहे। अगले दिन स्कूल से लौटने के बाद रजत ने रामभज को बताया कि प्रिंसिपल सर ने कल उसे मिलने के लिए बुलाया है। अगले दिन रामभज जाकर रजत के प्रिंसिपल से मिला। उन्होंने कहा-‘ बच्चे गाँव जाकर डेविड से मिलना और उसे जमा की गई रकम देना चाहते हैं।’

 

रामभज जानता था कि डेविड इस तरह दान के पैसे कभी नहीं लेगा। पर उसने कुछ कहा नहीं ,वह बच्चों की टोली को डेविड के पास ले जाने को तैयार हो गया। प्रिंसिपल ने स्कूल की ओर  से बस का प्रबंध कर दिया था। बस डेविड के घर के सामने जाकर रुकी तो पूरे गाँव में हल्ला मच गया। बच्चों की टोली को देख कर डेविड और उसकी माँ तो ख़ुशी से जैसे पागल हो गए। बच्चों को डेविड से मिल कर बहुत अच्छा लगा। वे डेविड को पैसे देने को उतावले थे पर रामभज ने उन्हें मना कर दिया। विदा लेते समय उसने डेविड से कहा –‘ अब तुम ठीक हो गए हो। शहर आकर स्कूल के बच्चों से मिल लो। कुछ काम भी देखो।’

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कुछ दिन बाद डेविड गाँव से आ गया। रामभज उसे रजत के स्कूल ले गया। प्रिंसिपल ने ‘डेविड से कहा-‘ हमारे स्टूडेंट्स तुम्हारे सर्कस वाले करतब देखना चाहते हैं।’ डेविड राजी हो गया।

 

सर्दी का मौसम था। स्कूल के ग्राउंड पर गुनगुनी धूप बिखरी थी। पूरा स्कूल वहां जमा था। डेविड के लिए जोकर की पोशाक का बंदोबस्त कर लिया था। जोकर की पोशाक में डेविड सामने आया तो सब बच्चे तालियाँ बजाने लगे। डेविड को सर्कस के दिन याद आ गए । वह अपने करतब दिखाने लगा। पूरा ग्राउंड रह रह कर तालियों से गूंजने लगा। बाद में प्रिंसिपल ने उसे एक लिफाफा दिया। कहा_”’यह बच्चों की ओर से तुम्हारे लिए है। ‘

 

डेविड ने तुरंत लिफाफा लौटा दिया। बोला;’ मैं यह पैसे कभी नहीं ले सकता।’ अब रामभज को अपनी बात कहने का अवसर मिला। उसने कहा;’ ये पैसे तुम्हारे लिए नहीं हैं। ये  हैं तुम्हारी माँ और तुम्हारे मजदूर दोस्तों के लिए । उन लोगों ने रात दिन तुम्हारी देख भाल की है। क्या उनकी मदद  नहीं करोगे?और अभी हॉस्पिटल के केमिस्ट का उधार भी चुकाना है।’

 

प्रिंसिपल ने कहा-‘ डेविड, इसके लिए तुम्हे कुछ तो करना ही होगा। मैं कोशिश करूंगा कि दूसरे स्कूलों में भी तुम खेल दिखाओ। अपनी माँ और अपने दोस्तों की उसी तरह मदद करो जैसे उन्होंने तुम्हारी की है,’

 

सड़क की मरम्मत हो चुकी थी। रामभज की ड्यूटी कहीं और लग गई थी,लेकिन जोकर वाला बोर्ड अब भी वहीँ लगा था, उस पर जोकर की सुंदर ड्राइंग बनी थी। उसके नीचे लिखा था_ धन्यवाद|

                                                                                                           ( समाप्त )

Wednesday 8 December 2021

पानी जैसा मन-कहानी-देवेंद्र कुमार

 

