Sunday 7 February 2016

कहानी: उसकी डायरी

                                                  उसकी डायरी

हमें ट्रेन का इंतजार था। सर्दी की सांझ। सूरज डूबने से बहुत देर पहले ही हवा ठण्डी हो गई थी और अब तो अंधेरा भी अच्छी तरह घुल चुका था। लम्बे प्लेटफार्म पर हवा-पानी से बचने का कोई इंतजाम नहीं था। रोशनी थी, लेकिन प्लेटफार्म के दोनों छोरोंको बांधकर जलते बल्बों के आसपास ही लटक कर रह गई थी।
मैं, पत्नी और बच्चे झूरा के मेले से लौट रहे थे। हम शाम से काफी पहले चल दिए थे। पहले सूना प्लेटफार्म डरा रहा था और अब यह फिक्र थी कि सर्दी की रात में घर के दरवाजों की तरह मजबूती से बंद कपाटों से कैसे अंदर घुसा जाएगा-चिरौरी या जबरदस्ती किसका सहारा लेना होगा, इस बारे में भी कुछ नहीं कहा जा सकता था। क्योंकि उस छोटे स्टेशन पर गाड़ी कुल जमा दो मिनट रुकती थी। भीड़ थी कि बढ़ती ही जा रही थी।
प्लेटफार्म पर दहकती अंगीठी के चारों ओर आ जुटे भाग्यशाली लोगों को चाय वाला किस्सागोई के अंदाज में बता रहा था कि पीछे ऊसर में बरसाती पानी पिछले सौ सालों से ठहरा हुआ है। एक बड़ी झील बन गई है। सर्दियों में बर्फ जम जाती है। कहते हैं, आधी रात को परियां उतरती हैं वहां।
गाड़ी आई, उस अफरातफरी के बीच बच्चों को संभालते-घसीटते हम कैसे और कब ठसाठस डिब्बे में समा गए इसका होश बाद में आया। ट्रेन ने रफ्तार पकड़ ली थी। अंदर लोग आराम से ऊंघ रहे थे। एक  चौकड़ी ने सामान इधर-उधर खिसका कर ताश के लिए जगह निकाल ली थी। धुएं से हवा भारी थी। गलियारे के पड़े सामान को लांघती पत्नी  निंदासे  बच्चों को संभालती हुई अंदर की तरफ ही बढ़ती हजा रही थी।
थोड़ी देर बाद अंदर से पत्नी का संकेत मिला। यानी बच्चों को लिटाने के बाद मेरे लिए भी जगह निकाल ली गई थी। दरवाजे के पास हल्की-फुरफुरी जगाने वाली ठंडी हवा आकर टकरा रही थी, लेकिन मेरा मन अंदर की तरफ बढ़कर सीट लेने का न हुआ। कंधे पर लटके झोले में मेरे प्रिय लेखक की नई पुस्तक थी। मैंने पत्नी के संकेत का जवाब कुछ इस तरह दिया कि हां और न दोनो समझे जा सकते थे। थोड़ी देर बाद पत्नी का दिखाई देना बन्द हो गया। शायद वह भी वहीं कहीं आराम से ऊंघने लगी थी।
मैंने उपन्यास खोल लिया। डिब्बे में चुप्पी पसरी थी। बस, कभी-कभी ताश के खिलाडि़यों का दबा ठहाका गूंज जाता। किसी बच्चे के कुनमुनाने की आवाज आती, तभी उसे कोई अलसाई हुई थपकी शांत कर देती। लगा जैसे पूरी गाड़ी में कोई नहीं हैं, मैं अकेला हो अंतहीन निशीथ यात्रा पर निकल पड़ा हूं।
दो स्टेशन पीछे गुजर गए- नए स्टेशन पर दरवाजा तेजी से धकेला गया। खट-खट करते हुए कुछ लोग अंदर घुस आए। कोई भारी चीज अंदर घसीटी गई और गाड़ी फिर चल दी। वे तीन थे- दो सिपाही अैर लाल वर्दी वाला एक कुली। वे मुस्करा रहे थे, शायद इसलिए कि उतनी सर्दी में कितनी आसानी से डिब्बे में घुस आए थे। लेकिन इन लोगों को कब किस जगह दिक्कत होती है भला!
