दावत-कहानी-देवेंद्र कुमार
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मौसम ठंडा था, तेज हवा बह रही थी ,लेकिन धूप गरम थी और दिन छुट्टी का था,इसलिए
जहाँ धूप थी वहां लोग सपरिवार मौजूद थे। बच्चों की धमाचौकड़ी और किलकारियों के बीच
खाना पीना चल रहा था। छोटे तिकोने पार्क में एक बड़ा परिवार धूप
को घेर कर बैठा हुआ था। उन्हें पता नहीं था कि कोने में खड़े तीन जने भी धूप में
बैठ कर रोटी खाना चाहते हैं।लेकिन उन लोगों को किसी ने मना तो नहीं किया था। धूप
सबकी थी, उस पार्क में कोई कहीं भी बैठ सकता था।लेकिन फिर भी वे तीनों दूर खड़े थे,
पता नहीं क्यों।
वे तीन थे-- रामवीर,बीरन और फत्ते। वे धूप में बैठ कर आराम से खाना खा
सकते थे,लेकिन फिर भी इन्तजार कर रहे थे। क्यों भला?
उनके हाथ में कागज़ में
लिपटी रूखी रोटियाँ, प्याज और हरी मिर्चें थीं। तरह तरह के
स्वादिष्ट पकवानों का आनंद लेते लोगों के बीच रोटी के पैकेट खोल कर वे तीनों अपने
गरीब भोजन का मजाक नहीं उडवाना चाहते थे। इसलिए इन्तजार कर रहे थे कि दावत का आनंद
लेते लोग उठ कर जाएँ तो वे भी धूप का मजा लेते हुए भोजन कर सकें।
तभी फत्ते ने बीरन से कहा—‘अरे देखो, देखो तो सही, वह
औरत उस बच्चे को कैसे मार रही है।’’
बीरन बोला—‘’हाँ मैंने सब देखा है। कई बच्चे कुछ देर से खाना खाते लोगों के आस
पास मंडरा रहे थे। फिर उनमें से एक ने झपट्टा मार कर कुछ उठाया
और भागने लगा, तभी वहां बैठी एक औरत ने देख लिया और उसे पकड़ कर पीटने लगी।’’ ’’
‘’शायद बच्चा भूखा होगा,इसलिए मौका देख कर खाने की कोई चीज उठाई और भाग खड़ा
हुआ,पर पकड़ा गया और।खैर अब छोड़ो भी, देखो उनकी दावत
ख़त्म हो गई ,वे लोग जा रहे हैं। ‘’ —फत्ते ने कहा और फिर उस तरफ बढ़ चला। धूप वाली जगह अब खाली हो गई थी। लेकिन वह बैठ न सका ,क्योंकि उस जगह जूठन और कचरा बिखरा हुआ था।
तीनों जने कुछ देर चुप खड़े रह गए।
फिर कूड़ा करकट उठा कर डस्ट बिन में डालने लगे। कागज में
लिपटी रोटियां नीचे घास पर पड़ी थीं। लेकिन सफाई का काम बीच में ही रुक गया। क्योंकि एक सिपाही डंडा हिलाता आ पहुंचा। उसने कहा—‘‘रुको ,रुक जाओ। जो कुछ
हाथ में है नीचे डाल दो।’’
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तीनों ने वैसा ही किया,उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि बात क्या है।
‘‘क्या उठा रहे थे?’’—सिपाही ने डंडे से जमीन पर पड़े कचरे को टटोला।
‘’जी यहाँ सफाई कर रहे थे बैठने से पहले। ‘’—फत्ते ने कहा।
‘’क्यों?’’
‘’खाना खाने के लिए।’’—राजवीर ने कहा।
अब सिपाही की नजर घास पर पड़े तीन पैकटों पर टिक गई थी -–‘’इनमें क्या है?’’
