Saturday 10 February 2018

उसकी डायरी


हमें ट्रेन का इंतजार था। सर्दी की सांझ। सूरज डूबने से बहुत देर पहले ही हवा ठण्डी हो गई थी और अब तो अंधेरा भी अच्छी तरह घुल चुका था। लम्बे प्लेटफार्म पर हवा-पानी से बचने का कोई इंतजाम नहीं था। रोशनी थी, लेकिन प्लेटफार्म के दोनों छोरोंको बांधकर जलते बल्बों के आसपास ही लटक कर रह गई थी।
मैं, पत्नी और बच्चे झूरा के मेले से लौट रहे थे। हम शाम से काफी पहले चल दिए थे। पहले सूना प्लेटफार्म डरा रहा था और अब यह फिक्र थी कि सर्दी की रात में घर के दरवाजों की तरह मजबूती से बंद कपाटों से कैसे अंदर घुसा जाएगा-चिरौरी या जबरदस्ती किसका सहारा लेना होगा, इस बारे में भी कुछ नहीं कहा जा सकता था। क्योंकि उस छोटे स्टेशन पर गाड़ी कुल जमा दो मिनट रुकती थी। भीड़ थी कि बढ़ती ही जा रही थी।
प्लेटफार्म पर दहकती अंगीठी के चारों ओर आ जुटे भाग्यशाली लोगों को चाय वाला किस्सागोई के अंदाज में बता रहा था कि पीछे ऊसर में बरसाती पानी पिछले सौ सालों से ठहरा हुआ है। एक बड़ी झील बन गई है। सर्दियों में बर्फ जम जाती है। कहते हैं, आधी रात को परियां उतरती हैं वहां।
गाड़ी आई, उस अफरातफरी के बीच बच्चों को संभालते-घसीटते हम कैसे और कब ठसाठस डिब्बे में समा गए इसका होश बाद में आया। ट्रेन ने रफ्तार पकड़ ली थी। अंदर लोग आराम से ऊंघ रहे थे। एक  चौकड़ी ने सामान इधर-उधर खिसका कर ताश के लिए जगह निकाल ली थी। धुएं से हवा भारी थी। गलियारे के पड़े सामान को लांघती पत्नी  निंदासे  बच्चों को संभालती हुई अंदर की तरफ ही बढ़ती हजा रही थी।
थोड़ी देर बाद अंदर से पत्नी का संकेत मिला। यानी बच्चों को लिटाने के बाद मेरे लिए भी जगह निकाल ली गई थी। दरवाजे के पास हल्की-फुरफुरी जगाने वाली ठंडी हवा आकर टकरा रही थी, लेकिन मेरा मन अंदर की तरफ बढ़कर सीट लेने का न हुआ। कंधे पर लटके झोले में मेरे प्रिय लेखक की नई पुस्तक थी। मैंने पत्नी के संकेत का जवाब कुछ इस तरह दिया कि हां और न दोनो समझे जा सकते थे। थोड़ी देर बाद पत्नी का दिखाई देना बन्द हो गया। शायद वह भी वहीं कहीं आराम से ऊंघने लगी थी।
मैंने उपन्यास खोल लिया। डिब्बे में चुप्पी पसरी थी। बस, कभी-कभी ताश के खिलाडि़यों का दबा ठहाका गूंज जाता। किसी बच्चे के कुनमुनाने की आवाज आती, तभी उसे कोई अलसाई हुई थपकी शांत कर देती। लगा जैसे पूरी गाड़ी में कोई नहीं हैं, मैं अकेला हो अंतहीन निशीथ यात्रा पर निकल पड़ा हूं।
दो स्टेशन पीछे गुजर गए- नए स्टेशन पर दरवाजा तेजी से धकेला गया। खट-खट करते हुए कुछ लोग अंदर घुस आए। कोई भारी चीज अंदर घसीटी गई और गाड़ी फिर चल दी। वे तीन थे- दो सिपाही अैर लाल वर्दी वाला एक कुली। वे मुस्करा रहे थे, शायद इसलिए कि उतनी सर्दी में कितनी आसानी से डिब्बे में घुस आए थे। लेकिन इन लोगों को कब किस जगह दिक्कत होती है भला!