एक के हाथ में कोई पुरानी-सी किताब या डायरी थी। उसी के पन्ने उलट-पलटकर पढ़ना शुरू कर दिया उसने। बाकी दोनों ध्यान से सुन रहे थे। उनके संवाद नजदीक से फेंके गए ढेलों की तरह मेरे कानों से टकरा रहे थे। सुने बिना रहा नहीं जा रहा था। न जाने किसकी बात थी। कोई  प्रेम -वेम का चक्कर था। आखिर मैं पढ़ने में मन रमा नहीं सका। अब कोफ्त हो रही थी। इससे तो कहीं सीट पर बैठकर ऊंघना ही बेहतर था।
एकाएक भारी बूटों वाली टांगों के बीच से फर्श पर नजर गई। वहां कोई लेटा था-चुपचाप। शायद सो रहा था। वहां से मुझे उसकी देह धारियों में बंटी दिखाई दे रही थी। इखरे-बिखरे बाल, बदन पर आधी बांहों वाली बनियान (हां, उतनी सर्दी में भी), और काली पैंट। पट्टी वाली चप्पलें सिर के पास ही रखी दिखाई दीं। कुछ उलझन हुई। ऊं हूं। कोई भी भला आदमी सोया नहीं रह सकता इस तरह। जरूर बेहोश है, शायद जमकर मारपीट की गई है।
सिपाही पढ़ रहा था- ‘‘मैं तुम्हें देखता हूं और बहुत-सी बातें उभरती हैं मन में-मजनूं था साला।’’
बाकी दोनों ने उसकी हंसी में खुलकर साथ दिया। फिर कुली ने कहा, ‘‘आगे पढ़ो न।’’
‘‘अरे, वही सब ऊलजलूल लिख है। सारी डायरी इश्क-मुहब्बत की बातों से भरी हुई है इस हद तक पागल था कि अपना नाम-पता भी नहीं लिखा। देखो, क्या ख़त लिखा है अपनी माशूका के नाम- ‘‘तुम मुझे चाहती हो, लेकिन घर की दीवारें रोटी-रोटी पुकारती है। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं? नहीं, नहीं, तुम क्या बताओेगी, मुझे ही करना होगा कुछ।’’
‘‘हां, करना होगा। कर तो लिया स्साले।’’ यह दूसरी आवाज थी।
एकाएक मेरी निगाह स्ट्रेचर पर लेटे आदमी के पैर पर गई जो बड़े अजीब ढंग से मुड़कर कानों के पास आया था। मैं आगे बढ़कर झांकने से नहीं रोक सका अपने को- स्ट्रेचर पर एक क्षत-विक्षत शव पड़ा था। मेरा मन तो पहले ही कह रहा था कि कोई भी इन भारी बूट वाले पैरों के तले इस तरह सोया नहीं रह सकता।
दो स्टेशन पहले, दिन में एक लड़का  ट्रेन से कट गया था। उसी का शव शहर ले जाया जा रहा था। उसका नाम पता कुछ भी मालूम नहीं था। जेब में मिली थी एक डायरी और कुछ बीडि़यां। और बस...
डायरी के पन्ने उलटे-पलटे जा रहे थे- शहर की एक गंदी बस्ती में रहता था वह। हैसियत में अपने से ऊंची लड़की से मोहब्बत थी। गरीब बेचारा, भला क्या खाकर इश्क लड़ाता। मुश्किलें बहुत थीं, शायद इसकी माशूका इसे हमेशा के लिए छोड़कर कहीं जा रही थी। उसका साथ न दे पाने के गम में कटकर जान दे दी थी।
लेकिन-उसके साथ यह सब नहीं भी तो हो सकता था। कहानी एक दूसरी तरह से भी कही और सोची जा सकती थी।
कुछ दिन पहले की ही एक शाम थी। वह रोज की तरह दिन ढले घर लौटा था। गली में बत्तियां जल चुकी थीं। उसने चोर नजर से इधर-उधर ताका, फिर बीड़ी नाली में फेंक कर घर में घुस गया। उसने दरवाजे को जोर से ठोकर मार दी थी। पल्ला तेजी से दीवार से जा टकराया। अब वह कुछ थमा। इधर कई दिनों से यह महसूस कर रहा था कि शाम को घर में घुसते समय उसका गुस्सा अदबदाकर दरवाजे पर ही उतरता था। लेकिन इससे क्या होने वाला था भला। उसने दरवाजे को धीरे से छुआ फिर कुछ हंसकर अंदर चला गया।
आंगन में मां बैठी थी-सुबह के बुझे कोयलों में कुछ टटोलती हुई। घर में कहीं गरमी नहीं थी। अंधेरे कोठे में बहन की आहट मिल रही थी। मां ने उसे आया देख, सिर उठाया, फिर बिना कुछ कहे अपना काम करने लगी। बहन कोठरी से निकली। उसने दिन बिताकर लौटे भाई की तरफ देखा नहीं, झट से रसोईघर में जाकर एक गिलास पानी ले आई और सामने रख दिया। लड़के के होंठों पर चिपकी मुस्कान अभी पुंछी नहीं थी। मां-बेटी की होशियारी खूब समझता है वह। सर्दी के मौसम में क्या पानी दिया जाता है सुबह सेगए और दिन ढले घर लौटे आदमी को? लेकिन इस तरह वे कई बातें बताना घाहती हैं, जिन्हें क्या वह नहीं समझता। यही कि घर में चीनी, पत्ती, चाय- कुछ नहीं हैं लेकिन पानी देखकर उसे लगता है कि इसकी चाय भी बन सकती थी अगर घर में कोई बनाना चाहता हो?
