Monday 30 November 2020

दावत-कहानी-देवेंद्र कुमार ======= -

 

  दावत-कहानी-देवेंद्र कुमार

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 मौसम ठंडा था, तेज हवा बह रही थी ,लेकिन धूप गरम थी और दिन छुट्टी का था,इसलिए जहाँ धूप थी वहां लोग सपरिवार मौजूद थे। बच्चों की धमाचौकड़ी और किलकारियों के बीच खाना पीना चल रहा था। छोटे तिकोने पार्क में एक बड़ा परिवार धूप को घेर कर बैठा हुआ था। उन्हें पता नहीं था कि कोने में खड़े तीन जने भी धूप में बैठ कर रोटी खाना चाहते हैं।लेकिन उन लोगों को किसी ने मना तो नहीं किया था। धूप सबकी थी, उस पार्क में कोई कहीं भी बैठ सकता था।लेकिन फिर भी वे तीनों दूर खड़े थे, पता नहीं क्यों।  

वे तीन थे-- रामवीर,बीरन और फत्ते। वे धूप में बैठ कर आराम से खाना खा सकते थे,लेकिन फिर भी इन्तजार कर रहे थे। क्यों भला?  उनके हाथ में कागज़ में लिपटी रूखी रोटियाँ, प्याज और हरी मिर्चें थीं। तरह तरह के स्वादिष्ट पकवानों का आनंद लेते लोगों के बीच रोटी के पैकेट खोल कर वे तीनों अपने गरीब भोजन का मजाक नहीं उडवाना चाहते थे। इसलिए इन्तजार कर रहे थे कि दावत का आनंद लेते लोग उठ कर जाएँ तो वे भी धूप का मजा लेते हुए भोजन कर सकें।

तभी फत्ते ने बीरन से कहा—‘अरे देखो, देखो तो सही, वह औरत उस बच्चे को कैसे मार रही है।’’

बीरन बोला—‘’हाँ मैंने सब देखा है। कई बच्चे कुछ देर से खाना खाते लोगों के आस पास मंडरा रहे थे। फिर उनमें से एक ने झपट्टा मार कर कुछ उठाया और भागने लगा, तभी वहां बैठी एक औरत ने देख लिया और उसे पकड़ कर पीटने लगी।’’  ’’

‘’शायद बच्चा भूखा होगा,इसलिए मौका देख कर खाने की कोई चीज उठाई और भाग खड़ा हुआ,पर पकड़ा गया और।खैर अब छोड़ो भी, देखो उनकी दावत ख़त्म हो गई ,वे लोग जा रहे हैं। ‘’ —फत्ते ने कहा और फिर उस तरफ बढ़ चला। धूप वाली जगह अब खाली हो गई थी। लेकिन वह बैठ न  सका ,क्योंकि उस जगह जूठन और कचरा बिखरा हुआ था। तीनों जने कुछ देर चुप खड़े रह गए।

                                      

फिर कूड़ा करकट उठा कर डस्ट बिन में डालने लगे। कागज में लिपटी रोटियां नीचे घास पर पड़ी थीं। लेकिन सफाई का काम बीच में ही रुक गया। क्योंकि एक सिपाही डंडा हिलाता आ पहुंचा। उसने कहा—‘‘रुको ,रुक जाओ। जो कुछ हाथ में है नीचे डाल दो।’’

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तीनों ने वैसा ही किया,उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि बात क्या है।

‘‘क्या उठा रहे थे?’’—सिपाही ने डंडे से जमीन पर पड़े कचरे को टटोला।

‘’जी यहाँ सफाई कर रहे थे बैठने से पहले। ‘’—फत्ते ने कहा।

‘’क्यों?’’

‘’खाना खाने के लिए।’’—राजवीर ने कहा।

अब सिपाही की नजर घास पर पड़े तीन पैकटों पर टिक गई थी -–‘’इनमें क्या है?’’

