Tuesday 30 March 2021

बप्पा बाहर गए हैं-कहानी-देवेंद्र कुमार ========

 

 बप्पा बाहर गए हैं-कहानी-देवेंद्र कुमार

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          मेट्रो का भूमिगत स्टेशन बन जाने के बाद हौज़ काजी चौक का रूप काफी संवर गया है| वहां बहुत कुछ बदल गया है।  हौज़ काजी की चौमुहानी पर अजमेरी गेट, बाज़ार सीताराम, चावडी बाज़ार और लाल कुआं की सड़कें मिलती हैं। वहीँ लोहे की बदरंग रेलिंग से घिरा जमीन  का एक ऊबड़ खाबड़ टुकड़ा हुआ करता था जिसे पार्क कहा जाता था। जिसमें संगमरमर का सिर-- टूटा फव्वारा था और थीं कूड़े की ढेरियाँ जो दिनों दिन बड़ी होती जा रही थीं, क्योंकि लोगों ने उसे कूड़ाघर समझ लिया था। उन्हीं के बीच कुत्ते जूठन पर झगड़ते थे और सर्दियों की गुनगुनी धूप में कुछ लोग अधलेटे पड़े रहते थे।

      लेकिन अब उसका कायाकल्प हो गया है। वहां रंगीन शीशों का एक गुम्बद बन गया है,जिसमें से रंगीन प्रकाश फूटता है रात के समय। जो दिल्ली वाले पहले वहां कभी नहीं आते थे,अब मेट्रो के सहारे आकर चौक की चाट का मज़ा लेते हैं। लेकिन इस बदलाव के बीच एक चीज है जो एकदम नहीं बदली है और शायद बदलेगी भी नहीं। अगर उस अपरिवर्तन को देखना हो तो वहां एकदम सुबह सुबह आना होगा। बंद दुकानों और सूनी पटरी से लग कर २०-२५ लोग कतार मैं बैठे दिखाई देंगे, कुछ इस तरह जैसे पंगत में बैठे हुए दावत की बाट जोह रहे हों। वे बाट देखते हैं लेकिन दावत की नहीं,रोजनदारी के काम की। वे सब दिहाड़ी मजदूर हैं जो काम की तलाश में सुबह मुंह अँधेरे वहाँ आकर बैठ जाते हैं। किसी को काम मिल जाता है तो कोई शाम तक निराश आशा में बैठा रहता है। हरेक के आगे उसकी पहचान रखी रहती है। जैसे बिजली मजूर के आगे तारों  का बण्डल तो बढ़ई के सामने आरी और हथौड़ा ; रंग-- रोगन करनेवाले अपने सामने ब्रश और कूंची रखते हैं तो मजदूर के सामने फावड़ा और कुदाल देखे जा सकते हैं।

    कौन कहाँ बैठेगा यह तय नहीं है, लेकिन फिर भी लोगों को पता रहता है कि कौन कहाँ बैठता  आ रहा है। इसलिए हर रोज लोग आकर अपनी अपनी जगह संभाल लेते हैं। इस पर कोई झगडा नहीं होता। बीच में कुछ लोग आना बंद कर देते हैं तो कई नए चेहरे उभर आते हैं। कोई किसी का नहीं है, पर रोज साथ बैठने से सम्बन्ध बन ही जाते हैं। कोई एकाएक आना बंद कर दे तो कुछ दिन चर्चा होती है फिर लोग भूल जाते हैं। लेकिन कभी-कभी कुछ याद भी आ जाता है

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    उस दिन ऐसा ही हुआ था। सर्दियों के दिन , ठंडी हवा बह रही थी। धूप अभी नीचे नहीं उतरी थी। लेकिन मौसम की परवाह न करते हुए काम की तलाश करने वालों की पंगत लग चुकी थी। तभी एक औरत वहां आ खड़ी हुई।उसने एक बच्चे का हाथ पकड़ रखा था। आखिर कौन थी वह! पहचानने में थोड़ी देर लगी, फिर किसी ने कहा-‘ अरे,  तो श्याम की पत्नी है।’ फिर तो श्याम की पत्नी को कई लोगों ने पहचान लिया। एकाएक भूला हुआ श्याम सबको याद आ गया। श्याम भी इसी जगह बैठ कर काम मिलने की प्रतीक्षा करता था औरों  की तरह। बीच में कुछ समय तक नहीं आया और एक सुबह पहले की तरह लौट आया। पूछने पर उसने बताया कि तबीयत ठीक नहीं रहती। फिर हर कोई अपने काम में लग गया यानी मजदूरी के बुलावे का इन्तजार।