उसने गिलास उठाया और खाली कर दिया, उसी तरह जेसे कल्लू की दुकान में लोग गटागट चढ़ा जाते हैं, फिर हथेली से होंठ पोंछता हुआ उठ खड़ा हुआ। सचमुच उसे अपना सिर भारी लगने लगा था। शायद पानी में कुछ था।
ये घर वाले भी बस- में क्या इनके दुःख समझता नहीं। दुनिया से कुछ अलग कष्ट तो है
 नहीं। सब जानते हैं आकाश में अंधेरा होने के बाद भी घर में उजाला क्यों नही होता-पतीलियों में छन-छन क्योंनहीं बजती और तवे पर घी जलने की सोंधी महक... घर की हवा इनकी रूखी, उखड़ी-उखड़ी क्यों रहती है।
इस समय सब कुछ भहरा कर उसी के कंधों पर आ टिका था, लेकिन किया-धरा सब उसके बाप का ही था। खुद तो मर गया, लेकिन मुसीबत छोड़ गया। जीते-जी घर की परवाह नहीं की। जाने किन चक्करों में रहता था। रात-रात भर घर की तरफ न फटकता। कई बार तो वह और मां उसे न जाने कहां-कहां से लेकर आते थे।
धीरे-धीरे मां की बुझी उम्मीदें उसे देखकर सुगबुगाने लगी थी। वह इस बोझ को बाप के जिंदा रहते ही अपने कंधों पर बढ़ता हुआ महसूस करने लगा था। पढ़ाई न चल सकी। फीस के पैसे कौड़ी-कैाड़ी करके जुड़ते और वह एक ही शाम में उड़ा डालता। यह मालूम जो था कि घर में बाप उससे कुछ नहीं पूछ सकता।
एक रात ज बवह भी बाप की तरह लौटा था तो मां ने एक चांटा रसीद कर दिया थ उस। बोली थी- ‘‘आज आने दे उनको। देख तो सही क्या दुर्गति करवाती हूं तेरी।’’
जवाब में वह मुस्करा कर रह गया था और मां एकदम सकपका कर भीतर चली गई थी। मां की वह समझ पिता की मृत्यु के बाद हर दिन बीतने के साथ-साथ बढ़ती जा रही थी और अब इतनी हो चुकी थी कि कभी-कभी वह खुद डर जाता था।
व्ह पानी पीकर चौक में पड़ी खरहरी खाट पर पसर गया। फीकी कालिमा वाले आकाश में तारों के गुच्छे लटक रहे थे। अब वह रसोईघर में खटपट सुन रहा था। यों आज उसकी जेब में पैसे थे, पर उसने निकाले नहीं.  सविता ने दिये थे।
वह स्कूल सेभागे आवारा लड़के के रूप् में बदनाम था। मोहल्ले की लड़कियां उससे बचकर चलती थीं, लेकिन सविता को उसमें न जाने क्या नजर आया था। वह हर सुबह 8:15 पर विश्वविद्यालय जाने वाली स्पेशल बस के स्टैंड पर खड़ा रहता था। बस आई और चलने लगी, तो एक लड़की नहीं चढ़ पाई। बाद में उसका नाम सविता मालूम हुआ था। वह इसी बात पर कंडक्टर से उलझ पड़ा था। मार-पिटाई तक की नौबत आ गई थी। बस सविता को लेकर चली गई थी। वह वहीं खड़ा रह गया था। उसका क्रम वहीं रहा था, लेकिन सविता का मन जरूर बदल गया था। शुरू-शुरू में उन दोनां में कुछ मामूली बातें शुरू हुई थीं जो लंबी होती चली गई थीं।
   वे अक्सर मिलने लगे थे। एक-दो बार सविता से मिलने वह यूनिवर्सिटी भी चला गया था। वहां के किताबी माहौल में उसे अपनी बदहाली पर बड़ा संकोच हुआ था, लेकिन सविता न जाने क्या देख रही थी उसमें। इन कालिज की लड़कियों का दिमाग भी न जाने कैसे चलता है! यह कहने की बात नहीं है कि सविता के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी थी।
कई सुनसान, अलस दोपहरियां उन्होंने रिज के ऊपर वाले पार्क में गुजारी थीं इधर-उधर की बातें करते हुए-ऐसी बातें जिसा सिर-पैर नहीं होता था। जैसे एक बार उसने सविता से कहा था-‘‘आओ हम भाग चलें।’’
सबिता मीठी हंसी वाली आंखों से उसे देखती रही थी, फिर कहा था-‘‘ठीक है, हम पार्क के दरवाजे तक दौड़कर जाएंगे।’’
‘‘और उससे आगे?’’ उसने हांफते हुए पूछा था। नीले कंच आकाश में तेज झोके से उड़े पत्ते चकफेरियां खाते हुए नीचे गिर रहे थे।
‘‘मैं तो उससे आगे भी जा सकती हूं, लेकिन तुम्हीं छिटक कर परे हो जाओगे। यह मैं जानती हूं अच्छी तरह।’’
‘‘छोड़ो।’’ उसका मन बुझ गया था। सच ही तो कह रही थी सविता।
उस रोज वह ज्यादा परेशान था। मकान मालिक ने धमकी दी थी अगर रात को पूरा किराया अदा न किया तो वह बिस्तर-बोरिया उठाकर सड़क पर फंेक देगा। उसका भी भला क्या कसूर था। किराया भी कुछ कम नहीं, पूरे ग्यारह महीने का था। मां-बहन और वह आज, कल; आज करते हुए इतने दिनों तक टाल सके थे, लेकिन आज...