एक के हाथ में कोई पुरानी-सी किताब या डायरी थी। उसी के पन्ने उलट-पलटकर पढ़ना शुरू कर दिया उसने। बाकी दोनों ध्यान से सुन रहे थे। उनके संवाद नजदीक से फेंके गए ढेलों की तरह मेरे कानों से टकरा रहे थे। सुने बिना रहा नहीं जा रहा था। न जाने किसकी बात थी। कोई  प्रेम -वेम का चक्कर था। आखिर मैं पढ़ने में मन रमा नहीं सका। अब कोफ्त हो रही थी। इससे तो कहीं सीट पर बैठकर ऊंघना ही बेहतर था।
एकाएक भारी बूटों वाली टांगों के बीच से फर्श पर नजर गई। वहां कोई लेटा था-चुपचाप। शायद सो रहा था। वहां से मुझे उसकी देह धारियों में बंटी दिखाई दे रही थी। इखरे-बिखरे बाल, बदन पर आधी बांहों वाली बनियान (हां, उतनी सर्दी में भी), और काली पैंट। पट्टी वाली चप्पलें सिर के पास ही रखी दिखाई दीं। कुछ उलझन हुई। ऊं हूं। कोई भी भला आदमी सोया नहीं रह सकता इस तरह। जरूर बेहोश है, शायद जमकर मारपीट की गई है।
सिपाही पढ़ रहा था- ‘‘मैं तुम्हें देखता हूं और बहुत-सी बातें उभरती हैं मन में-मजनूं था साला।’’
बाकी दोनों ने उसकी हंसी में खुलकर साथ दिया। फिर कुली ने कहा, ‘‘आगे पढ़ो न।’’
‘‘अरे, वही सब ऊलजलूल लिख है। सारी डायरी इश्क-मुहब्बत की बातों से भरी हुई है इस हद तक पागल था कि अपना नाम-पता भी नहीं लिखा। देखो, क्या ख़त लिखा है अपनी माशूका के नाम- ‘‘तुम मुझे चाहती हो, लेकिन घर की दीवारें रोटी-रोटी पुकारती है। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं? नहीं, नहीं, तुम क्या बताओेगी, मुझे ही करना होगा कुछ।’’
‘‘हां, करना होगा। कर तो लिया स्साले।’’ यह दूसरी आवाज थी।
एकाएक मेरी निगाह स्ट्रेचर पर लेटे आदमी के पैर पर गई जो बड़े अजीब ढंग से मुड़कर कानों के पास आया था। मैं आगे बढ़कर झांकने से नहीं रोक सका अपने को- स्ट्रेचर पर एक क्षत-विक्षत शव पड़ा था। मेरा मन तो पहले ही कह रहा था कि कोई भी इन भारी बूट वाले पैरों के तले इस तरह सोया नहीं रह सकता।
दो स्टेशन पहले, दिन में एक लड़का  ट्रेन से कट गया था। उसी का शव शहर ले जाया जा रहा था। उसका नाम पता कुछ भी मालूम नहीं था। जेब में मिली थी एक डायरी और कुछ बीडि़यां। और बस...
डायरी के पन्ने उलटे-पलटे जा रहे थे- शहर की एक गंदी बस्ती में रहता था वह। हैसियत में अपने से ऊंची लड़की से मोहब्बत थी। गरीब बेचारा, भला क्या खाकर इश्क लड़ाता। मुश्किलें बहुत थीं, शायद इसकी माशूका इसे हमेशा के लिए छोड़कर कहीं जा रही थी। उसका साथ न दे पाने के गम में कटकर जान दे दी थी।
लेकिन-उसके साथ यह सब नहीं भी तो हो सकता था। कहानी एक दूसरी तरह से भी कही और सोची जा सकती थी।
कुछ दिन पहले की ही एक शाम थी। वह रोज की तरह दिन ढले घर लौटा था। गली में बत्तियां जल चुकी थीं। उसने चोर नजर से इधर-उधर ताका, फिर बीड़ी नाली में फेंक कर घर में घुस गया। उसने दरवाजे को जोर से ठोकर मार दी थी। पल्ला तेजी से दीवार से जा टकराया। अब वह कुछ थमा। इधर कई दिनों से यह महसूस कर रहा था कि शाम को घर में घुसते समय उसका गुस्सा अदबदाकर दरवाजे पर ही उतरता था। लेकिन इससे क्या होने वाला था भला। उसने दरवाजे को धीरे से छुआ फिर कुछ हंसकर अंदर चला गया।
आंगन में मां बैठी थी-सुबह के बुझे कोयलों में कुछ टटोलती हुई। घर में कहीं गरमी नहीं थी। अंधेरे कोठे में बहन की आहट मिल रही थी। मां ने उसे आया देख, सिर उठाया, फिर बिना कुछ कहे अपना काम करने लगी। बहन कोठरी से निकली। उसने दिन बिताकर लौटे भाई की तरफ देखा नहीं, झट से रसोईघर में जाकर एक गिलास पानी ले आई और सामने रख दिया। लड़के के होंठों पर चिपकी मुस्कान अभी पुंछी नहीं थी। मां-बेटी की होशियारी खूब समझता है वह। सर्दी के मौसम में क्या पानी दिया जाता है सुबह सेगए और दिन ढले घर लौटे आदमी को? लेकिन इस तरह वे कई बातें बताना घाहती हैं, जिन्हें क्या वह नहीं समझता। यही कि घर में चीनी, पत्ती, चाय- कुछ नहीं हैं लेकिन पानी देखकर उसे लगता है कि इसकी चाय भी बन सकती थी अगर घर में कोई बनाना चाहता हो?