‘’ इनमें ’’—बीरन कहते कहते रुक गया।

‘’खोलो इन्हें।’’

अब मजबूरी थी ।रूखी रोटियां, प्याज और हरी मिर्चें देख कर सिपाही जोर से हंसा और डंडा हिलाता हुआ चला गया।

राजबीर, फत्ते और बीरन घास पर बैठ गए,खाना सामने खुला पड़ा था। ‘’पहले गंदे हाथ तो धो  

 लें।’’—कहता हुआ फत्ते कोने में लगे हैण्ड पंप की ओर बढ़ गया। तीनों हाथ साफ़ करके भोजन करने आ बैठे,पर शुरू न कर सके। इतनी देर में वहां कई बच्चे आ खड़े हुए थे। राजबीर ने देखा एक बच्चे के माथे पर सूख गए खून का निशान था। तो क्या यह वही था जिसे खाना चुराने के लिए पिटाई खानी पड़ी थी। उसने इशारे से उस बच्चे को अपने पास बुलाया तो सारे बच्चे चले आये। वे आठ थे।

       ‘’तुमने खाना चुराया था?’’—उसने पूछ लिया।

       ‘’भूख लगी थी। ‘’—बच्चे ने कहा और रोटियों की तरफ देखने लगा। तीनों ने महसूस किया कि आठ जोड़ी आँखें जैसे रोटियों पर रेंग रही थीं। तीनों ने एक दूसरे की ओर देखा—बच्चों से घिरे रह कर वे रोटी कैसे खा सकते थे। बच्चों के हाव भाव से लग रहा था कि वे भूखे थे।

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‘’तीनों ने जेबें टटोल कर पैसे निकाले फिर बीरन ने फत्ते से कहा—‘‘इन बच्चों के लिए कुछ खाने को ले आओ।’’ वह मन ही मन कह रहा था—‘‘हम इन बच्चों के जाने के बाद या इनके साथ ही खा सकते हैं।’’    

         फत्ते के जाने के बाद बीरन और रामबीर बच्चों से बातें करने लगे।सभी सात-आठ वर्ष के रहे होंगे। वे कहाँ रहते हैं,उनके माँ –बाप कौन हैं तथा ऐसे ही दूसरे सवालों के जवाब किसी बच्चे के पास नहीं थे। लेकिन इतना साफ़ था कि वे उन हज़ारों बच्चों में थे जो शहर की सड़कों पर रहते हैं,        तभी फत्ते लौट आया। वह दो ब्रेड और चने-मुरमुरे लाया था। ब्रेड को रैपर हटा कर बच्चों के सामने रख दिया गया। बच्चों ने लेने के लिए हाथ बढ़ाये तो बीरन ने टोक दिया –‘‘पहले हाथ धो कर आओ फिर खाना शुरु करना।’’ जवाब बच्चों की हंसी ने दिया। वे दौड़ कर हैण्ड पंप पर जा पहुंचे। काफी देर तक हैण्ड पंप चलने की आवाज आती रही। वे पानी से खेल कर रहे थे। बीच बीच में आवाजें सुनाई दे रही थीं—‘गरम गरम।’ शायद बच्चों को हैण्ड पंप से निकलते गुनगुने पानी में मज़ा आ रहा था।

         एकाएक बीरन को शरारत सूझी, वह चिल्लाया—‘’ब्रेड ख़त्म।’’ इतना सुनते ही बच्चों की टोली दौडती हुई वापस आ गई। उनके हाथों से पानी टपक रहा था।आते वे ब्रेड पर टूट पड़े, फिर जैसे कोई भूली बात याद आ जाये, उन्होंने इन तीनों की ओर भी ब्रेड के पीस बढ़ा दिए—‘’तुम भी तो खाओ।’’ बीरन,फत्ते और रामवीर ने ब्रेड के स्लाइस ले लिए फिर अपनी रोटियाँ ब्रेड के साथ रख दीं। कुछ देर में वहां केवल ब्रेड के रैपर रह गए,बच्चा टोली ने हरी मिर्चें तक चट कर डाली थीं।

         दावत ख़त्म हो चुकी थी,सूरज पश्चिम में उतर रहा था,हवा ठंडी हो गई थी। अपने घरों की ओर लौटते परिन्दों का शोर गूँज रहा था। ‘‘क्या कल भी हमें खाने को मिलेगा?’’—बच्चा टोली पूछ रही थी। रामवीर ने पूछा –‘’लेकिन तुम सब मिलोगे कहाँ?’’