सविता ने बातों-बातों में यह बात उसके अंदर से निकलवा ली थी, फिर रुपए देने चाहे , तो वह बिगड़ उठा था बेतरह। सविता ने याचना की, नाराज होने का डर दिखाया, पर उसने नहीं लिए थे। शायद उसे मालूम था कि इसके बाद सीधा खड़ा नहीं रह सकेगा। चाय के पैसे सविता द्वारा देने पर उसने ऐतराज नहीं किया था। पैसे थे भी कहां उसके पास।
असल में तो पूरी दुनिया से भिड़ जाना चाहता था वह। जानना चाहता था कि इससे क्या होगा? रात को भरा-भरा मकान मालिक के आने की प्रतीक्षा करता रहा था। मां से कहकर अपनी मनपसंद सब्जी बनवाई थी। उन लम्हों में घर की हवा कुछ बदली थी। मकान मालिक रात को नहीं आया। यही खैर रही। सुबह वह मुंहअंधेरे घर से निकल पड़ा था।
लेकिन इस तरह हमेशा तो नहीं चल सकता था। और नहीं चला। बहन के बारे में कुछ उल्टी-सीधी बातें उसके कानों में पड़ी थीं। इधर वह एक तेल व्यापारी के लड़के को पढ़ाने जाने लगी थी। उसने डांटकर मना कर दियाथा उधर जाने से।
दो-तीन बाद वह बाजार से जा रहा था, सो कुछ लोगों ने पकड़कर उसे पीटना शुरू कर दिया था। बेतरह मारा था। उसके दिमाग में कहने-करने को बहुत कुछ था, लेकिन हाथ-पैरों ने साथ नहीं दिया था। चार दिन बाद वह घर से निकला। बीच में सविता आई और बाहर से लौट गई। बहन फिर से पढ़ाने जाने लगी थी।
पांचवें दिन वह रोज की तरह बस स्टैंड पर खड़ा सविता की प्रतीक्षा कर रहा था।
ऐसा नहीं कि उसने कोशिश नहीं की थी। कल्लू उस्ताद की दुकान पर सुबह से रात तक हाड़-तोड़ मेहनत-मशक्कत, फिर कविता  के दिए पैसों से कपड़े के दो थान कंधे पर डालकर गरम दोपहरी में सूनी सड़कों के चक्कर लगाए थे, लेकिन...
इधर अपने अंदर जलती लपट उसे कुछ कम होती लग रही थी। अक्सर ही सविता का सलोना, बड़ी-बड़ी कौतुकमयी आंखों वाला चेहरा आ जाता सामने और देर-देर तक ठहरा रहता। तब वह कुछ न कर पाता। एक रोज मिलने पर यही कह दिया था उसने- मैं चाहता हूं, अब मैं और तुम अलग-अलग हो जाएं।’’
‘‘हम साथ चले ही कब थे?’’
‘‘हां, तुम्हारे साथ होते समय मुझे वहम हो जाता है। लगता है, अब करने को कुछ है नहीं। न जाने क्या पा लिया है मैंने।’’
इसके बाद कई दिनों तक वे नहीं मिले थे। और अब मुलाकात हुई तो सविता ने खबर दी थी कि वह विदेश में बसे अपने चाचाजी के पास जा रही है। वहीं रहकर पढ़ने का इरादा है। अगले दिन शाम की गाड़ी से बंबई जाना है। वहीं से फ्लाइट है।
विदा के समय कुछ नहीं बोला था वह। सविता ने सब कुछ जान कर ही निर्णय लिया था शायद। दोनों बिना हाथ हिलाए विदा हो गए थे।
शाम को वह और दिनों से कुछ जल्दी घर में घुसा था। सारा दिन कल्लू उस्ताद की दुकान पर खटने से कुछ पैसे मिले थे। मां कोयले बीन रही थी और बहन अंदर की कोठरी के नीमअंधेरे में न जाने क्या कर रही थी। कितने अर्से बाद उस दिन चाय की फरमाइश की थी उसने। मां फुर्ती से उठ खड़ी हुई थी।
खाना खाकर वह छत पर चला गया। वही ठण्डी रोषनी वाले तारे गुच्छों की तरह झूल रहे थे। हवा में हल्की खुनकी थी। वह बेवजह बैठा रहा था अपनी प्रिय गजल गुनगुनाता हुआ, फिर न जाने कब नींद आ गई थी।
सविता की गाड़ी शाम को जाती थी। सारा दिन दुकान परकाम किया, फिर नहा-धोकर स्टेशन जा पहुंचा। लेकिन सविता से मिला नहीं। सविता की आंखें इधर-उधर उसे ढूंढ़ती मालूम दीं तो बुक स्टाल की आड़ में हो गया।
गाड़ी सीटी देकर रेंगने लगी, फिर चाल तेजी होती गई। वह जैसे तन्द्रा से जगा और पीछे-पीछे भागने लगा, भागता चला गया। इसके बाद किसी ने नहीं देखा उसे। बाद में पटरी पर लाश मिली थी।
दोनों सिपाही थक कर ऊंघ रहे थे। डायरी लाश के पास यूं ही फेंक दी गई थी। गाड़ी की चाल धीमी होती जा रही थी। कुली ने दरवाजा खोला और बाहर देखने लगा।
मेरे पीछे भी सुगबुगाहट होने लगी। लोग बच्चों को जगाने के बाद भारी सामान घसीटते हुए दरवाजे की तरफ बढ़ते जा रहे थे। कुली ने स्ट्रेचर की छड़ से बंधी रस्सी थाम ली। तीनों उतरने को तैयार हो गए।
इतनी बातें आप से कह दीं, पर एक बात बताना तो भूल गया। असल में यह डायरी उस लड़के की नहीं, जिसका शव सामने पड़ा है। यह लड़का वह नहीं, जिसकी डायरी है। यह तो कोई और है। पता नहीं कैसे मर गया। मुझे इससे पूरी हमदर्दी है। दोनों सिपाही और कुली खामख्वाह इसे डायरी से जोड़ बैठे हैं।