          पानी जैसा मन-कहानी-देवेंद्र कुमार

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   गरमी का मौसम था। बादल आते गड़गड़ करते पर बिना बरसे चले जाते। नदी-तालाबों का पानी सूखने लगा। गरमी से बेहाल एक मेढ़क पानी और छायादार स्थान की तलाश में निकला। फुदकता हुआ झाडि़यों में जा पहुंचा। फिर जो उछला तो एक गढ्डे में जा गिरा। असल में वह था एक सूखा कुआं। झाडि़यों के बीच छिपा होने के कारण पता नहीं चल पाता था।

 

   कुएं की तली में पानी नहीं था, झाड़-झंखाड़ उगे थे। मेढक जान गया कि मुसीबत में आ फंसा। वह कई बार सूखे कुएं के बाहर निकलने की कोशिश में उछला,पर कुआं था गहरा। उछलता और गिर पड़ता। वह समझ न पाया कि क्या करे। तभी उसने एक आवाज सुनी।  कोई कह रहा था-अरे भाई, ऐसी भी क्या जल्दी है। थोड़ी देर बाद चले जाना।“

 

   ‘‘यह कौन बोला?’’ मेढ़क ने घबरा कर पूछा।

 

   ‘‘यह तो मैं हूं-सूखा कुआं, जिसमें तुम गलती से आ गिरे हो।’’ आवाज आई।

 

   भला कुआं भी बोलता है कभी।’’ मेढ़क सोच रहा था, न जाने क्या मामला है।

 

   ‘‘सबकी तरह कुआं भी बोल सकता है, पर आवाज बाहर नहीं जाती। तुम मेरे अंदर आ गिरे हो, इसीलिए मेरी आवाज सुन पा रहे हो।’’ सूखे कुएं ने कहा।

 

   सूखा कुआं बोलता रहा। उसने मेढ़क को बताया कि कभी उसमें खूब पानी था। एकदम ठंडा और मीठा। उधर से गुजरने वाले पथिक पानी पीने अवश्य ठहरते। कुएं के कारण ही लोग उस जंगल को  मीठे कुएं वाला जंगल कह कर पुकारने लगे थे।

 

   ‘‘तो फिर तुम्हारा पानी सूख कैसे गया?’’ मेढ़क ने पूछा।

 

   ‘‘क्या बताऊं। एक दिन जोर की आवाज हुई। धरती हिलने लगी। मैं भी कांप उठा। मेरी दीवारों में दरारें बन गईं और फिर देखते-देखते पानी न जाने कहां समा गया। वह दिन और आज का दिन इसी तरह सूखा पड़ा हूं। जब मेरा पानी सूख गया, तो उसके कुछ समय बाद से ही लोगों ने मेरे पास आना बंद कर दिया। शुरू-शुरू में मुझे राहगीरों की अचरज भरी आवाजें सुनाई देती थीं । लोग बोलते  _अरे, यह क्या! कुएं में एक बूंद भी पानी नहीं। और फिर धीरे-धीरे आवाजें भी बंद हो गईं। लोग इधर आते ही न थे।

 

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   मेढ़क को अपने बाबा की कही एक बात याद आ रही थी। उसने सूखे कुएं से कहा-‘‘दोस्त, कुछ ऐसी ही घटना मेरे बाबा के तालाब में भी हुई थी। मैं तो तब पैदा भी नहीं हुआ था। उन्हीं के मुंह से सुना था कि एक दिन भूकंप आया थ। धरती हिलने लगी थी और फिर उनके तालाब का पानी जैसे किसी जादू के जोर से सूख गया था। मुझे लगता है जिस भूकंप में मेरे बाबा का तालाब सूख गया था, शायद उसी में तुम्हारे साथ भी वैसा ही हुआ था।“

 

    सूखे कुएं ने कहा-‘‘हो सकता है तुम ठीक कह रहे हो। भूकंप तो आकर चला गया, पर लोगों ने मुझे इस तरह क्यों भुला दिया। अगर कोई मुसीबत में फंस जाए तो क्या उसे इसी तरह अकेला छोड़ देना चाहिए। मनुष्यों का यह कैसा विचित्र स्वभाव है।’’

 

   मेढक ने कहा-‘‘कुएं भाई, दुख न करो। दुनिया ऐसी ही है।’’