     फिर तो श्याम अक्सर चौक की मजदूर मंडी से गायब रहने लगा। कभी आता तो फिर कई कई दिन तक न आता। यह कोई खास बात नहीं थी। औरों के साथ भी ऐसा कई बार हुआ था। और फिर श्याम ने आना बंद कर दिया। एक बुरी खबर सुनने को मिली, कई लोग उसके घर भी गए। समय बीता और फिर सब भूल गए| लेकिन उस दिन श्याम की पत्नी को देख कर भूला हुआ श्याम फिर से याद आ गया। पर श्याम की पत्नी  रमा यहाँ क्यों आई है- हर कोई यही सोच रहा था। तब तक रमा बच्चे का हाथ पकड़कर  पांत में बैठे लोगों के एकदम पास चली आयी। लोगों ने सुना—‘ तेरे बप्पा यहीं बैठते थे।’—रमा बच्चे को बता रही थी। ‘ मैं भी बैठूँगा।’ बच्चे ने कहा। वह बारी बारी से सबको देख रहा था।  

     सबको याद था कि श्याम कहाँ बैठा करता था। सब इधर-उधर खिसक कर जगह बनाने लगे। अब पांत में एक खाली जगह नजर आने लगी। शिबू ने बच्चे की ओर देख कर कहा—‘बेटा, यहीं बैठा करते थे तुम्हारे बप्पा,’ और बच्चे का हाथ पकड़ कर खाली जगह पर बैठा दिया। बच्चा मुस्कराया—‘मैं यहीं बैठूँगा।’ रमा चुप खड़ी देख रही थी। बेटे को हँसते देखा तो खुद भी मुस्करा दी। लेकिन आँखों में  आंसू झलमला रहे थे।

      ‘’बेटा, नाम बताओ।’—एक ने पूछा,

       ‘श्याम सुंदर।’’

        ‘ बेटा अपना नाम बताओ।’—रमा ने कहा और एक झोला बेटे के पास रख दिया। वह झोला श्याम का था।  

         ‘विजय बहादुर।’’ बच्चा हंसा तो पांत में बैठे सभी खिलखिला उठे।

               एक जना उठ कर गया और चाय वाले के ठेले के पास रखा स्टूल लाकर श्याम के बेटे को उस पर बैठा दिया। विजय ने कहा—‘ बप्पा बाहर गए हैं । मैं यहाँ बैठूँगा। ‘

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              हाँ, हाँ जरूर बैठना। ‘’ एक आवाज उभरी। पांत में बैठे लोगों ने विजय को घेर लिया। अभी तक किसी को कोई काम नहीं मिला  था,लेकिन कोई उदास नहीं था।

     तभी उसमें बाधा पड़ी। किसी ने कहा—‘अरे, यह मजमा क्यों लगा रखा है।’ यह रघुवीर था। उन्ही में से एक लेकिन झगडालू। उसे देखते ही लोग परे हट गए। उसने विजय को स्टूल पर बैठे देखा तो चिल्लाया—‘ यह कौन है, मेरी जगह क्यों बैठा है?’’ और विजय को हटा कर खुद बैठते हुए स्टूल को दूर खिसका दिया।

     उसकी इस बात से सभी को गुस्सा आ गया। इस तरह हटाये जाने से विजय रो पड़ा। रमा ने कहा—‘बेटा, रो मत,आ घर चलें।’  उसका हाथ थाम कर मुड़ी तो रमन ने रोक लिया—‘ रुको, मत जाओ।विजय अपने बप्पा की जगह बैठा है। इसे कोई नहीं हटा सकता।’ दो जनों ने रघुवीर को जबरदस्ती उस जगह से हटा दिया। फिर विजय को वहां बैठाते हुए बोले –‘कोई नहीं हटा सकता इसे।’

 तब तक फजलू पेंटर ब्रश पेंट में डुबा कर, जमीन पर लिखने लगा—‘विजय की जगह’ और शब्दों को एक गोले से घेर दिया|

    ‘’यह हुई कुछ बात।’—ललन बोला। सबने उसकी हाँ में हाँ मिलाई। नाराज रघुवीर चुप खड़ा गुस्से से देख रहा था। रमा ने बेटे से कहा—‘जरा पढ़ कर तो बताओ।’’ विजय शब्दों को देखता खड़ा था। वह अभी पढना नहीं जानता था। रमा ने कहा—अपना नाम तभी पढ़ सकोगे जब स्कूल जाओगे।’

     ‘ मैं स्कूल जाऊँगा, किताब पढूंगा।’’—विजय बोला। इतने में रमन जाकर कापी, पेंसिल और अ आ वाला कायदा ले आया। विजय को देते हुए बोला—‘ बेटा, स्कूल जाना,मन लगा कर पढना।’’

   ‘बप्पा की जगह बैठूँगा।’ विजय ने कहा। रमा बोली—‘ यह स्कूल जाने को तैयार नहीं होता। आज जिद करके यहाँ आया है।’’ तभी ललन ने जेब से एक कागज निकाल लिया। पेन से उस पर कुछ लिखा और बोला—‘ विजय, मेरे पास तुम्हारे बप्पा की चिट्ठी आई है। उन्होंने लिखा है…..’