ये लोग डायरी पढ़कर बेवजह कह रहे हैं कि उसने गाड़ी से कटकर जान दे दी। मैं अच्छी तरह जाना हूं। वह इस तरह नहीं मर सकता था। इससे पहले भी तो कितनी मौतें मरते-मरते छिटककर दूर निकल आया था वह। कम-से-कम अपने लिए मरने का मा, जिसकी डायरी है। यह तो कोई और है। पता नहीं कैसे मर गया। मुझे इससे पूरी हमदर्दी है। दोनों सिपाही और कुली खामख्वाह इसे डायरी से जोड़ बैठे हैं।
ये लोग डायरी पढ़कर बेवजह कह रहे हैं कि उसने गाड़ी से कटकर जान दे दी। मैं अच्छी तरह जाना हूं। वह इस तरह नहीं मर सकता था। इससे पहले भी तो कितनी मौतें मरते-मरते छिटककर दूर निकल आया था वह। कम-से-कम अपने लिए मरने का माद्दा तो नहीं था उसमें।
गाड़ी रुकते ही कुली व सिपाहियों ने मिलकर स्ट्रेचर को उतार लिया, फिर कुली स्ट्रेचर से बंधी रस्सी खींचता हुआ आंखों से ओझल हो गया। काफी लोग उतर गए। हम अगले स्टेशन पर उतरेंगे। मैं फिर कहता हूं, यह वह नहीं है। डायरी पर नाम-पता तो है नहीं, वह किसी की भी हो सकती है। ( समाप्त )

Friday 5 February 2016

कहानी: अचार

                                    अचार 
मैं अचार कभी नहीं खाऊंगा, यह कसम उठाने से भी अब छुटकारा मिलने वाला नहीं था। गर्मी की उमस भरी शाम भीड़-भाड़ भरे सब्जी बाजार में कैसी हो सकती है, इसे कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है।
वैसे गलती मेरी ही थी। पिछली शाम को भोजन करते हुए मैंने अचार मांग लिया। बस, आफत शुरू हो गई। पत्नी ने हठ ठान ली कि तुरंत बाजार जाकर आम लाने हैं और अचार डालना है।
‘‘
तो ठीक है।’’ मैंने कहकर टालना चाहा था।
‘‘
बाजार से कच्चे आम लाने होंगे।’’
‘‘
हूँ।’’
अगली शाम दफ्तर से आया तो उन्होंने मेरे हाथ में एक बड़ा थैला और तौलिया थमा दिया।
‘‘
यह तौलिया किसलिए। क्या हम नदी पर नहाने जा रहे हैं?’’ मैंने हँसकर बात को हल्का करना चाहा था।
‘‘
आम खरीदकर धोना, पोंछना और फिर कटवाकर लाने होंगे। आम का अचार क्या ऐसे ही मिल जाएगा?’’ एक गंभीर स्वर आया।
कार्यक्रम बन चुका था। अब मेरे कंधों पर टिकाकर उस पर अमल होना था।
मैंने उमस और भीषण गर्मी की आड़ में छिपना चाहा लेकिन कुछ देर बाद मैं और वह बाजार की ओर बढ़ रहे थे
सब्जी बाजार में सामान्य से अधिक यानी बेहद भीड़ थी। शायद लोग समझते थे, सब्जी वहाँ फ्री मिलती थी। संकरी सड़क के दोनों ओर फुटपाथों पर और उनसे पीछे सब्जियों के ढेर लगे थे। सब्जी वालों ने फुटपाथ से आगे बढ़कर सड़क पर काफी हिस्सा घेर रखा था। बची हुई संकरी सड़क-पट्टी पर ट्रैफिक पी.पी. करता रेंग रहा था। सब्जी बेचने वाले अलग-अलग सुरों में बोलियां बोल रहे थे। और मैं सब तरफ से धकियाता हुआ मेले में भटके हुए बच्चे की तरह चौंधियाई आंखों से देखता सोच रहा था- अचार! कैसे पड़ेगा अचार!
‘‘
भई, मैं नहीं रुक सकता। थोड़ी देर यहाँ रहा तो पागल हो जाऊंगा। अच्छा यही होगा कि हम बाजार से अचार का डिब्बा मंगवा लें।’’
‘‘
जी नहीं, पता है बाजार का अचार कितना महंगा होता है। और फिर क्वालिटी का क्या भरोसा?’’  पत्नी ने जवाब देते हुए सब्जियों के टीलों के बीच कहीं-कहीं नजर आती कच्चे आमों की ढेरियों पर नजरें टिका दीं। एक तो उमस भरी गर्मी, ऊपर से गैस लालटेनों की चौंधभरी भुकभुकाहट। मैंने कुछ कहने के लिए मुंह खोलना चाहा, पर पत्नी तब तक एक सब्जी वाले से झुककर मोलभाव करने में व्यस्त हो गई थीं।
मैंने मन में कहा- चलो, आम तो मिले।
लेकिन नहीं…. शायद भाव ज्यादा थे या और कुछ गड़बड़ थी। मैंने पत्नी को दूसरे, तीसरे और फिर पता नहीं कौन से नंबर के ढेर की ओर झुकते, मोलभाव करते और फिर सिर हिलाकर आगे बढ़ते देखा। लगातार उनके पीछे चलना जरूरी था। अब हम सब्जी बाज़ार के छोर तक जा पहुंचे थे। इससे आगे अंधेरा था।
अब मुझे मौका मिला, ‘‘कोई बात नहीं, हम फिर किसी दिन आ जाएंगे। अब हमें घर चलना चाहिए। आगे तो आम हैं नहीं।’’
‘‘
नहीं, अभी हम दूसरी तरफ तो गए ही नहीं हैं। देखो-देखो, कैसे ढेर लगे हैं!’’ और फिर मेरे जवाब का इंतजार किए बिना वह सड़क को लांघकर दूसरी तरफ चली गईं और यहां भी वही सिलसिला दोहराया जाने लगा।
बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी कि हम कैसे क्या करेंगे। आम खरीदना, एक-एक आम को धोना, तौलिए से पोंछना और आम कटवाकर घर पहुंचाना। बाजार में ठीक से खड़े रहने की तो गुंजाइश थी नहीं, फिर अचार के लिए इतना कुछ करना! कैसेकैसे…!