 

   कुछ देर वहां मौन छाया रहा। फिर जोर की आवाजें हुईं। धरती हिलने लगी, पेड़ गिरने लगे। जगह-जगह दरारें दिखाई देने लगीं।

 

   ‘‘भूकंप फिर आया।’’ दोनों के मुंह से निकला। ‘‘न जाने इस बार क्या होने वाला है।’’ कुएं की घबराई आवाज आई। फिर उसे कहीं पानी बहने की आवाज सुनाई दी। कुएं की दीवारों में जगह-जगह दरारें उभर आईं और पानी जोर से अंदर आने लगा। बात की बात में सूखा कुआं लबालब भर गया। जैसे पानी कुएं को छोड़कर गया था, वैसे ही लौट आया था।

 

   ‘‘पानी...पानी...’’ कुआं खुशी से चिल्लाया। पानी ऊपर तक आया तो मेढ़क को भी कैद से मुक्ति मिली।एक ही कूद में वह पानी से निकल कर सूखी जमीन पर आ गया। पर फिर जो इधर-उधर देखा तो होश उड़ गए। सब तरफ पेड़ गायब थे। धरती पर जगह-जगह चौड़ी -चौड़ी दरारें दिखाई दे रही थीं। बात की बात में वह स्थान जैसे कुछ और ही हो गया था। मेढक सोचने लगा-कुएं से तो बाहर निकल आया हूं, पर इस जगह से बचकर कैसे जाऊंगा। चौड़ी –चौड़ी दरारों को भला कैसे पार करूंगा।

 

   तभी उसने कुएं की खुशी भरी आवाज सुनी-‘‘मैं फिर से मीठे पानी का कुआं बन गया हूं। और यह तुम्हारे आने से हुआ है मेढ़क भाई। मैं बता नहीं सकता कि आज मैं कितना खुश हूं। बहुत खुश...अब लोग फिर से मेरे पास आने  लगेंगे। उन्हें मीठे पानी वाला कुआं फिर से याद आ जाएगा।’’ कुआं बोलता रहा, हंसता रहा, पर मेढक चुप था।वह घबराई दृष्टि से चारों ओर के भयानक उजाड़ को देख रहा था|

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   ‘‘मेढक भाई, चले गए क्या। बोलते क्यों नहीं? जरा मेरा पानी पीकर तो देखो। मैं जानता हूं यह पहले जितना ही मीठा हो गया होगा।’’

 

   मेढक ने कहा-‘‘मीठा पानी तुम्हें मुबारक हो दोस्त। लेकिन मुझे नहीं लगता कि अब कभी कोई इधर आ सकेगा।’’

 

   ‘‘क्यों...क्यों...ऐसा अशुभ क्यों कह रहे हो।’’ कुएं की आवाज में घबराहट थी।

   मेढक ने बता दिया कि जो भूकंप कुएं में पानी वापस ले आया था, उसने कुएं के आसपास का जंगल नष्ट कर दिया था। वह स्थान इतना उजाड़, इतना डरावना बन गया था कि कोई आदमी शायद ही कभी वहां तक जा सके। यह सुन कर कुआं उदास हो गया। फिर बोला-‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम मेरे साथ मजाक कर रहे हो। मेरा दिल न तोड़ो। अगर सचमुच ऐसा हुआ तो मुझे बहुत दुख होगा।’’

 

   मेढक ने कहा-‘‘कुएं भाई, तुम भी कितने विचित्र हो। अभी तक पानी न होने के दुख से दुखी थे, अब पानी वापस आ गया है तब भी तुम खुश नहीं हो। अरे, और क्या चाहिए कुएं को,यही न कि उसमें पानी भरा रहे।’’

 