       ‘’ दिन में सड़क पर और रात में पुल के नीचे जोगी बाबा के साथ।’’—एक आवाज़ आई।

       ‘’यह जोगी बाबा कौन हैं?’—फत्ते ने पूछा।

      ‘’दिन में पता नहीं पर रात में पुल के नीचे ही मिलते हैं। कभी कभी वे हमें गीत और कहानियां भी सुनाते हैं।’’—बच्चे कह रहे थे।

       ‘’क्या तुम्हारे जोगी बाबा हमें भी सुनायेंगे गीत और कहानी?’’—बीरन ने हंस कर पूछा ।

     ‘’पहले यह बताओ ,क्या कल दिन में भी मिलेगा आज जैसा खाना?’’—बच्चा टोली पूछ रही थी।

                                                        

       बीरन,फत्ते और रामवीर की आँखें मिलीं ,सोचने में कुछ पल लगे—

            ‘’ हाँ,कल भी दावत होगी। ‘’—तीनों ने एक साथ कहा।

        बच्चे उछलते हुए चले गए। ये तीनों खड़े थे कल की दावत के बारे में सोचते हुए।

                                                                     ( समाप्त)  

 

Wednesday 25 November 2020

बुरी लाइन-कहानी-देवेंद्र कुमार

 

                         बुरी लाइन-कहानी-देवेंद्र कुमार

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   शाम ढल चुकी थी। बाजार बंद होने लगा था। कई दुकानों में इक्के दुक्के ग्राहक नज़र आ रहे थे। लेकिन एक दुकान के बाहर खरीदारों की भीड़ थी। लम्बी लाइन लगी थी, लोग आगे बढ़ने के लिए धक्का मुक्की कर रहे थे। 'पापा,यहाँ इतनी भीड क्यों! देखिये न कितनी लम्बी लाइन लगी है।क्या सामान बिकता है यहां?'रजत ने पिता भुवन से पूछा।

   रजत अपने पिता के साथ मौसी के घर से लौट रहा था। दोनों रिक्शा में थे। रजत ने एक दुकान के बाहर भीड़ और लम्बी लाइन देख कर आश्चर्य से पूछा था।

  भुवन ने कहा -'यह एक बुरी लाइन है। अच्छे लोग इस लाइन में कभी खड़े नहीं होते। यहाँ शराब बिकती है। यहाँ न जाने कितने अविनाश और रंजीत जैसे लोग खड़े रहते हैं और उन पैसों से शराब खरीदते हैं जिन्हें घर परिवार और बच्चों पर खर्च होना चाहिए। इसी बुरी आदत के कारण ऐसे लोगों के घर वाले दुखी रहते हैं| '

      ‘'पापा ,कौन हैं ये अविनाश और रंजीत?'

     भुवन ने बेटे की बात का जवाब नहीं दिया। रिक्शा बाजार से गुजर कर घर के सामने रुक गई। अंदर जाकर भुवन  रजत के बाबा विशाल से बातें करने लगे।पर रजत उसी बुरी लाइन के बारे में सोचता रहा-'कैसे होते हैं शराब पीने वाले लोग ?' पिता के कहे नाम कानों में गूंजते रहे। कुछ देर बाद मौका पाकर उसने पिता से पूछा-'क्या आप अविनाश और रंजीत को जानते हैं?'

   भुवन उस समय कुछ लिख रहे थे। बोले-'मैं किसी को नहीं जानता।'और फिर लिखने में व्यस्त हो गए। भुवन ने जवाब दे दिया था पर रजत की तसल्ली नहीं  हुई।वह सोच रहा था-जब पापा अविनाश और रंजीत को नहीं जानते तो फिर उन्हें कैसे पता कि वे दोनों उस बुरी लाइन में खड़े थे!

   छुट्टियों के दिन थे,इसलिए रजत अपने बाबा विशाल के साथ सुबह बाग़ में घूमने चला जाता था। उस दिन वह बाग़ में दूसरे बच्चों के साथ खेल रहा था तो उसने सुना-कोई अविनाश का नाम पुकार रहा था। रजत ने उस व्यक्ति की ओर  देखा जिसे अविनाश कह कर पुकारा गया था।

     एक युवक कुछ बच्चों के बीच बैठा था। बच्चे खिलखिला रहे थे।' तो यह है अविनाश जिसके बारे में पापा ने बताया था'।और  रजत  उसके पास जाकर खड़ा हो गया।

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   'तुम्हारा  नाम अविनाश है?'