आखिर एक सब्जी वाले से दाम तय हुए।
वह तोलने को तैयार हुए तो पत्नी ने पूछा, ‘‘आमों को धोने का इंतजाम है?’’
सब्जीवाला फिर हँसा, ‘‘आप भी बहन जी! यहां इतनी देर से गला सूख रहा है। पीने के लिए तो पानी है नहीं और आपजरा उधर देखिए, सब बहनजियां ऐसे ही आम कटवा रही हैंदेखिएवहां उधर’’
संकेत की दिशा में देखा- अरे हां, वही तो, कुछ औरतैं एक झुंड में खड़ी थीं। आवाजें आ रही थीं- मेरे आम पहले काटोऐ सुना नहींहमकब से खड़े हैं…!’
इसके साथ ही सरौते से खट-खट की आवाज भी आ रही थी। तो आम काटने वाला भी पास ही मौजूद है! लेकिन इससे पहले आमों को धोना, पोंछना
गुस्सा दिखाने का मौका मिला था, ‘‘अगर ऐसी ही बात थी तो हमें बाल्टी में पानी लेकर आना चाहिए थाया फिर आम घर ले चलो- वहीं सब कर लेंगे।’’ मैं चिड़चिड़ा रहा था।
‘‘
बस, रहने दो। घर पर आम काटने का सरौता कहां है और फिर काटेगा कौन? आम की जगह उंगलियां काटेंगे। नहीं-नहीं, यहां इंतजाम है। एक लड़का काट रहा है।’’
‘‘
लेकिन धोनाइसका इंतजाम…!’’ मैंने उनकी कमजोरी पकड़ ली थी।
हूं।पत्नी ने चिंताकुल नजरों से इधर-उधर देखा। यह तो सचमुच मुश्किल हुई। लगा, शायद इसी बात से छुटकारा मिल जाए।
तभी एक आवाज सुनाई दी, ‘‘मैं धुलवा दूंगा आपके आम।’’
पतली, पिनपिनाती आवाज! मैंने घूमकर देखा- आठ-नौ बरस का एक छोकरा था। शायद वह हमारी नोक-झोंक में रस ले रहा था।
मुझे गुस्सा उतारने का पहला मौका मिला था, ‘‘धो देगा! धो दे फिरकहां धोएगा?’’
‘‘
यहीं धोऊंगा।’’ वह मेरी बात से हिला तक नहीं था।
‘‘
पानी है?’’ पत्नी ने पूछा।
‘‘
हां, है।’’
‘‘
कहां है पानी?’’ मैंने इधर-उधर देखा। वह सरासर झूठ बोल रहा था।
‘‘
वहां है, उधर…!’’ वह पता नहीं, कहां इशारा कर रहा था?
‘‘
तो लेकर आ…!’’
‘‘
आप जाना मत। मैं अभी लेकर आया पानी। फिर आम काट भी दूंगा। वहां सरौता भी हैं।’’ कहकर वह तुरंत भीड़ में गायब हो गया।
दुकानदार ने आम तोलकर एक तरफ डाल दिए। मैं आम थैले में भरने लगा तो पत्नी ने टोका-‘‘पहले धुलेंगे, फिर पोंछना होगा। अभी गड़बड़ मत करो।’’

हमें खड़े-खड़े काफी देर हो गई पर वह छोकरा पानी लेकर नहीं आया। मैं भड़ास निकालने का मौका तलाश रहा था, पर तभी वह आ गया। आवाज सुनाई दी, ‘‘आ गया पानी।’’
‘‘
कहां है पानी?’’
उसके हाथ में प्लास्टिक की बड़ी थैली थी। उसमें भरे पारदर्शी पानी में रोशनियां चमक रही थीं।
‘‘
इसमें कैसे धुलेंगे आम?’’
वह मुस्कराया, शायद मेरे अनाड़ीपन पर- ‘‘मैं थैली पकड़कर खड़ा रहूंगा। आप हाथ में एक-एक आम पकड़कर इसमें डुबाकर रगडऩा। आम धुल जाएंगे। फिर उन्हें कपड़े से पोंछकर थैले में रख लेना।’’
‘‘
अगर आम डालने से थैली फट गई और पानी गिर गया तो…!’’