   ‘‘हां, पानी हो और कोई उसे पीने वाला न हो तो कैसा लगेगा। भोजन हो पर उसे खाने वाला न हो। पानी का मन है मेरा। पानी का काम है प्यास बुझाना-मनुष्यों की, धरती की, पशु पक्षियों की। अगर वह ऐसा न कर सके तो उसका जीवन किस काम का।’’   और फिर मेढक ने धीमे-धीमे रोने की आवाज सुनी। सचमुच बहुत दुखी था कुआं।पहले पानी न होने का दुख था, और अब पानी का होना मन को पीड़ा दे रहा था। भरे हुए कुएं का दुख कौन दूर कर सकता था !     ( समाप्त)

 

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Sunday 5 December 2021

मैं भैया जैसी—देवेन्द्र कुमार—कहानी

 मैं भैया जैसीदेवेन्द्र कुमार—कहानी

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    ===हर बहन अपने भाई जैसी बनना चाहती है, रचना भी तो यही चाहती थी, लेकिन उसका भाई ऐसा नहीं चाहता, क्यों, किसलिए।।। 

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      === आखिर क्या हुआ था रचना को? बाज़ार में इस बारे में कई लोगों ने पूछा पर रामदास ने हाथ हिला दिया और ठेले को तेजी से धकेलता हुआ आगे चला गया। ठेले पर उसकी बेटी रचना बैठी थी। उसके माथे से खून निकल रहा था। रामदास बेटी को जल्दी से जल्दी डाक्टर के पास पहुँचाना चाहता था।                 कुछ देर बाद रचना की मरहम--पट्टी करवा कर लौटा तो उसने तसल्ली से लोगों को बताया कि गिरने                    से रचना को चोट लग गई थी। रामदास सब्जी बाज़ार में शाम के समय मलाई-कुल्फी का ठेला लगाता था। सब्जी के खरीदार उसकी कुल्फी भी चाव से खाते थे।

 

        बाज़ार में धन्नी ताई अपने सही भाव और तौल के लिए मशहूर थी। वह रचना से बहुत प्यार करती थी। रचना को भी धन्नी ताई अपनी दादी जैसी लगती थी। उन्होंने रचना के सिर पर हाथ फिराते  हुए पूछा –‘’ क्या हुआ बिटिया?’’

 

         रचना ने कहा—‘’दादी, मैं भैया... ’’ लेकिन वह अपनी बात पूरी नहीं कर पाई रामदास चिल्ला कर बोला—‘’क्या भैया भैया कर रही है।’’ और ठेले को तेजी से आगे बढ़ा दिया।  ठेले को घर के बाहर लगा कर वह रचना को लगभग घसीटता हुआ अंदर ले गया। वह बहुत गुस्से में था। रचना की माँ शोभा ने कहा  —‘‘एक तो बच्ची को इतनी चोट लगी है, ऊपर से तुम उसे इस तरह डांट रहे हो।’’

 

        रामदास ने कहा-- ‘’तुम्हें पता भी है कि मामला क्या है। यह धन्नी को अविनाश के बारे में बताने को ही थी कि मैंने रोक दिया, वर्ना पूरे बाज़ार में बदनामी हो जाती।’’  रचना की चोट के बारे में रामदास ने झूठ बोला था। रचना को चोट गिरने से नहीं लगी थी। रचना के भाई अविनाश ने उस पर गिलास फेंका था, जो उसके माथे से जा टकराया। रचना का माथा लहूलुहान हो गया। अविनाश रचना से चार साल बडा है। दोनों भाई-बहन हमेशा प्यार से रहते आये हैं, लेकिन इधर कुछ समय से अविनाश रचना से चिढने लगा है। रामदास और शोभा बेटे के इस बदले हुए व्यवहार का कारण नहीं समझ पा रहे थे। रचना भी हैरान थी।

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        कुछ समय पहले की घटना है। स्कूल में सीढियां उतरते समय अविनाश फिसल गया था। उसके  पैरों में चोट आ गई थी। दोनों पैरों पर प्लास्टर चढ़ने के कारण वह स्कूल नहीं जा पा रहा था। उसे दोस्तों के साथ मस्ती करना पसंद था,लेकिन अब तो घर से बाहर निकलना भी मुश्किल था। वह बैठा हुआ देखता रहता था कि घर के सारे काम पहले की तरह चल रहे हैं, जैसे उसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। शायद वह घर में होते हुए भी नहीं है। पर ऐसा बिलकुल नहीं था। माँ, पिता और रचना उसका पूरा ख्याल रखते थे। पर अविनाश सबसे नाराज़ ही रहता था, खास कर रचना से।  वह सदा गुनगुनाती रहती थी। रचना का गला सुरीला था। स्कूल की म्यूजिक प्रतियोगिता में वह कई बार पुरस्कार भी जीत चुकी थी।

