Monday 30 July 2018

पीपल वाला चबूतरा --देवेन्द्र कुमार--बाल कहानी


पीपल वाला चबूतरा
-देवेन्द्र कुमार

सब चुप हैं। उदास हैं। अजय के पापा रमेश का  ट्रांसफ़र हुआ है। उनके परिवार में चार लोग हैं। रमेश, उनकी पत्नी छाया, रमेश के पिता रामचंद्र और अजय – रमेश का इकलौता बेटा। पुराना शहर छोड़्कर नई जगह आने में उलझन होती है। नए-पुराने दोस्त छूट जाते हैं। मन में डर रहता है कि नई जगह पता नहीं कैसी हो।
      रामचंद्र खिड़की में खड़े बाहर देख रहे हैं। रमेश बंद डिब्बों को खोलने मे लगे हैं, छाया रसोई में चाय-नाश्ता तैयार कर रही है। अजय का एडमीशन पहले ही हो चुका है। उसे दो दिन बाद से स्कूल जाना है। अजय को कुछ काम नहीं है। वह खामोश बैठा गेंद को बार-बार दीवार से टकरा कर उछाल रहा है।
      तभी छाया नाश्ता लेकर आ गई। उसने पूछा –’बाबूजी कहां गए?’
      अब रमेश ने भी इधर-उधर नज़र दौड़ाई। बोले – ’अरे हां, अभी तो खिड़की से बाहर देख रहे थे। पता नहीं, कहां चले गए।
      ’कहीं रास्ता न भटक जाएं। अभी दो दिन ही तो हुए हैं हमें आए हुए।’ छाया ने परेशान स्वर में कहा। रमेश हंस पड़े। बोले – ’बाबूजी पुराने जमाने के नहीं,  के हैं। जेब में मोबाइल रखते हैं। रास्ता भूलने का सवाल ही नहीं। चिंता न करो।’ और सच कुछ देर बाद रामचंद्र लौट आए।
      रमेश ने पूछा –’कहां चले गए थे बाबूजी? आपकी चाय भी ठंडी हो गई.’
      ’मैं दोबारा बना देती हूं।’ छाया ने कहा।
      ’मैं तो बस छाया के काम से गया था।’ रामचंद्र बोले।
      ’मेरे काम से...पर मैं...’ छाया ने आश्चर्य भरी नज़र से बाबूजी को देखा।
      रामचंद्र हंस पड़े। बोले –’घर तुम्हारा है तो काम भी तुम्हारे ही हुए। मैं बस्ती में घूम-फ़िर आया हूं। देख लिया है – दूध की डेयरी कहां है, केमिस्ट और डाक्टर को भी देख लिया। एक सब्जी वाला है, उसके पास खूब भीड़ थी। यानी उससे सब्जी लेना लोग पसंद करते हैं। और भी बहुत कुछ देख लिया। आगे मोड़ पर एक पीपल का पेड़ है। उसे घेर कर सफ़ेद पत्थर का एक चबूतरा बनाया गया है। मैं सोच रहा हूँ कि उसका क्या इस्तेमाल हो सकता है। पर अभी तो वहां कई लोग ताश खेल रहे थे।‘
      ’और क्या देखा आपने?’ अजय ने पूछा।
      ’देखा, ढूँढा पर नहीं मिली।’ रामचंद्र बोले।
      ’क्या नहीं मिली बाबूजी?’ रमेश ने पूछा।
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      ‘यही कि बाजार में स्टेशनरी की कई दुकाने हैं, पर किताबों की एक भी नहीं।‘ रामचंद्र ने कहा।
      रामचंद्र चाय पीने लगे। फ़िर खुद बोल उठे –‘चबूतरा बैठने की अच्छी जगह है।’
      ’तो क्या आप अब बाजार में चबूतरे पर जाकर बैठा करेंगे?’ अजय बोला।
      ’अरे नहीं, नहीं..लेकिन...बाबूजी ने बात अधूरी छोड़ दी और अखबार उलटने लगे।
      अगली सुबह इतवार था। रमेश और छाया डिब्बों को खोल-खोलकर सामान लगाते जा रहे थे। तभी बाबूजी ने अजय से कहा ‘–हमें तो यहां कुछ काम नहीं, आओ घूमने चलें।’ आकाश में बादल घिरे थे। धीमी हवा बह रही थी। पहले बाबूजी ने अजय को वह सब दिखाया जो कुछ वह पिछ्ली शाम खुद देखकर आए थे। फ़िर अजय के साथ पीपल वाले चबूतरे पर जा पहुंचे। अजय ने देखा सफ़ेद पत्थरों का चबूतरा अच्छा लग रहा था। सड़क पर ट्रैफ़िक था, पर चबूतरा सड़क से थोड़ा हटकर बना था।