‘‘
जैसे वह कह रहा है, वही ठीक है।’’ पत्नी ने मुझे अपनी बात पूरी नहीं करने दी। मैंने थैली में भरे पानी में एक आम सावधानी से डुबाया और उसे धोने लगा। छोकरा थैली भर पानी को हाथों से पकड़े सावधान मुद्रा में खड़ा था।
जब मैं आम को धोकर बाहर निकालता तो उसके चेहरे पर छींटे पड़तीं, लेकिन वह जैसे मूरत की तरह स्थिर खड़ा था। आंखें बिना झपके खुली हुईं, होंठ सख्ती से एक-दूसरे पर चिपके हुए। मैं आम धोकर पत्नी को थमाता, वह तौलिए से पोंछकर उसे टोकरी में डालती जातीं, जिसे सब्जी वाले ने बड़ी मेहरबानी करके हमें दे दिया था। लगा इस धोने-पोंछने के काम में कई घंटे बीत गए थे। हमारे अचार अभियान का एक दौर पूरा हो चला था। लेकिन अभी तो बहुत कुछ करना बाकी था।

‘‘
मैं आम कटवा दूंगा, एक किलो के तीन रुपये लगेंगे।’’ लड़के ने कहा और थैली भर पानी जो आम धोने के बाद अपारदर्शी हो चुका था, सड़क पर फेंक दिया। छींटे उछले और सब्जी वाले की झापड़ उसके गाल पर पड़ा, ‘‘हरामी केदेखता नहीं’’
वह बिना गाल सहलाए चुप खड़ा रहा, फिर टोकरा सिर पर रखकर बोला, ‘‘मेरे पीछे आओ। मैं आम कटवा देता हूं।’’
इससे पहले कि मैं और पत्नी कुछ कह पाते वह पलक झपकते ही भीड़ में खो गया।
मैं पागल की तरह इधर-उधर देखने लगा। सड़क पर रेंगते ट्रैफिक के सब तरफ बेशुमार भीड़ में हम कहां खोजेंगे ? अगर वह न मिला तो ?
मुझे गुस्सा आ गया। मैंने दुकानदार से कहा, ‘‘वह कहां गया?’’
‘‘
मैं क्या जानूं!अच्छा, आप आमों के पैसे दीजिए और एक तरफ हो जाइए। दूसरे ग्राहकों को लेने दीजिए।’’ उसे लगा था कि इस चक्कर में हम उसके पैसे मारकर भागने की फिराक में थे।
मैंने पैसे दिए और पत्नी का हाथ पकड़कर आगे चला, ‘‘अब कहां खोजें उसे ?’’
पत्नी ने कुछ कहा नहीं। लड़का शायद आम लेकर रफूचक्कर हो चुका था। कैसे प्यार से आम धुलवाने का नाटक कर रहा था। कोई ठिकाना है इस दुनिया का!
‘‘
तुम्हें उसका ध्यान रखना चाहिए था। जब वह आमों का टोकरा लेकर चला था तो उसके पीछे जाना चाहिए था।’’

पता नहीं, अभी और क्या-क्या सुनना बाकी था। अब कुछ कहने को नहीं था। मैं पत्नी का हाथ थामे उस हुजूम में धक्के खाते, घिसटते हुए ट्रैफिक के बीच मेंढक की तरह फुदकते, बचते-बचते, खुद को कोसते हुए पूरी सड़क के कई चक्कर काट आया, पर वह छोकरा कहीं दिखाई न दिया।
यह सब पत्नी की आम धुलवाने की जिद के चलते हुए था और शायद अब उन्हें भी अपनी गलती का एहसास हो गया था। वह चुपचाप मेरे पीछे-पीदे चलती जा रही थीं।
तभी आवाज आई, ‘‘बाबूजी…!’’
मैंने आवाज की दिशा में देखा- वही था। वही छोकरा, जो हमारे आम लेकर गुम हो गया था, सब्जी के ढेर के पीछे से हाथ हिलाकर हमें बुला रहा था। मन हुआ, दौड़कर गर्दन पकड़कर घसीट लाऊं। लेकिन यह संभव नहीं था। वह सब्जियों के ढेर के पीछे था। आगे कई औरतें खड़ी थीं। खट-कट, कट-खट की आवाजें आ रही थीं जैसे कुछ काटा जा रहा हो, पर दिखाई कुछ नहीं दे रहा था।
मैंने चिल्लाकर कहा, ‘‘कहां भाग गया था?… हम कब से ढूंढ रहे थे!’’
वह सब्जियों के ढेर के पीछे से निकलकर बाहर आया, ‘‘मैं तो आम लेकर यहीं आ गया था। यहीं तो काट रहा हूँ आम। पर आप ही पता नहीं कहां…!’’
‘‘
अच्छा-अच्छा, ज्यादा बातें न बना- हमारे आम कहाँ हैं?’’
‘‘
वो रहे आपके आम’’ उसने एक टोकरी की तरफ इशारा किया। देखकर तसल्ली हुई। हां, वही थे हमारे आम
‘‘
तो अब तक काटे क्यों नहीं!’’
‘‘
आपसे पूछकर ही तो काटता। एक आम की कितनी फांकें काटनी हैं? आठ, बारह या सोलह!’’ उसने सफाई दी।
‘‘
अभी टैम लगेगा पहले औरों के कटेंगेऔर भाव होगा होगा रुपये किलो…!’’ सामने ढेर के पास बैठे दुकानदार ने सख्त आवाज में कहा, फिर छोकरे से कहा, ‘‘वहां क्या बिटर-बिटर कर रहा था। जल्दी से काट-पीटकर काम खत्म कर…!’’