 

          इस बार भी रचना कार्यक्रम की तैयारी कर रही थी। इसलिए वह स्कूल से आने के बाद भी  अभ्यास करती रहती थी। लेकिन अविनाश माँ से कहता था -–‘’मेरे सिर में दर्द होता है इसकी आवाज़ से, इससे कहो कहीं और जाकर गाना-–बजाना करे।’’  माँ ने उसे बहुत समझाया पर वह किसी भी तरह मानने को तैयार नहीं हुआ। भाई के इस बेतुके व्यवहार से रचना का मन बहुत दुखी हुआ। उसने सोच लिया कि इस बार प्रतियोगिता में भाग नहीं लेगी।

 

          रात को सब सो गए लेकिन रचना को नींद नहीं आ रही थी। अचानक उसकी रुलाई फूट पड़ी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अविनाश ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा था। माँ ने बेटी का रोना सुना तो पास आकर चुप कराने लगी। अविनाश भी जाग रहा था। रचना ने सिसकते हुए कहा—‘’भैया मुझसे इसीलिए खफा है न कि उसे चोट लगी है और मैं भली चंगी हूँ। लेकिन अब तो मैं भी भैया जैसी हो गई हूँ। क्या अब भी वह मुझ से नाराज रहेगा? ‘’ रचना के सिर में गिलास का कोना चुभने से गहरा घाव हो गया था। डाक्टर ने आराम करने की सलाह दी थी। वह भी स्कूल नहीं जा सकती थी।

 

       माँ ने पूछा-–‘’क्या तू धन्नी ताई से अविनाश की शिकायत करने वाली थी? तेरे बापू तो यही  बता रहे थे।’’

 

      ‘’ नहीं माँ, बापू ने गलत समझा। मैं कभी भैया की शिकायत नहीं कर सकती। मैं तो उनसे यही कह रही थी कि चोट लगने से मैं भी भैया जैसी हो गई। पर बापू पूरी बात सुने बिना ही गुस्सा हो गए।’’

फिर सन्नाटा हो गया। रचना की माँ सो गई पर रचना नहीं सो सकी। वह उठ कर अविनाश की चारपाई के पास जा खड़ी हुई। उसे लगा अविनाश सो गया है, पर वह जाग रहा था। उसने सुना—रचना धीरे धीरे कह रहीं थी—‘’भैया, अब तो गुस्सा छोड़ दो। देखो ना, अब तो मैं भी तुम्हारे जैसी हो गई हूँ। तुम यही तो चाहते थे।’’

 

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      एकाएक अविनाश उठ कर बैठ गया। उसने रचना का हाथ पकड़ लिया। उसकी उँगलियाँ काँप रही थीं। उसने रुंधे गले से कहा— ‘’नहीं रचना,कभी नहीं। मेरे जैसी कभी मत बनना। जैसी हो वैसी ही रहना। तुम्हें पता नहीं मैं कैसा हूँ। मैंने कितनी बार बापू की जेब से पैसे चुराए हैं। कई बार स्कूल से भाग कर दोस्तों के साथ फिल्म देखी है। उनके साथ सिगरेट पी है।’’ वह रो रहा था। रचना भाई से लिपट गई—‘’मेरा भैया बहुत अच्छा है। तुम कभी कोई गलत काम नहीं कर सकते।’’ दोनों की आँखों से आंसू बह रहे थे।

 

       उन दोनों की बातें माँ ने भी सुन ली थीं। वह आकर उन्हें प्यार करने लगी। अविनाश से कहा -–‘’बेटा,गलती सबसे होती है। तेरे बापू भी अपने बचपन की ऐसी ही बातें सुनाया करते हैं। जो हुआ उसे भूल जाओ, दोनों भाई-बहन प्यार से रहो।’’