      बाबूजी ने कंधे पर लटके झोले से कपड़ा निकाला और एक जगह धूल साफ़ करके बैठ गए। अजय खड़ा रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह कैसी जगह चुनी है बाबूजी ने। बाबूजी ने बताया था कि वहां लोग ताश खेलते थे, पर आज तो वहां बस कबूतर फ़ुदक रहे थे।
      ’अजय!’ बाबूजी ने आवाज दी तो अजय ने मुड़्कर देखा –’अरे यह क्या!’ चबूतरे पर कुछ किताबें, पत्रिकाएं और दो अखबार रखे थे। ‘यह सब कहां से आया?’ अजय ने अचरज से पूछा।
      ’और कहां से आएगा यह सब? मैं घर से लाया हूं। मैंने कहा था न कि पीपल वाला चबूतरा अच्छी जगह है। एक तरफ़ कबूतर, दूसरी तरफ़ किताबें – है न बढिया मेल.’  कह कर बाबूजी हंस दिए। जब बाबूजी बात कर रहे तो दो जने आकर खड़े हो गए। एक ने उनसे  पूछा –क्या ये बिक्री के लिए हैं?’
      ’नहीं, पढने के लिए।’ बाबूजी ने कहा –’आओ बैठो, पढो!’
      वे दोनों बैठकर किताबें उलटने-पलटने लगे, फ़िर एक-एक पत्रिका उठाकर पढ़ने लगे। पत्रिकाएं पुरानी थीं। इन्हें रामचंद्र अपने साथ पुराने शहर से लाए थे।
      अजय खड़ा-खड़ा देख रहा था। अब वहां दो नहीं-तीन-चार लोग आ बैठे थे। तभी अजय ने एक लड़के को देखा। वह पढ़ नहीं रहा था, बस देख रहा था। एकाएक उसने एक किताब उठाई और तीर की तरह भाग गया।
      बाबूजी, चोर!...’ अजय ने रुंधे गले से कहा।
      ’कहां...किधर...’ बाबूजी ने पूछा। अजय ने बताना चाहा, पर किताबें ले भागने वाला छोकरा कहीं दिखाई नहीं दे रहा था।
      चबूतरे से कुछ दूर पुलिस का बीट-बाक्स बना था। उसमें से एक सिपाही निकल कर आया। उसने अजय के मुंह से निकला ’चोर’ शब्द शायद सुन लिया था। बोला –’यहां हर तरह के लोग घूमते हैं। क्या ले गया चोर?’ उसने पूछा।
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      ’जी, एक किताब!’
      सिपाही हंस पड़ा। ’किताब बेचने से उसे एक-दो रुपए से ज्यादा मिलने वाले नहीं।’
      ’हो सकता है, वह किताब पढ़ना चाहता हो इसीलिए...’ बाबूजी अब भी किताब ले भागने वाले छोकरे को चोर नहीं कह रहे थे।
      अगर उसे किताब पढ़नी होती तो वह यहीं बैठकर पढ़ता..इस तरह लेकर क्यों भागा?’ अजय ने कहा। उसका मन दुखी हो रहा था। वह सोच रहा था –’आखिर बाबूजी को यह क्या सूझा कि यहां किताबें फ़ैलाकर बैठ गए।‘
      सिपाही बाबूजी से बात करते-करते एक किताब उठाकर पढने लगा। बोला –’मैं सारा दिन यहां ड्यूटी देता हूं। चबूतरे पर ताश का अड्डा जमाने वालों को खदेड़ता रहता हूं। कभी-कभी कुछ पढ़ने का  मन करता है, पर यहां कोई किताब या पत्रिका की दुकान है ही नहीं।’
      ’सिपाही अंकल, क्या आप किताब चोर को पकड़ लेंगे? अजय ने पूछा।
      ’हां, बेटा क्यों नहीं। हम सामान चुराने वालों को पकड़्ते हैं तो किताब चोर को क्यों नहीं’, कहकर वह हंस पड़ा।
      धीरे-धीरे शाम ढल चली। पेड़ के नीचे धुंधलका-सा छाने लगा। बाबूजी किताबें समेट कर थैले में डालने लगे , फ़िर कुछ देख कर रुक गए। अभी एक आदमी चबूतरे पर बैठा किताब पढ़ने में मगन था।
      बाबूजी ने उससे पूछा –’क्या आपको किताब अच्छी लगी?’