‘’ इनमें …’’—बीरन कहते कहते रुक गया।
‘’खोलो इन्हें।’’
अब मजबूरी थी ।रूखी रोटियां, प्याज और हरी मिर्चें देख कर सिपाही जोर से हंसा
और डंडा हिलाता हुआ चला गया।
राजबीर, फत्ते और बीरन घास पर बैठ गए,खाना सामने खुला पड़ा था। ‘’पहले गंदे हाथ
तो धो
लें।’’—कहता हुआ
फत्ते कोने में लगे हैण्ड पंप की ओर बढ़ गया। तीनों हाथ साफ़ करके भोजन करने आ
बैठे,पर शुरू न कर सके। इतनी देर में वहां कई बच्चे
आ खड़े हुए थे। राजबीर ने देखा एक बच्चे के माथे पर सूख गए खून का निशान था। तो
क्या यह वही था जिसे खाना चुराने के लिए पिटाई खानी पड़ी थी। उसने इशारे से उस
बच्चे को अपने पास बुलाया तो सारे बच्चे चले आये। वे आठ थे।
‘’तुमने खाना
चुराया था?’’—उसने पूछ लिया।
‘’भूख लगी थी।
‘’—बच्चे ने कहा और रोटियों की तरफ देखने लगा। तीनों ने महसूस किया कि आठ
जोड़ी आँखें जैसे रोटियों पर रेंग रही थीं। तीनों ने एक दूसरे की
ओर देखा—बच्चों से घिरे रह कर वे रोटी कैसे खा सकते थे। बच्चों के हाव भाव से लग
रहा था कि वे भूखे थे।
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‘’तीनों ने जेबें टटोल कर पैसे निकाले फिर बीरन ने फत्ते से
कहा—‘‘इन बच्चों के लिए कुछ खाने को ले आओ।’’ वह मन ही मन कह रहा था—‘‘हम इन
बच्चों के जाने के बाद या इनके साथ ही खा सकते हैं।’’
फत्ते के जाने के बाद बीरन और रामबीर बच्चों से
बातें करने लगे।सभी सात-आठ वर्ष के रहे होंगे। वे कहाँ रहते हैं,उनके माँ –बाप कौन
हैं तथा ऐसे ही दूसरे सवालों के जवाब किसी बच्चे के पास नहीं थे। लेकिन इतना साफ़
था कि वे उन हज़ारों बच्चों में थे जो शहर की सड़कों पर रहते हैं, तभी फत्ते लौट आया। वह दो ब्रेड और
चने-मुरमुरे लाया था। ब्रेड को रैपर हटा कर बच्चों के सामने रख दिया गया। बच्चों
ने लेने के लिए हाथ बढ़ाये तो बीरन ने टोक दिया –‘‘पहले हाथ धो कर आओ फिर खाना शुरु
करना।’’ जवाब बच्चों की हंसी ने दिया। वे दौड़ कर हैण्ड पंप पर जा पहुंचे। काफी देर
तक हैण्ड पंप चलने की आवाज आती रही। वे पानी से खेल कर रहे थे। बीच बीच में आवाजें
सुनाई दे रही थीं—‘गरम गरम।’ शायद बच्चों को हैण्ड पंप से निकलते गुनगुने पानी में
मज़ा आ रहा था।
एकाएक बीरन
को शरारत सूझी, वह चिल्लाया—‘’ब्रेड ख़त्म।’’ इतना सुनते ही बच्चों की टोली दौडती
हुई वापस आ गई। उनके हाथों से पानी टपक रहा था।आते वे ब्रेड पर टूट पड़े, फिर जैसे
कोई भूली बात याद आ जाये, उन्होंने इन तीनों की ओर भी ब्रेड के पीस बढ़ा दिए—‘’तुम
भी तो खाओ।’’ बीरन,फत्ते और रामवीर ने ब्रेड के स्लाइस ले लिए फिर अपनी रोटियाँ
ब्रेड के साथ रख दीं। कुछ देर में वहां केवल ब्रेड के रैपर रह गए,बच्चा टोली ने
हरी मिर्चें तक चट कर डाली थीं।
दावत ख़त्म
हो चुकी थी,सूरज पश्चिम में उतर रहा था,हवा ठंडी हो गई थी। अपने घरों की ओर लौटते
परिन्दों का शोर गूँज रहा था। ‘‘क्या कल भी हमें खाने को मिलेगा?’’—बच्चा टोली पूछ
रही थी। रामवीर ने पूछा –‘’लेकिन तुम सब मिलोगे कहाँ?’’
‘’ दिन में
सड़क पर और रात में पुल के नीचे जोगी बाबा के साथ।’’—एक आवाज़ आई।
‘’यह जोगी
बाबा कौन हैं?’—फत्ते ने पूछा।
‘’दिन में पता
नहीं पर रात में पुल के नीचे ही मिलते हैं। कभी कभी वे हमें गीत और कहानियां भी
सुनाते हैं।’’—बच्चे कह रहे थे।
‘’क्या
तुम्हारे जोगी बाबा हमें भी सुनायेंगे गीत और कहानी?’’—बीरन ने हंस कर पूछा ।
‘’पहले यह बताओ
,क्या कल दिन में भी मिलेगा आज जैसा खाना?’’—बच्चा टोली पूछ रही थी।
बीरन,फत्ते
और रामवीर की आँखें मिलीं ,सोचने में कुछ पल लगे—
‘’ हाँ,कल भी दावत होगी। ‘’—तीनों ने एक साथ कहा।
बच्चे उछलते
हुए चले गए। ये तीनों खड़े थे कल की दावत के बारे में सोचते हुए।
( समाप्त)