 

       ‘’लेकिन माँ मैंने रचना के सिर पर गिलास फैंक कर मारा, इसे बहुत चोट लगी है।’’

 

        ‘’कहाँ है चोट! वह तो कब की ठीक हो गई।’’-- अँधेरे में रचना की हंसी सुनाई दी। माँ की हथेलियाँ दोनों के सिर सहला रही थीं।  ( समाप्त )

साल का पहला दिन—कहानी—देवेन्द्र कुमार

 

साल का पहला दिन—कहानी—देवेन्द्र कुमार    

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    तीन मार्च का दिन विशेष होता है जयंत और अचला परिवार के लिए।   उस दिन घर में दो उत्सव मनाये जाते हैं—पहला है घर के पुरखों यानि अक्षत और जूही के पापा जयंत  के  दादा-दादी और पिता तथा माँ के  जन्मदिन, और दूसरा है जयंत और बच्चों की मम्मी अचला की मैरिज एनिवर्सरी। 

 

  सो कर उठते ही अक्षत और  जूही  को अचला और जयंत की पुकार सुनाई देती है—‘हाथ मुंह धो कर दादा जी के कमरे में आ जाओ।  ’ वहां मेज पर चारों पुरखों  के फोटो रखे हुए हैं।   चित्रों पर फूलों की मालाएं चढ़ी  हैं।   हर फोटो के सामने दीपक जल रहा है।   हवा में अगरबत्ती की सुगंध फैली है।   अक्षत और जूही  सिर झुका कर चारों को प्रणाम करते हैं।   बच्चों ने उन चारों में से केवल अपनी दादी को देखा है बाकी किसी को नहीं।   कुछ देर चित्रों के सामने खड़े रहने के बाद, वे चुपचाप कमरे से बाहर आ जाते हैं।   दोनों एक ही बात सोच रहे हैं—क्या पापा के दादा-दादी और माँ और पिता  का जन्म ३ मार्च को हुआ था,लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है! पर यही तो  होता है, नहीं तो परिवार के चारों बड़ों का जन्म दिन एक ही दिन यानि ३ मार्च को क्यों मनाया जाता।   और मम्मी पापा की शादी की वर्ष गाँठ भी तो ३ मार्च को होती है। 

  

  अब दूसरे प्रोग्राम की बारी है।   दो रसोइयों को बाहर से बुलाया गया है।   आज के दिन अचला का सारा समय तो मेहमानों की अगवानी में ही बीत जायेगा।   बच्चों के चाचा और मामा के परिवारों  के काफी लोग आने वाले हैं।  एनिवर्सरी का कार्यक्रम सुबह के नाश्ते से शुरू होकर रात में केक काटने तक चलेगा।  सारा दिन  खूब धमाल मचने वाला है।   साढ़े आठ बजे तक सारे मेहमान आ चुके हैं।  ड्राइंग रूम में खिल खिल और शोर गूँज रहा है।   एक एक करके हर मेहमान दादाजी के कमरे में जाकर प्रणाम करता है।  इस तरह चारों पुरखों के सम्मिलित जन्मदिन का प्रोग्राम पूरा हो जाता है। 

 

    अब ब्रेक फ़ास्ट की बारी है।  कई स्वदिष्ठ व्यंजन बने हैं एक रसोइया दादाजी के कमरे में चार प्लेटों में हर व्यंजन का एक एक कौर रख कर ले जाता है और चित्रों के सामने रख देता है।  यही क्रिया लंच,दोपहर की चाय, डिनर और केक काटने के समय भी दोहराई जाती है।   जयंत का कहना है कि घर के बड़ों को आज बने हर व्यंजन का स्वाद लेना चाहिए। 

 