      ’जी बहुत अच्छी! छोड़ने का मन नहीं है, लेकिन आपको जाना है न’, उस आदमी ने बाबूजी की ओर किताब बढ़ाते हुए कहा।
      ’आप इसे घर ले जाकर आराम से पढ़ें। कल वापिस ले आएं। तब तक मैं और किताबें भी ले आऊंगा।’ बाबूजी ने कहा तो वह आदमी हंस पड़ा। बोला –’क्या सच मैं इस किताब को घर ले जा सकता हूं?’  जैसे उसे बाबूजी की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था .
      बाबूजी ने बाकी किताबें भी थैले में रख लीं। उससे बोले-’ जरूर ले जा सकते हैं...’
      सिपाही बीट बाक्स के बाहर खड़ा था। उसने हंसकर बाबूजी से पूछा –’क्या कल भी आप किताबें लेकर आएंगे?’
      ’हां, लाऊंगा।’ बाबूजी ने कहा – ’आपको संदेह क्यों हो रहा है?’
      ’इसलिए कि एक लड़का किताब उठाकर भाग गया।’ सिपाही ने कहा।
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      ’यह सब तो होता ही रहता है। पुस्तकालयों से भी किताबें चोरी होती हैं। लोग अच्छी महंगी पुस्तकें लेकर बैठ जाते हैं। वापस नहीं करते। लेकिन ऐसे लोग बहुत कम होते हैं। ज्यादातर लोग तो किताबें पढकर सही सलामत लौटा देते हैं। क्या थोड़े-से पुस्तक चोरों के कारण लायब्रेरियों को बंद कर देना चाहिए?’
      जी कभी नहीं।’ सिपाही बोला।
      अजय से रहा नहीं गया। उसने कहा –’लेकिन आपने उस आदमी का नाम-पता तो पूछा ही नहीं जो किताब अपने घर ले गया है।’
      ’हां, पूछना तो चाहिए था, पर अगर वह किताबें पढ़्ने का शौकीन है तो नई किताबें लेने के लिए कल जरूर आएगा।’ बाबूजी बोले।
      ’अगर नहीं आया तो...?.’ अजय पूछ रहा था।
      ’हो सकता है न आए। तब उसे किताबों से दूर रहना पडेगा जो शायद उसे पसंद न आए। इसीलिए कह रहा हूं कि वह आएगा।’ बाबूजी हंसकर बोले|
      ’तो क्या आप रोज इसी तरह किताबें चबूतरे पर रखा करेंगे लोगों के पढ़ने के लिए?’   रामचंद्र ने कहा  –’तुमने देखा सड़क पर कितनी भीड़ है। कितने ठेले-खोमचे वाले हैं। लोग उनसे पैसे देकर चीजें खरीदते हैं, पर हमें तो कुछ नहीं चाहिए। हम तो बस किताबों को पढ़ने वालों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। शायद यह बात पढ़ने वालों और किताबों को अच्छी लगे।’
      किताबों को ....’ अजय चौंक पड़ा।‘ क्या किताबें भी मेरी और आपकी तरह होती हैं?’
      ’होती तो हैं अगर कोई उनकी बात सुनना-समझना चाहे।’ कहकर बाबूजी फिर से हंस दिए। बोले-’किताबें मुझसे कहती हैं, हमें बंद अलमारी की कैद से बाहर निकालो।’
      ’क्या सच?’ अजय पूछ रहा था।
      बाबूजी मुस्करा रहे थे।( समाप्त )


Saturday 28 July 2018

संजू --देवेन्द्र कुमार-- बाल कहानी



संजू
--देवेन्द्र कुमार
कौन था संजू,कहाँ से आया था. न कोई जानता था और न कभी ऐसा महसूस हुआ कि उसके बारे में किसी को कुछ मालूम होना चाहिए. जैसे हवा किसी टूटे पत्ते को उडा कर कहीं से कहीं पहुंचा दे, क्या संजू भी उसी तरह लोगों के बीच नहीं आ पहुंचा था ? और फिर...