छोकरा फिर से सब्जियों के ढेर के पीछे जा पहुंचा। अब मैं उसे देख नहीं पा रहा था। और हमारे आम भी नजर नहीं आ रहे थे।
‘‘
आप जरा हटकर खड़े हो जाइएमैंने बताया न अभी टैम लगेगा। आपसे पहले भी कई लोग खड़े हैं।’’
मैंने देखा एक तरफ कुछ औरतें गोलबंद खड़ी थीं, आवाजें उभर रही थीं- ‘‘जल्दी…, देखो हमारे आम दूसरे आमों में मिल न जाएं।’’
अब प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं था। जैसे राक्षस की जान तोते में थी,  मैं आम में था। जब तक आम कटकर थैले में भरे जाकर घर नहीं पहुंच जाते, मेरी मुक्ति नहीं हो सकती थी।
भीड़ बढ़ती जा रही थी।
खट-कटकट-खटकी आवाजें लगातार आ रही थीं। पता नहीं छोकरा हमारे आम काट रहा था यामैंने पुकारा, ‘‘ओ अरे…!’’
‘‘
बाबूजी, आपने तो नाक में दम कर लिया!’’ सब्जी वाला गुर्राया, फिर पीछे मुड़कर चिल्लाया, ‘‘पीछे से उठकर बाहर आतेरी कट-कट ने तो मेरी दुकानदारी ही चौपट कर दी है।’’
उसने छोकरे का हाथ पकड़कर बाहर खींचा और सड़क पर धकेल दिया। साथ में सरौता और एक बोरा भी फेंके गए।
‘‘
हमारे आमहमारे आम…!’’ कई बेचैन आवाजें उभरीं।
‘‘
आपके आम जरूर मिलेंगे…!’’ सब्जी वाले ने छाती पर हाथ मारकर एक औरत की तरफ सिर झुकाया।
छोकरा अब सड़क के बीचोंबीच अपना बोरा बिछाकर बैठ गया था। उसने सरौता टिका लिया था और फिर से आम काटने में जुट गया था। खट-कट-खट आम कट रहे थे, पर वे हमारे आम नहीं थे।
‘‘
भई, हमारे आम काट दो।’’
लेकिन वह तो हमारी ओर देख ही नहीं रहा था। बस सिर झुकाए आम काटे जा रहा था। फिर उसके नीचे झुके मुंह से आवाज ऊपर आई, ‘‘बाबूजी, बस थोड़े-से रह गए हैं। फिर तसल्ली से काट दूंगा।’’
मैंने देखा, वह चारों ओर से घिरा हुआ था। भीड़ के बीच अंधेरे में बैठा आम काट रहा था, आवाजें आ रही थीं- कट-खट-खट-खटपर वह खुद दिख नहीं रहा था।
लोगों से घिरी उस जगह में रोशनी नहीं पहुंचने दी जा रही थी। दुकानदार ने न जाने क्यों उसे वहां बिठा दिया था।
‘‘
बारह फांकें काटो। नहीं-नहीं- सोलह करो। ये ज्यादा बड़ी हैं।’’
‘‘
मैं सोलह कर देता हूं। उसकी आवाज किसी गहरे कुएं में से आ रही थी।’’
‘‘
हां, सोलह ठीक हैं।’’
‘‘
पैसे इधरपैसे इधर…!’’ सब्जी वाले की आवाज गूंज उठी… ‘‘आम कटवाकर पैसे इधर दीजिए, नहीं तो हिसाब गड़बड़ हो जाएगा।’’
‘‘
हिसाबकैसा हिसाब…!’’
कट-खटखट-कटआम कट रहे थे। उसके चारों ओर अचार के आम कटवाने वालों की भीड़ थी, जैसे किसी बाजीगर के चारों ओर मजमा लगा हो।
कट-खटखट!
‘‘
जल्दी करोहमें दूर जाना है। जल्दी…’’
कट-खटखट-खट…!
‘‘
जल्दी…!’’
और फिर उस कट-खट के बीच एक-दूसरी आवाज हुई थी, हल्की-सी सिसकारी…! हां, मैंने सुना थासरौता आम पर नहीं पड़ा था।
बाजीगर का जादू टूट गया था। लोग लहर की तरह उछले थे, काई की तरह फट गए थे। वे अपने आम उठा रहे थे, आपस में छीनाझपटी कर रहे थे। उन्हें आम चाहिए थे।
लेकिन हमारे आम कहां थे? मुझे वे कहीं नजर नहीं आ रहे थे। शायद वे काटे ही नहीं गए थे। अब मैं वहां नहीं रुक सकता था। हां, वह आवाज, जो सरौते के आम पर गिरने की नहीं थी, मैंने सुनी थी।
सोम बाजार अपने पूरे निखार पर था। भीड़, रोशनी, हांका माल बिक रहा था लेकिन आम…? वे कहां कट रहे थे? हमारे आमकौन काटेगा उन्हेंऔर अचारमुझे कुछ पता नहीं था। मैं पत्नी का हाथ पकड़कर पीछे हट रहा था- हमारे आम अब मिलने वाले नहीं थे.    (समाप्त)