उसने गिलास उठाया और खाली कर दिया, उसी तरह जेसे कल्लू की दुकान में लोग गटागट चढ़ा जाते हैं, फिर हथेली से होंठ पोंछता हुआ उठ खड़ा हुआ। सचमुच उसे अपना सिर भारी लगने लगा था। शायद पानी में कुछ था।
ये घर वाले भी बस- में क्या इनके दुःख समझता नहीं। दुनिया से कुछ अलग कष्ट तो है
 नहीं। सब जानते हैं आकाश में अंधेरा होने के बाद भी घर में उजाला क्यों नही होता-पतीलियों में छन-छन क्योंनहीं बजती और तवे पर घी जलने की सोंधी महक... घर की हवा इनकी रूखी, उखड़ी-उखड़ी क्यों रहती है।
इस समय सब कुछ भहरा कर उसी के कंधों पर आ टिका था, लेकिन किया-धरा सब उसके बाप का ही था। खुद तो मर गया, लेकिन मुसीबत छोड़ गया। जीते-जी घर की परवाह नहीं की। जाने किन चक्करों में रहता था। रात-रात भर घर की तरफ न फटकता। कई बार तो वह और मां उसे न जाने कहां-कहां से लेकर आते थे।
धीरे-धीरे मां की बुझी उम्मीदें उसे देखकर सुगबुगाने लगी थी। वह इस बोझ को बाप के जिंदा रहते ही अपने कंधों पर बढ़ता हुआ महसूस करने लगा था। पढ़ाई न चल सकी। फीस के पैसे कौड़ी-कैाड़ी करके जुड़ते और वह एक ही शाम में उड़ा डालता। यह मालूम जो था कि घर में बाप उससे कुछ नहीं पूछ सकता।
एक रात ज बवह भी बाप की तरह लौटा था तो मां ने एक चांटा रसीद कर दिया थ उस। बोली थी- ‘‘आज आने दे उनको। देख तो सही क्या दुर्गति करवाती हूं तेरी।’’
जवाब में वह मुस्करा कर रह गया था और मां एकदम सकपका कर भीतर चली गई थी। मां की वह समझ पिता की मृत्यु के बाद हर दिन बीतने के साथ-साथ बढ़ती जा रही थी और अब इतनी हो चुकी थी कि कभी-कभी वह खुद डर जाता था।
व्ह पानी पीकर चौक में पड़ी खरहरी खाट पर पसर गया। फीकी कालिमा वाले आकाश में तारों के गुच्छे लटक रहे थे। अब वह रसोईघर में खटपट सुन रहा था। यों आज उसकी जेब में पैसे थे, पर उसने निकाले नहीं.  सविता ने दिये थे।
वह स्कूल सेभागे आवारा लड़के के रूप् में बदनाम था। मोहल्ले की लड़कियां उससे बचकर चलती थीं, लेकिन सविता को उसमें न जाने क्या नजर आया था। वह हर सुबह 8:15 पर विश्वविद्यालय जाने वाली स्पेशल बस के स्टैंड पर खड़ा रहता था। बस आई और चलने लगी, तो एक लड़की नहीं चढ़ पाई। बाद में उसका नाम सविता मालूम हुआ था। वह इसी बात पर कंडक्टर से उलझ पड़ा था। मार-पिटाई तक की नौबत आ गई थी। बस सविता को लेकर चली गई थी। वह वहीं खड़ा रह गया था। उसका क्रम वहीं रहा था, लेकिन सविता का मन जरूर बदल गया था। शुरू-शुरू में उन दोनां में कुछ मामूली बातें शुरू हुई थीं जो लंबी होती चली गई थीं।
   वे अक्सर मिलने लगे थे। एक-दो बार सविता से मिलने वह यूनिवर्सिटी भी चला गया था। वहां के किताबी माहौल में उसे अपनी बदहाली पर बड़ा संकोच हुआ था, लेकिन सविता न जाने क्या देख रही थी उसमें। इन कालिज की लड़कियों का दिमाग भी न जाने कैसे चलता है! यह कहने की बात नहीं है कि सविता के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी थी।