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-उस सुबह बादल घिरे थे. हलकी बारिश हो रही थी. प्रतिमा देवी रोज की तरह मंदिर जा रही थीं, मंदिर के निकट पहुँचते ही उन्होंने पुजारी जी को किसी पर चिल्लाते हुए सुना, एक आदमी मंदिर की सीढ़ियों के पास सिर झुकाए खडा था. प्रतिमा देवी ने पूछा तो पुजारी ने उस आदमी की ओर संकेत करते हुए कहा—‘’  यह मंदिर में सेवा के समय कभी नहीं दिखाई देगा, लेकिन प्रसाद बंटते समय लाइन में सबसे आगे रहता है.’’
प्रतिमा देवी उसे जानती हैं. वह है संजू, उसका एक हाथ कलाई से कटा हुआ है.उसके पास कोई काम नहीं है. कहता है कि वह तो काम करना चाहता है, पर कोई काम देता ही नहीं. उसका  आधा हाथ देखते ही मना कर देते हैं. वह अपना आधा हाथ कुरते की बांह में छिपाए रहता है. सारा दिन टूटे पत्ते की तरह इधर से उधर फिरता रहता था. प्रतिमा  देवी ने अक्सर ही संजू को लोगों से झिडकियां खाते देखा है. उन्हें यह सोच कर बुरा लगता है कि कभी कभी कोई कितना बेचारा हो जाता है. उन्होंने कहा—‘ संजू, पुजारीजी ठीक कह रहे हैं. तुम्हारा एक हाथ खराब है, लेकिन ठीक  हाथ से भी तो बहुत कुछ किया जा सकता है.’’
संजू ने प्रतिमा देवी की ओर देखा जैसे पूछ रहा हो –आखिर मैं क्या कर सकता हूँ. उन्होंने कहा –‘’संजू, झाड़ू से मंदिर के आसपास सफाई कर डालो, यह काम एक हाथ से बखूबी किया जा सकता है. और इसके बाद मंदिर के चबूतरे को पोंछे से चमका दो.’ सुबह सुबह सफाई वाली मुन्नी मंदिर के आस पास झाड़ू—पोंछा कर जाती है, लेकिन कुछ देर बाद फिर से सफाई की जरूरत महसूस होने लगती है. मंदिर पर छतनार पेड़ से  पत्ते और परिंदों की गंदगी गिरती रहती है. मंदिर के फर्श पर गिरे फूल और प्रसाद के कण जमीन पर चिपक जाते हैं. इस बारे में मुन्नी का कहना था कि वह सारा समय मंदिर की सफाई करेगी तो पूरी सोसाइटी में झाड़ू कौन लगाएगा. उसकी बात गलत भी नहीं थी.
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संजू ने एक तरफ रखी झाड़ू उठाई और सफाई करने लगा. प्रतिमा देवी पूजा करने के बाद मंदिर से बाहर आईं तो संजू हाथ रोक कर उनकी तरफ देखने लगा.उन्होंने कहा—‘’संजू, रुक क्यों गए.’’                                         
     ‘’ मैंने संजू को पहली बार ढंग से काम करते देखा है.’’— पुजारीजी बोले फिर उसे प्रसाद दिया. प्रतिमा देवी ने संजू से कहा—‘’ जैसा मैंने कहा है उसी तरह रोज करोगे तो तुम्हारा जीवन आसान हो जायेगा, किसी से कुछ मांगना नहीं पड़ेगा.’ फिर उसे पीछे आने का इशारा करके अपने फ़्लैट की ओर  चल दी.