   'हाँ मैं ही अविनाश हूँ।'

   'तो तुम उस बुरी लाइन में खड़े होते हो।'

    'बुरी लाइन! यह  क्या कह रहे हो तुम।'यह कहते हुए अविनाश उठ कर रजत की ओर बढ़ा तो रजत भाग कर बाबा के पास चला आया ,वह कुछ डर गया था।

    अविनाश ने विशाल को नमस्कार किया। और पूछने लगा-'न जाने यह बच्चा किस बुरी लाइन की बात कर रहा है।'

   क्या बात है रजत ,बुरी लाइन का क्या मतलब है?'विशाल ने पूछा।

    'पापा कह रहे थे।और …' रजत इतना ही कह पाया।

    विशाल ने अविनाश से कहा-'माफ़ करना बेटा ,शायद इसे खुद ही पता नहीं कि यह क्या कह रहा है।

     अविनाश फिर से हँसते खिलखिलाते बच्चों के बीच चला गया। 'बाग़ से घर लौटते समय रजत ने बता दिया जो कुछ भुवन ने बुरी लाइन के बारे में कहा था।

     बाग़ से घर लौटने के बाद विशाल ने भुवन को बाग़ में हुई घटना के बारे में बताया और पूछने लगे-'यह बुरी लाइन का क्या चक्कर है और तुम अविनाश और रंजीत को कैसे जानते हो?'

  भुवन ने कहा-'पिता जी, एक दिन मैं बाजार से गुजर रहा था। वहां मैंने देखा कि पुलिस वाले दो युवकों को पकड़ कर ले जा रहे थे। वहां जमा लोग कह रहे थे कि ये दोनों अविनाश और रंजीत चोर हैं,ये लोगों को परेशान करते हैं। इन दोनों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए।'

   'तो तुम अविनाश और रंजीत को नहीं जानते।'

   'जी नहीं। मैंने तो पहली बार उन दोनों को पुलिस के साथ देखा था। '-भुवन ने कहा।

   विशाल ने कहा-' क्या तुम जानते हो कि शराब की दुकान के बाहर लगी  लाइन की चर्चा करते हुए तुमने अविनाश और रंजीत के नाम लिए थे रजत के सामने। इस कारण रजत के कोमल मन ने अविनाश के नाम को ही बुरा मान लिया है। आज बाग़ में जो कुछ हुआ वह ठीक नहीं था। तुम्हें भविष्य में इस बात का ध्यान रखना होगा।

  भुवन को महसूस हुआ कि उनसे बड़ी भूल हो गई,उसे तुरंत सुधारना चाहिए।

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अगली सुबह भुवन पिता और रजत के साथ बाग़ में गए,पिछली सुबह की तरह अविनाश आज भी बच्चों के बीच बैठा था। वह बच्चा टोली को एक कहानी सुना रहा था। अविनाश पेशे से अध्यापक था और बच्चों के लिए कहानियां लिखता था। भुवन ने कुछ सोचा और बच्चा टोली के पास जाकर बैठ गए। कहानी पूरी हुई तो भुवन ने संकेत से बुलाया। अविनाश उठकर भुवन के पास आ  गया।

 भुवन ने कहा-'कल मेरे बेटे ने आपसे बहुत गलत व्यवहार किया , मैं उसके लिए क्षमा मांगता हूँ और फिर शराब की दूकान के बाहर लगी लाइन के बारे में बताया तो अविनाश हंस पड़ा। -'अब मैं पूरी बात समझ गया हूँ। 'बच्चों का कोमल मन हर अच्छी बुरी बात को झट ग्रहण कर लेता है । रजत ने यही समझ लिया है कि हर अविनाश और रंजीत बुरे होते हैं ,अन्यथा वह मुझसे इस तरह कभी बात न करता। खैर जो कुछ हुआ उसे भूल जाना चहिये।'

 अब भुवन को मौका मिला-'बोले-'अगर आप सचमुच उसकी बात को भूल चुके हैं तो कल दोपहर की चाय हमारे साथ पीजीए। और आपको सपरिवार आना है।'

   अविनाश ने तुरंत हामी भर दी। अगले दिन वह पत्नी  लता और बेटे तरल के साथ आ गया।उसने बच्चों की कहानियों की नई किताब रजत को दी। रजत और तरल में झट दोस्ती हो गई। विदा लेते समय अविनाश ने रजत से कहा-'अब तुम्हारी बारी है।मेरे पास बच्चों की किताबों की बड़ी लाइब्रेरी है,’

   रजत ने कहा-'अंकल ,हम सब जरूर आएंगे। इतनी ही देर में मैं और तरल दोस्त बन गए हैं। '

   एक बुरी घटना ने नई दोस्ती को जन्म दे दिया था। (समाप्त )

Wednesday 18 November 2020

पहाड़ कहां जाए -कहानी-देवेंद्र कुमार

 

पहाड़ कहां जाए -कहानी-देवेंद्र कुमार

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  एक था पहाड़। पहाड़ के अंदर रहता था पहाड़ देव। एक दिन एक चरवाहा एक चट्टान पर बैठा गा रहा था।