  अक्षत और जूही उलझन में हैं।   उन्हें पता है कि सुबह एक बार चित्रों को प्रणाम करने के बाद फिर कोई भी दादा जी के कमरे में नहीं झांकता।   हाँ रसोइया जरूर जाता है-व्यंजनों की प्लेटें रखने और उठाने के लिए।   रसोइये के दादाजी के कमरे में आने जाने के बीच अक्षत और जूही भी वहां कई बार जाते हैं।  और खड़े खड़े सोचते रहते हैं- क्या इन चारों पुरखों को मम्मी पापा के  मैरिज एनिवर्सरी प्रोग्राम में शामिल नहीं होना चाहिए।  उनका सोचना है कि पुरखों के चित्रों को बाहर हाल में  सबके बीच तो रखा ही जा सकता है। 

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  कैमरों की क्लिक,रंगारंग रोशनियों, संगीत के सुरों और शानदार दावत के साथ कार्यक्रम पूरा हुआ।   मेहमान विदा हुए तो आधी रात बीत चुकी थी।   अगला दिन रविवार था।   आराम से चाय की चुस्कियां लेते हुए जयंत और अचला विवाह की वर्षगाँठ समारोह की चर्चा कर रहे थे।  तभी अक्षत ने कहा-‘पापा, 

‘क्या हमारे चारों पुरखों का जन्म एक ही दिन यानि ३ मार्च को हुआ था?

 

  ‘यह तुमसे किसने कहा कि मेरे दादा दादी और माता पिता ३ मार्च को  जन्मे थे।  ’-जयंत ने कुछ आश्चर्य से कहा। 

 

  ‘कल हमने पुरखों  का जन्म दिन और अपने विवाह की वर्षगाँठ एक साथ जो  मनाई थी।  उससे तो किसी को भी ऐसा ही लग सकता है।  ’-अचला ने कहा। 

  जयंत ने कहा-‘अक्षत और जूही, मेरे दादा –दादी के जन्मदिन की तारीख मुझे पता नहीं।   हाँ अपने माँ बाप के जन्मदिन की तिथि जरूर पता है’।  ३मर्च को पुरखों का जन्म दिन और अपने विवाह की वर्ष गाँठ एक साथ मनाने के पीछे यही भाव है कि हमारे सगे सम्बन्धी दोनों में शामिल हो सकें। 

   

  ‘ अगर यही बात है तो चारों पुरखों के फोटोग्राफ हाल में सबके बीच होने चाहिएं।  ’जूही ने अपनी राय दी। 

 

   ‘बच्चों की बात में दम है।  ’-अचला ने बच्चों का साथ दिया। 

   ‘तो अगली बार से ऐसा ही होगा।  ’जयंत बोले। 

 

    क्या किसी तरह आप अपने  दादा दादी की जन्म तिथि  का पता लगा सकते हैं?’-अचला ने पूछा। 

 

  ‘मेरे दादा के मित्र जयराज जी से कुछ दिन पहले ही मेरी बात हुई थी।  वे भी बहुत बूढ़े हैं,शायद उन्हें इस बारे में कुछ पता हो।   कहो तो दिन में जाकर  उनसे मिल आऊँ।  ’ जयंत ने अचला से पूछा। 

 

  ‘जरूर जाइए।  ’ माँ के बोलने से पहले ही अक्षत और जूही बोल उठे। 

 

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  दोपहर में जयंत जयराज जी से मिलने चले गए।   तीन चार घंटे बाद लौटे तो उन्होंने बताया-‘ मैं उनसे मिला तो सही पर वह मेरे दादा जविनाश जी की जन्म तिथि के बारे में कुछ नहीं बता सके।   उन्होंने कहा कि उन्हें तो अपनी ही जन्म तिथि याद नहीं है।   पर मैंने उनसे वादा करा लिया है कि वह अगले रविवार को हमारे घर आएंगे। 

 

  ‘वाह! तब तो उनसे मिल कर खूब मजा आएगा।   वह आपके दादाजी के बारे में ऐसी बातें  बता सकते हैं जिन्हें आप ने भी कभी न सुना हो।  ’-अक्षत और जूही ने ख़ुशी भरे स्वर में कहा। 

 