संजू सहमा सा उनके पीछे चल दिया, बात कुछ समझ में नहीं आ रही थी. प्रतिमा देवी संजू को ड्राइंग रूम में ले गईं, उसे बैठने को कहा. पर वह खड़ा ही रहा.कई बार कहने पर संजू जैसे जबरदस्ती कुर्सी पर बैठ गया. प्रतिमा देवी एक प्लेट में कुछ खाने को ले आईं ,वह संजू का संकोच समझ रही थीं. उन्होंने कहा—‘ संजू यह भीख नहीं, तुम्हारे काम का मेहनताना है. तुमने आज मंदिर के आसपास सफाई की है. मेरी बात का मान रखा है. क्या यह हाथ फ़ैलाने से अच्छा नहीं है? अब रोज मंदिर की सफाई करना.आज के बाद भीख मांगने की नौबत नहीं आएगी. तुम्हारे भोजन की जिम्मेदारी मेरी.’’
संजू अचरज से प्रत्तिमा देवी की और देखता रह गया. इतना ही कह पाया—‘’लेकिन आप ही क्यों.’’
--‘’ इस बात के फेर में मत पडो. इतना समझ लो कि मैं तुम्हें क्या, किसी को भी भीख मांगते हुए नहीं देखना चाहती. ‘’
लेकिन मेरे जैसे तो न जाने कितने होंगे,तब आप...’’—संजू ने कहना चाहा .
जवाब प्रतिमा देवी की मुस्कान ने दिया,‘कहा-- ‘’मन लगा कर काम करो और  किसी के आगे हाथ फ़ैलाने की सोचना भी मत.’’  
प्रतिमा देवी अब रोज संजू को मंदिर के बाहर सफाई करते देखती और संतोष के भाव से मुस्करा देतीं. लेकिन एक दिन गड़बड़ हो गई. उस सुबह प्रतिमा देवी ने किसी औरत के चिल्लाने की आवाज सुनी. सफाई का काम करने वाली मुन्नी संजू को डांट रही थी और वह चुप खड़ा था. मुन्नी बहुत गुस्से में थी –‘’तू मेरे पेट पर लात मारने चला है, सोसाइटी में घुसना बंद न करा दिया तो मेरा नाम भी मुन्नी नहीं.’’
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प्रतिमा देवी ने मुन्नी को पास बुला कर पूछा तो वह बिफर उठी –‘’संजू मेरी रोजी छीनने की कोशिश कर रहा है तो मैं चुप रहने वाली नहीं. ‘’ प्रतिमा देवी को मालूम था कि मुन्नी को मंदिर की सफाई करने के लिए सोसाइटी की ओर से महीने की पगार के अलावा सौ रूपए अलग से मिलते थे. उसे लगता था कि संजू उसे मिलने वाले सौ रूपए हड़पने के लिए ही मंदिर की सफाई करने लगा है. प्रतिमा देवी ने कहा-‘’मुन्नी,तुम बेकार ही घबरा रही हो. संजू से मैंने यह काम करने को कहा है. सोसाइटी का इससे कुछ लेना देना नहीं है.मैं नहीं चाहती कि संजू या कोई और किसी मजबूरी की वजह से लोगों के सामने हाथ फ़ैलाने पर मजबूर हो. क्या तुम ऐसा चाहती हो?’’
‘’ नहीं कभी नहीं,मुझे तो खुद संजू को लोगों की झिडकियां खाते देख कर बुरा लगता है.’’—मुन्नी ने कहा.
उस दिन के बाद संजू को फिर कोई परेशानी नहीं हुई. वह सुबह –शाम दोनों समयं मंदिर के आसपास साफ़ सफाई करता था और प्रतिमा देवी ने उसके लिए भोजन  की  व्यवस्था कर दी थी.   वह सुबह शाम मंदिर आते समय उसके लिए पैकेट में भोजन ले आती थीं. अब किसी को संजू से कोई शिकायत नहीं थी. अब तो कई बार मुन्नी और संजू को आपस में हँसते- बोलते देखा जा सकता था. दोपहर में संजू सोसाइटी के पार्क में पेड़ की छाया में बैठ कर खाना खाता था, तो शाम को उसे सोसाइटी के गेट के बाहर सड़क पर आवारा घूमने वाले बच्चों से घिरे हुए देखा जा सकता था .उस समय गेट के बाहर मदिर का प्रसाद बांटा जाता था. संजू बच्चों को लाइन में खड़ा रहने में मदद करता था. और हुडदंगी बच्चे उसका कहा मान भी जाते थे.