  उड़ जा पहाड़

  बढ़ जा पहाड़

  चरवाहे का गीत पहाड़ देव ने सुना। कई बार सुना। ध्यान से सुना और सोचने लगा, ‘चरवाहे ने ठीक कहा। मुझे भी चलना चाहिए।यात्रा के लिए मचल उठा पहाड़ देव। चट्टानें लुढ़कने लगीं। गरज सुनाई दी। पहाड़ के ढलान पर बसे गांव में हलचल मच गई। ग्रामवासी घबराकर घरों से निकल आए। सब सोच रहे थे, ‘‘ये क्या हुआ?’’ क्या कोई आफत आने वाली है? हमें यह गांव छोड़कर कहीं दूसरी जगह चले जाना चाहिए।“

  गांव में रहती थी एक बुढि़या। धन्नी ताई कहते थे उसे सब। सारा दिन अपने आंगन में उतरने वाले पक्षियों के दाना चुगाती थी। लोगों को गांव छोड़कर चले जाने की बातें करते सुना तो धन्नी घबरा गई। सोचने लगी, ‘‘मैं कहां जाऊंगी, परिंदों को दाना कैसे चुगाऊंगी।’’ सोचते-सोचते वह रो पड़ी।

  एक काली चिडि़या धन्नी ताई के आंगन में रोज सुबह आती थी- दाना चुगने के लिए। उसे धन्नी अच्छी लगती थी, जो बिना किसी स्वार्थ के सब परिंदों को दाना चुगाती थी। काली चिडि़या ने सब कुछ सुना और समझ गई। सोचने लगी, ‘‘अगर गांव खाली हो गया तो हमें दाना कौन चुगाएगा? फिर तो धन्नी भी चली जाएगी। नहीं, नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए।“

  काली चिडि़या उड़कर चट्टान पर जा बैठी। वह पहाड़ देव को जानती थी। कभी-कभी उड़कर एक दरार के अंदर चली जाती थी। वहां से पहाड़ देव के साथ बातें करती थी। काली चिडि़या वहीं जा पहुंची। उसने पूछा=   ‘‘पहाड़ देव, क्या हो रहा है? चट्टानें क्यों गिर रही हैं? गांववाले घायल हो जाएंगे।’’

  पहाड़ देव ने कहा, ‘‘मैं यहां से कहीं और जाना चाहता हूं। एक ही स्थान पर रहते-रहते ऊब गया हूं।’’

  ‘‘यह कैसा पागलपन है। भला पहाड़ भी कभी चलते हैं।’’ काली चिडि़या ने सोचा लेकिन अगर पहाड़ सचमुच ही चल पड़ा तब तो गांव एकदम नष्ट हो जाएगा। जैसे भी हो पहाड़ को रोकना चाहिए।

‘‘कहां जाओगे?’’ चिडि़या ने पूछा।

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  ‘‘अरे, इतनी बड़ी दुनिया है, दिशाएं खुली हैं। कहीं भी जा सकता हूं।’’ पहाड़ के अंदर से आवाज आई।

  ‘‘ऐसे नहीं, पहले यात्रा का कार्यक्रम बनता है फिर यात्रा पर निकलते हैं।’’ चिडि़या ने कहा।

  ‘‘तो फिर तुम्हीं बताओ मुझे कब और किधर जाना चाहिए?’’ पहाड़ देव ने पूछा।

   ‘‘मैं देखकर आती हूं कि तुम्हें किस दिशा में यात्रा करनी चाहिए। जब तक मैं न लौटूं तब तक हिलना-डुलना मत।’’ चिडि़या बोली।

  ‘‘जल्दी आना।’’पहाड़ देव ने कहा।

   काली चिडि़या दरार से निकलकर एक तरफ जा बैठी। सोचने लगी, सोचती रही। उसने देखा धन्नी ताई अपने आंगन में बैठी परिंदों को दाना चुगाती हुई कह रही थी, ‘‘और कितने दिन तक...’’ काली चिडि़या दरार में जाकर फिर से पहाड़ देव से बातें करने लगी। बोली-‘‘मैं देख आई...लेकिन...’’

  ‘‘लेकिन क्या...’’

  ‘‘कुछ मुश्किल है तुम्हारी यात्रा।’’

  ‘‘वह क्यों?’’