कई सुनसान, अलस दोपहरियां उन्होंने रिज के ऊपर वाले पार्क में गुजारी थीं इधर-उधर की बातें करते हुए-ऐसी बातें जिसा सिर-पैर नहीं होता था। जैसे एक बार उसने सविता से कहा था-‘‘आओ हम भाग चलें।’’
सबिता मीठी हंसी वाली आंखों से उसे देखती रही थी, फिर कहा था-‘‘ठीक है, हम पार्क के दरवाजे तक दौड़कर जाएंगे।’’
‘‘और उससे आगे?’’ उसने हांफते हुए पूछा था। नीले कंच आकाश में तेज झोके से उड़े पत्ते चकफेरियां खाते हुए नीचे गिर रहे थे।
‘‘मैं तो उससे आगे भी जा सकती हूं, लेकिन तुम्हीं छिटक कर परे हो जाओगे। यह मैं जानती हूं अच्छी तरह।’’
‘‘छोड़ो।’’ उसका मन बुझ गया था। सच ही तो कह रही थी सविता।
उस रोज वह ज्यादा परेशान था। मकान मालिक ने धमकी दी थी अगर रात को पूरा किराया अदा न किया तो वह बिस्तर-बोरिया उठाकर सड़क पर फंेक देगा। उसका भी भला क्या कसूर था। किराया भी कुछ कम नहीं, पूरे ग्यारह महीने का था। मां-बहन और वह आज, कल; आज करते हुए इतने दिनों तक टाल सके थे, लेकिन आज...
सविता ने बातों-बातों में यह बात उसके अंदर से निकलवा ली थी, फिर रुपए देने चाहे , तो वह बिगड़ उठा था बेतरह। सविता ने याचना की, नाराज होने का डर दिखाया, पर उसने नहीं लिए थे। शायद उसे मालूम था कि इसके बाद सीधा खड़ा नहीं रह सकेगा। चाय के पैसे सविता द्वारा देने पर उसने ऐतराज नहीं किया था। पैसे थे भी कहां उसके पास।
असल में तो पूरी दुनिया से भिड़ जाना चाहता था वह। जानना चाहता था कि इससे क्या होगा? रात को भरा-भरा मकान मालिक के आने की प्रतीक्षा करता रहा था। मां से कहकर अपनी मनपसंद सब्जी बनवाई थी। उन लम्हों में घर की हवा कुछ बदली थी। मकान मालिक रात को नहीं आया। यही खैर रही। सुबह वह मुंहअंधेरे घर से निकल पड़ा था।
लेकिन इस तरह हमेशा तो नहीं चल सकता था। और नहीं चला। बहन के बारे में कुछ उल्टी-सीधी बातें उसके कानों में पड़ी थीं। इधर वह एक तेल व्यापारी के लड़के को पढ़ाने जाने लगी थी। उसने डांटकर मना कर दियाथा उधर जाने से।
दो-तीन बाद वह बाजार से जा रहा था, सो कुछ लोगों ने पकड़कर उसे पीटना शुरू कर दिया था। बेतरह मारा था। उसके दिमाग में कहने-करने को बहुत कुछ था, लेकिन हाथ-पैरों ने साथ नहीं दिया था। चार दिन बाद वह घर से निकला। बीच में सविता आई और बाहर से लौट गई। बहन फिर से पढ़ाने जाने लगी थी।
पांचवें दिन वह रोज की तरह बस स्टैंड पर खड़ा सविता की प्रतीक्षा कर रहा था।
ऐसा नहीं कि उसने कोशिश नहीं की थी। कल्लू उस्ताद की दुकान पर सुबह से रात तक हाड़-तोड़ मेहनत-मशक्कत, फिर कविता  के दिए पैसों से कपड़े के दो थान कंधे पर डालकर गरम दोपहरी में सूनी सड़कों के चक्कर लगाए थे, लेकिन...
इधर अपने अंदर जलती लपट उसे कुछ कम होती लग रही थी। अक्सर ही सविता का सलोना, बड़ी-बड़ी कौतुकमयी आंखों वाला चेहरा आ जाता सामने और देर-देर तक ठहरा रहता। तब वह कुछ न कर पाता। एक रोज मिलने पर यही कह दिया था उसने- मैं चाहता हूं, अब मैं और तुम अलग-अलग हो जाएं।’’
‘‘हम साथ चले ही कब थे?’’