        एक दिन प्रतिमाजी ने इस बारे में पूछा तो उसने कहा था—‘’वे सब मुझे अपने बच्चों जैसे लगते हैं. इन्हें देख कर अपने बचपन की शरारतें याद आ जाती हैं.’’ फिर बताया—‘’गाँव में हमारे घर के पास से एक पगडण्डी नदी की तरफ जाती थी. उसके दोनों तरफ घनी झाड़ियाँ थीं.उनमें सांप बिच्छू निकलते थे.इसलिए उधर से कोई नहीं जाता था. जब मेरी किसी शरारत पर माँ मुझे मारने दौडती तो मैं  उस पगडण्डी पर चल देता और जोर जोर से कहता –‘ मैं नदी में जा रहा  हूँ.’’ तब माँ भाग कर मुझे लिपटा लेती.गुस्सा भूलकर दुलार करने लगती.मैं भी हंस कर उसे गुदगुदा देता. तब माँ मेरा हाथ अपने सिर पर रख कर कसम खिलाती कि मैं फिर कभी उस सांप बिच्छू वाली पगडण्डी से नदी की तरफ नहीं जाऊँगा.’’ –कहते हुए उसकी आवाज भर्रा गई ,कुछ देर चुप बैठा रहा और फिर उठ कर चला गया. प्रतिमा देवी ने संजू से फिर कभी कुछ नहीं पूछा. 
       एक शाम प्रतिमाजी बाज़ार से लौट रही थीं तो उन्होंने देखा—गेट के पास चबूतरे पर खड़ा संजू नंगे बदन अपना आधा हाथ उठा कर गोल गोल घूम रहा था और बच्चों की टोली ताली बजा रही थी. शायद ये परम आनंद के पल थे संजू के लिए.
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         सुबह संजू रोज की तरह मंदिर के आसपास सफाई करता दिखा पर माथे पर पट्टी बंधी थी, उस पर खून के दाग थे. प्रतिमाजी ने पूछा तो बोला –‘’बच्चों के झगडे में बीच बचाव करते हुए चोट खा गया,’’ फिर सिर झुका कर काम में लग गया. प्रतिमाजी की आँखों के सामने कुछ दिन पहले की एक शाम घूम गई. चबूतरे पर नाचता संजू और ताली बजाते बच्चे. क्या ये वही बच्चे थे या कोई और बात थी.
         अगली सुबह प्रतिमाजी मंदिर आईं तो संजू नहीं दिखाई दिया. दूसरे दिन भी नहीं आया. प्रतिमाजी ने सोसाइटी के गेट पर पूछा तो गार्ड ने कहा –‘’कल रात को आया था ,साथ में दो बच्चे थे. कह रहा था कि बच्चों को छोड़ने जा रहा है. ‘’
         ‘’कुछ बताया कि बच्चों को कहाँ छोड़ने जा रहा है? कौन से बच्चे थे. ‘’
         --‘’कुछ बताया नहीं ,बस इतना ही कहा था.’’
            उस दिन के बाद संजू फिर कभी नहीं दिखाई दिया. आखिर कहाँ चला गया था. और वे  बच्चे कौन थे? बच्चों को कहाँ छोड़ने चला गया था संजू .वे  बच्चे जो शायद उसके कोई नहीं थे. (समाप्त )
         

Sunday 22 July 2018

कोई तो मदद करो --देवेन्द्र कुमार--बाल कहानी


  कोई तो मदद करो            

                                                                                      --देवेन्द्र कुमार

क्या वह पागल था? पता नहीं ,पर आस पास खड़े लोग तो ऐसा ही कह रहे थे. क्या इसीलिए उसे रोता देख लोग उसकी खिल्ली उडा रहे थे. आखिर सच क्या था?
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सड़क पर जाम लगा था. ग्लोरी स्कूल की बस को रुकना पड़ा. बस से आगे कई कारें और स्कूटर हॉर्न बजा रहे थे. सड़क के बीचोबीच कई लोग खड़े थे. न जाने क्यों  वे हंस रहे थे लेकिन  हंसी के बीच किसी के रोने की आवाज़ भी सुनाई दे रही थी. आखिर मामला क्या था?