  ‘‘पूरब में तुमसे थोड़ी दूर पर एक लंबी-चौड़ी और गहरी झील है। तुमने तो देखी ही होगी।’’ चिडि़या बोली।

  ‘‘मैं कैसे देखता...मैं तो आज तक कहीं गया ही नहीं।’’ पहाड़ देव ने कहा।

  ‘‘यही तो मैं भी सोच रही हूं, गहरी झील कैसे पार करोगे? अगर तुम्हें तैरना न आता हो तो गहरी झील में डूब सकते हो।’’

  ‘‘और पश्चिम में...’’

   ‘‘हां, उधर रास्ता तो हैं पर वहां दूर-दूर तक दलदल फैला है। दलदल में डूबोगे तो नहीं, पर कीचड़ में से निकलोगे कैसे...’’

  ‘‘तो दक्षिण की तरफ चल दूंगा मैं...’’

  चिडि़या चहचहाई-‘‘तुम भी कितने भोले हो पहाड़ देव...अरे उधर ही तो समुद है। इतना गहरा कि क्या बताऊं... जब तुम झील के पानी पर नहीं तैर सकते तो गहरे समुद्र में तो तुम्हारा पता ही नहीं चलेगा।’’

  ‘‘तब तो फिर एक ही रास्ता बचता है कि मैं उत्तर दिशा में चलना शुरू कर दूं...’’ पहाड़ देव बोला।

   ‘‘हा, हां,जरूर जाओ... और उत्तर में खड़े हिमालय से टकराकर चूर-चूर हो जाओ...। अपने पड़दादा हिमालय का नाम नहीं सुना क्या?’’ कहकर चिडि़या फिर हंसी।

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   ‘‘तो तुम्हारा मतलब है मैं यहीं पड़ा रहूं, कहीं न जाऊं?’’ पहाड़ देव ने परेशान स्वर में पूछा।

  ‘‘जरूर जाओ अगर जा सको तो...। लेकिन यह तो कहो इस समय तुम्हरे मन में कहीं जाने का विचार आया कैसे?’’

  ‘‘मैंने चरवाहे को गाते सुना था।

उड़ जा पहाड़

बढ़ जा पहाड़...’’

    अरे, चरवाहे ने तो मजाक किया था...वह चाहता है तुम यहां से हट जाओ तो उसे रोज-रोज चट्टानों पर न चढ़ना पड़े। ‘‘ चिडि़या को लग रहा था अब बात बन रही है।

  ‘‘तो यह बात है...मैं उस चरवाहे को...‘‘पहाड़ देव ने गुस्से से कहा और पत्थर ढलान पर फिर लुढ़कने लगे।

  ‘‘देखो संभालो अपने को...चरवाहे  के चक्कर में गांव बरबाद हो जाएगा-धन्नी ताई हमें दाना चुगाना छोड़ देगी।’’

  ‘‘धन्नी ताई...वह कौन है?’’ पहाड़ देव ने पूछा।

  ‘‘ठीक है, एक दिन मैं धन्नी ताई को लेकर आऊंगी तुम्हारे पास... उसे बहुत-सी कहानियां याद हैं। सुनोगे तो आने-जाने की बात सदा के लिए भूल जाओगे’’ चिडि़या ने पहाड़ देव को तसल्ली दी।

  ‘‘तो अभी बुला लाओ न...मेरा मन कहानी सुनने का हो रहा है।’’

  ‘‘ठीक है, बुला लाऊंगी लेकिन  वादा करो कहीं आने-जाने की बात नहीं करोगे...’’

  ‘‘मैं वादा करता हूं’’ पहाड़ देव ने कहा तो पत्थर लुढ़कने बंद हो गए। आवाजें थम गईं, काली चिडि़या उड़ी और धन्नी ताई के आंगन में जा बैठी।’’ वह जोर जोर चूं चिर्र करने लगी. चिड़िया कह रही थी-हमारी प्यारी धन्नी ताई,उदासी छोड़ कर जरा मुस्करा दो. मैंने पहाड़ देव को समझा दिया है. संकट टल  गया.तभी मन में आया-अगर पहाड़ देव ने धन्नी ताई से कहानी सुनने की जिद ठान ली तो..

'तो मैं ही धन्नी ताई बन  जाऊंगी। 'चिड़िया  ने मन ही मन कहा और  दाने चुगने लगी.

  क्या कोई है जो हमें एक-दूसरे की बात समझा सके। क्या धन्नी ताई को मालूम था कि काली चिडि़या   ने उन लोगों को किस बड़े संकट से निकाल लिया था।                      ( समाप्त)

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