‘‘हां, तुम्हारे साथ होते समय मुझे वहम हो जाता है। लगता है, अब करने को कुछ है नहीं। न जाने क्या पा लिया है मैंने।’’
इसके बाद कई दिनों तक वे नहीं मिले थे। और अब मुलाकात हुई तो सविता ने खबर दी थी कि वह विदेश में बसे अपने चाचाजी के पास जा रही है। वहीं रहकर पढ़ने का इरादा है। अगले दिन शाम की गाड़ी से बंबई जाना है। वहीं से फ्लाइट है।
विदा के समय कुछ नहीं बोला था वह। सविता ने सब कुछ जान कर ही निर्णय लिया था शायद। दोनों बिना हाथ हिलाए विदा हो गए थे।
शाम को वह और दिनों से कुछ जल्दी घर में घुसा था। सारा दिन कल्लू उस्ताद की दुकान पर खटने से कुछ पैसे मिले थे। मां कोयले बीन रही थी और बहन अंदर की कोठरी के नीमअंधेरे में न जाने क्या कर रही थी। कितने अर्से बाद उस दिन चाय की फरमाइश की थी उसने। मां फुर्ती से उठ खड़ी हुई थी।
खाना खाकर वह छत पर चला गया। वही ठण्डी रोषनी वाले तारे गुच्छों की तरह झूल रहे थे। हवा में हल्की खुनकी थी। वह बेवजह बैठा रहा था अपनी प्रिय गजल गुनगुनाता हुआ, फिर न जाने कब नींद आ गई थी।
सविता की गाड़ी शाम को जाती थी। सारा दिन दुकान परकाम किया, फिर नहा-धोकर स्टेशन जा पहुंचा। लेकिन सविता से मिला नहीं। सविता की आंखें इधर-उधर उसे ढूंढ़ती मालूम दीं तो बुक स्टाल की आड़ में हो गया।
गाड़ी सीटी देकर रेंगने लगी, फिर चाल तेजी होती गई। वह जैसे तन्द्रा से जगा और पीछे-पीछे भागने लगा, भागता चला गया। इसके बाद किसी ने नहीं देखा उसे। बाद में पटरी पर लाश मिली थी।
दोनों सिपाही थक कर ऊंघ रहे थे। डायरी लाश के पास यूं ही फेंक दी गई थी। गाड़ी की चाल धीमी होती जा रही थी। कुली ने दरवाजा खोला और बाहर देखने लगा।
मेरे पीछे भी सुगबुगाहट होने लगी। लोग बच्चों को जगाने के बाद भारी सामान घसीटते हुए दरवाजे की तरफ बढ़ते जा रहे थे। कुली ने स्ट्रेचर की छड़ से बंधी रस्सी थाम ली। तीनों उतरने को तैयार हो गए।
इतनी बातें आप से कह दीं, पर एक बात बताना तो भूल गया। असल में यह डायरी उस लड़के की नहीं, जिसका शव सामने पड़ा है। यह लड़का वह नहीं, जिसकी डायरी है। यह तो कोई और है। पता नहीं कैसे मर गया। मुझे इससे पूरी हमदर्दी है। दोनों सिपाही और कुली खामख्वाह इसे डायरी से जोड़ बैठे हैं।
ये लोग डायरी पढ़कर बेवजह कह रहे हैं कि उसने गाड़ी से कटकर जान दे दी। मैं अच्छी तरह जाना हूं। वह इस तरह नहीं मर सकता था। इससे पहले भी तो कितनी मौतें मरते-मरते छिटककर दूर निकल आया था वह। कम-से-कम अपने लिए मरने का मा, जिसकी डायरी है। यह तो कोई और है। पता नहीं कैसे मर गया। मुझे इससे पूरी हमदर्दी है। दोनों सिपाही और कुली खामख्वाह इसे डायरी से जोड़ बैठे हैं।
ये लोग डायरी पढ़कर बेवजह कह रहे हैं कि उसने गाड़ी से कटकर जान दे दी। मैं अच्छी तरह जाना हूं। वह इस तरह नहीं मर सकता था। इससे पहले भी तो कितनी मौतें मरते-मरते छिटककर दूर निकल आया था वह। कम-से-कम अपने लिए मरने का माद्दा तो नहीं था उसमें।
गाड़ी रुकते ही कुली व सिपाहियों ने मिलकर स्ट्रेचर को उतार लिया, फिर कुली स्ट्रेचर से बंधी रस्सी खींचता हुआ आंखों से ओझल हो गया। काफी लोग उतर गए। हम अगले स्टेशन पर उतरेंगे। मैं फिर कहता हूं, यह वह नहीं है। डायरी पर नाम-पता तो है नहीं, वह किसी की भी हो सकती है। ( समाप्त )