अजय और शिवम् बस से उतर कर वहां जमा लोगों के बीच जा पहुंचे. उन्होंने देखा भीड़ के बीच एक बूढा सड़क पर बैठा था. वह रो रहा था लेकिन लोग हंस रहे थे. उसके हाथ में एक डंडा था,जिस पर लगे पोस्टर पर बड़े - बड़े शब्दों  में लिखा था—‘’ मेरा बेटा खो गया है. उसे खोजने में मदद करो.’  तभी एक सिपाही वहां आ पहुंचा. उसने बूढ़े को पकड़ कर उठाया और फुटपाथ पर बैठा दिया फिर ट्रेफिक को संचालित करने लगा. अजय और शिवम् भी स्कूल बस में जा बैठे. उन्होने देखा कई लोगों ने उस बूढ़े को फिर से घेर लिया था. तभी एक लड़का दौड़ता हुआ आया और बूढ़े के हाथ से पोस्टर छीन कर भाग गया.इसके बाद क्या हुआ अजय और शिवम् नहीं देख पाए,क्योकि बस आगे बढ़ गई थी.
शिवम् ने अजय से कहा—‘ पता नहीं वह कौन था जो बूढ़े बाबा का पोस्टर लेकर भाग गया. पता नहीं अब वह अपने खोये हुए बेटे को कैसे खोजेंगे!’
        ‘’पता नहीं उनका बेटा कैसे खो गया.’—अजय ने कहा. शिवम् ने जवाब नहीं दिया. वह कुछ सोच रहा था. घर पहुँच कर उसने अपनी माँ सुषमा से पोस्टर वाले बूढ़े बाबा के बारे में बताया तो वह मुस्करा कर बोलीं –वही बूढा जिसका बेटा खो गया है,जो सड़क के मोड़ पर फल बेचने वालों के पास खड़ा दिखाई देता है.’’
        ‘’तो आप जानती हैं उसके बारे में –पर कैसे?’’
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          ‘’मैं तुम्हारे पापा के साथ वहां फल-फ्रूट लेने जाती रहती हूँ. बूढ़े को पोस्टर लिए हुए मैंने कई बार देखा है. लोगों को उन्हें पागल-सिरफिरा कहते भी सुना है. मेरे पूछने पर एक ने बताया कि बूढ़े का नाम श्यामू है. वह भी पहले वहीँ फल बेचा करता था. साथ में उसका बेटा चीतल भी खड़ा रहता था, पर वह शरारती था. वह पिता की काम में जरा भी मदद नहीं करता था. एक दिन मैं वहां गई तो देखा श्यामू का ठेला उल्टा पड़ा है और सारे फल सड़क पर फैले हुए हैं. श्यामू एक तरफ सिर थामे बैठा था.
        ‘’ क्या हुआ था?’
         लोगों ने बताया –एक लड़की गुब्बारे लेकर माँ के साथ जा रही थी. चीतल उसके गुब्बारे छीन कर भाग गया. लड़की रोती हुई उसके पीछे दौड़ी तो गिर कर चोट खा गई. इस पर श्यामू ने उसे पीट दिया. गुस्से में चीतल ने फलों का ठेला उलट दिया और भाग गया. यह कई महीने पहले की बात है. सुना है तभी से चीतल घर नहीं लौटा है. श्यामू और उसकी पत्नी परेशान घूम रहे हैं. सब श्यामू को दोष दे रहे हैं कि उसे चीतल को पीटना नहीं चाहिए था. चीतल के न लौटने से जैसे श्यामू पागल सा हो गया है. सबसे पूछता फिरता है—चीतल कहाँ है? मैं उसका कसूरवार हूँ.
          ‘’हाँ मैंने भी देखा था कि वह हाथ में पोस्टर लिए सड़क पर बैठा था. वह रो रहा था और लोग हंस रहे थे.’’—शिवम् ने माँ से कहा. फिर एक बड़ी ड्राइंग शीट लेकर मोटे पेन से लिखने लगा-
       माँ ने पूछा तो उसने कहा—सुबह एक लड़का चीतल के पिता के हाथ से पोस्टर छीन कर भाग गया,इसीलिए मैंने नया पोस्टर तैयार किया है .सोचता हूँ जाकर उन्हें दे दूं ‘. माँ ने कहा—‘मुझे बजार से कुछ सामान लाना है,मैं भी चलती हूँ.’