  रविवार का दिन विशेष था; दोपहर को जयंत जयराज जी  को लेकर आये।  उनके साथ एक वृद्ध महिला और थीं।   अचला ने उन वृद्ध महिला को सहारा देकर सोफे पर बैठा दिया।  वह हांफ रही थीं।                                                   

अचला ने उन्हें ग्लूकोज मिला पानी पिलाया।   कुछ देर में वह सामान्य हो गईं।  पता चला कि उनका नाम कीर्तन देवी है।  और वह जयंत की दादी उर्मिला जी के बचपन की सहेली थीं। 

 

  जयंत ने बताया कि जयराज जी ही उन्हें साथ लाये हैं।  अक्षत और जूही ने दोनों के पैर छू कर आशीर्वाद लिया।   जूही ने वृद्धा से पूछा –‘दादी  ,आप का यह नाम कैसे पड़ा?’

  वृद्धा ने बताया-‘ मेरे जन्म के समय घर में कीर्तन हो रहा था।   बस मेरा नाम कीर्तन देवी रख दिया गया।  ’कह कर वह पोपले मुंह से हंस दीं। 

 

  जयंत बोले-‘ मुझे तो आज पता चला है कि आप मेरी दादी की पक्की सहेली थीं।  ’ इतने में अचला जयंत के दादा और दादी के चित्र ले आई।  जयराज जी और कीर्तन देवी ने उन चित्रों को सीने से लगा लिया।   बच्चों ने देखा कि जयराज जी और कीर्तन देवी की आँखों में आंसू झलक रहे थे।  दोनों बारी बारी से चित्रों को चूम रहे थे।  कुछ देर बाद जयंत जयराज जी और कीर्तन देवी को  उनके घर छोड़ने चले गए।   उनके लौटने तक अक्षत और जूही माँ अचला से बातें करते रहे। 

  

    जयंत के लौटने के बाद अचला ने पति से कहा-‘बच्चे सोचते हैं कि पुरखों का जन्मदिन और हमारे विवाह की वर्ष गाँठ के उत्सव  अलग अलग दिन मनाने चाहियें।  मुझे भी इनकी बात ठीक लगती है। 

 

  ‘अब तो दोनों ही उत्सव बीत गए हैं,जो कुछ होगा अगले वर्ष ही हो सकता है।  ’-जयंत ने कहा।  ’तीन   मार्च हमारे विवाह की वर्ष गाँठ का दिन होता है,अगर पुरखों का जन्मदिन अलग से मनाना है तो उसे किस दिन मनाया जाये,यह कैसे तय होगा। 

 

 ‘हमने सोच लिया है।  ’-अक्षत और जूही ने कहा-‘ नए वर्ष का  पहला दिन इसके लिए सबसे अच्छा रहेगा। 

 

  ‘नए वर्ष का पहला दिन मतलब एक जनवरी।   वाह, क्या आईडिया है।  ’जयंत बोले ’पर अगले वर्ष की एक जनवरी तो 9 महीने बाद ही आएगी।   उसके लिए तो लम्बा इन्तजार करना होगा। 

 

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  ‘नहीं,बच्चे चाहते हैं कि पुरखों का नया जन्मदिन अगले या उसके बाद वाले रविवार को ही मनाया जाए।  ’-अचला ने कहा।   ‘और उस उत्सव में जयराज  जी और कीर्तन देवी को जरूर बुलाया जाये,   साथ में वे मेहमान भी रहें जो कल की हमारी  विवाह वार्षिकी आये थे। 

 

  प्रोग्राम बन गया।   परिवार के पुरखों का पहला नया जन्मदिन अगले रविवार को मनाया गया।   चारों के फोटोग्राफ ड्राइंग रूम की  मेज पर रखे गए।   सब कुछ पहले की तरह हुआ।   मेहमानों में जय्रराज जी  और कीर्तन देवी भी मौजूद थे।  सब लोग उनके संस्मरण सुनते और तालियाँ बजाते रहे।   सबसे ज्यादा खुश थे अक्षत और जूही।   (समाप्त )