          सुषमा और शिवम् बाज़ार पहुंचे तो श्यामू लोगों के बीच खड़ा दिखाई दिया.वह् तेज़ स्वर में कुछ कह रहा था. शिवम् ने उससे कहा—‘’बाबा,कोई आपका पोस्टर छीन कर ले गया था, मैंने नया पोस्टर बना दिया है.’’ और डंडे  पर लगा पोस्टर उसे थमा दिया.
            ‘’बच्चे, अब इसकी कोई जरूरत नहीं है,मेरा चीतल लौट आया है. चलो मेरे साथ ,उससे मिलो.’’ –कह कर श्यामू एक तरफ चल दिया.शिवम् ने देखा, कुछ आगे फुटपाथ पर एक लड़का लेटा  था गर्दन तक चादर ओढ़े हुए. उसकी आँखें बंद थीं.पास में बैठी एक औरत उसके माथे पर गीली पट्टी रख रही थी.साथ ही आंसू भी पोंछती जा रही थी. सुषमा ने पूछा – ‘’अम्मा,चीतल कैसा है,यह कहाँ चला गया था?’’
         ‘’ यह तो मेरा चीतल नहीं है.’’
         ‘’तो फिर यह कौन है?’’
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चीतल की माँ ने आंसू पोंछते हुए कहा—‘क्या पता चीतल के बापू किसे उठा लाये हैं! मैंने तो साफ़ कह दिया था कि मेरे घर में चीतल के अलावा दूसरा कोई  नहीं रह सकता. तब गुस्से में इसे लेकर यहाँ चले आये. कहा कि  जहाँ उनका चीतल नहीं रह सकता वहां वह भी नहीं रहेंगे. फिर मुझे पता चला कि यह बच्चा बुखार में फुट पाथ पर लेटा है. आखिर मुझे देख भाल के लिए आना ही पड़ा.’’
‘तो चीतल का कुछ पता चला?’
‘’पता नहीं मेरा बेटा कहाँ चला गया.’’
श्यामू इस समय वहां दिखाई नहीं दे रहा था. सुषमा ने फुट पाथ पर लेटे लड़के का माथा  छू कर देखा. उसे तेज़ बुखार था.शिवम् से आँखें मिली तो वह धीरे से मुस्कराया. ‘’तुम्हारा नाम क्या है?’’—शिवम् ने पूछा.
 ‘’रमन .’’
‘तुम यहाँ कैसे आ गये ?’
रमन ने बताया—‘ मैं थोड़ी दूर पर एक स्टोर में काम करता था. आज मुझे बुखार था,इसलिए देर से दुकान पहुंचा तो मालिक ने काम से निकाल दिया. मैंने बुखार होने की बात कही पर उसने एक न सुनी. मुझे पगार का बकाया भी नहीं दिया. मैं यहाँ आकर पटरी पर लेट गया. तभी ये बाबा आ गए. मेरे लिये दवा लाए, खाने को दिया. फिर ये अम्मा आकर मेरा सर दबाने लगी.’’कह कर वह हांफने लगा.
अब बात समझ में आ गई थी. श्यामू उसे अपना खोया हुआ बेटा समझ रहा था. क्या उसके अजीब व्यवहार के कारण ही लोग उसे सिरफिरा कहने लगे थे.
तभी आकाश में बादल घिर आये .बिजली चमकने लगी. फिर बूँदें पड़ने लगी. श्यामू और उसकी पत्नी रमन को सहारा देते हुए ले चले. निश्चय ही वे उसे अपने घर ले जा रहे थे. सुषमा भी शुभम के साथ घर लौट आईं ‘’माँ,इस समय चीतल कहाँ होगा?’—शुभम ने आकाश की ओर देखते हुए पूछा.
‘’  अच्छा हो वह माँ-बाप के पास लौट आये. देखो न मौसम कितना खराब है.’’—सुषमा ने शिवम् का सिर सहला कर कहा. ‘’आप और पापा मुझे कितना प्यार करते हैं.चीतल के माता पिता भी तो आप जैसे होंगे.’—शिवम ने कहा.
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सभी बच्चों के मम्मी-पापा ऐसे ही होते हैं.’’—कहते हुए माँ ने बेटे को आलिंगन में बाँध लिया.बाहर बारिश तेज हो गई थी.                               ( समाप्त )



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