     रमा और विजय ललन की ओर देखने लगे। फजलू  ने कहा—‘पढो विजय के बप्पा की चिट्ठी।’ ललन ने पढने का नाटक किया—विजय से कहना मैं जल्दी ही उसके पास आऊंगा।लेकिन एक शर्त है—उसे स्कूल जाकर ख़ूब पढना होगा। और हाँ वह अपनी माँ को परेशान न करे। ‘ ललन ने वह कागज विजय को थमा दिया। कहा –‘ बेटा, तुमने सुना तुम्हारे बप्पा ने क्या लिखा है।’

    ‘’  बप्पा ने लिखा है…..’ विजय ने कहा। पास खड़ी रमा की आँखों से आंसू बह चले। उसने माँ का हाथ थाम लिया –‘’ माँ, मैं स्कूल जाऊँगा,तुम्हें परेशान नहीं नहीं करूंगा।’’

      रमा ने सबको नमस्कार किया और विजय का हाथ थाम कर वापस चल दी। वे लोग दोनों को जाते हुए देख रहे थे। अपने बप्पा की चिट्ठी विजय के हाथ में थी। वह स्कूल जाएगा, मन लगा कर पढ़ेगा, और माँ को परेशान बिलकुल नहीं करेगा| तभी बारिश होने लगी फिर धूप भी निकल आई। गीली सड़क पर घेरे में लिखा ‘विजय की जगह’ नाम चमक रहा था|

                                                                   ( समाप्त )

Saturday 27 March 2021

मीठी अम्मां --बाल गीत-देवेंद्र कुमार

 

 मीठी अम्मां --बाल गीत-देवेंद्र कुमार

 

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ताक धिना धिन

ताल मिलाओ

हंसते जाओ

गोरे गोरे

थाल कटोरे

ले चमकाओ

 

चकला-बेलन

मिलकर बेलें

फूल फुलकिया

अम्मां मेरी

खूब फुलाओ

 

भैया आओ

मीठी-मीठी

अम्मां को भी

यहां बुलाओ।

प्यारी अम्मां

सबने खाया

अब तो खाओ!

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Tuesday 23 March 2021

पागल हुई रसोई- बाल गीत-देवेंद्र कुमार =========

पागल हुई रसोई- बाल गीत-देवेंद्र कुमार

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मां गुस्सा थी सारे घर से

पागल हुई रसोई

 

सब कुछ उलट पलट कर डाला

गिरा दूध में गरम मसाला

मुन्नी ने जो घूंट भरा तो

चीख-चीख कर रोई

 

 

मैंने गरम तवा खिसकाया

पापा ने भी हाथ जलाया

चीख-पुकार मची थी घर में

काम हुआ न कोई

 

मम्मी जी फिर उठकर आईं

हम भागे बाहर को भाई

 पापा मम्मी में कुछ  गुपचुप

हंसने लगी रसोई।

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Saturday 20 March 2021

खटमिठ चूरन-बाल गीत-देवेंद्र कुमार

 

खटमिठ चूरन-बाल गीत-देवेंद्र कुमार

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मैंने बाबाजी से पूछा

उनका बचपन कैसा था

दोनों गाल फुलाकर बोले

खटमिठ चूरन जैसा था

 

सारा दिन पेड़ों पर चढ़ता

कभी-कभी थोड़ा सा पढ़ता

घर का कोई काम ना करता

मन गुब्बारे जैसा था।

 

रोज नदी पर नहाने जाता

जंगल में फिर फुर्र हो जाता

शाम ढले छिप घर में आता

लगता चोरी जैसा था

 

जैसे मैं हूं तेरा बाबा

वैसे ही थे मेरे बाबा

जैसा तू है वैसा मैं था

बचपन बच्चों जैसा था।

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Tuesday 16 March 2021

छुट्टी का स्कूल--बाल गीत-देवेंद्र कुमार

 

छुट्टी का स्कूल--बाल गीत-देवेंद्र कुमार

 

यह है छुट्टी का स्कूल

 

यहां किताबें छिपकर रहतीं

मम्मी पढ़ने को न कहतीं

हरदम खेलकूद का मौसम

हुए खुशी से झूलमझूल

 

गप्पों का ले मिर्च-मसाला

छुट्टी के पापड़ पर डाला

खाते हुए धूप में दौड़े

लगे बदन पर जैसे फूल

 

होमवर्क को गया हवाई

जैसे उसको मिली दवाई

पढ़ने के कमरे की चाबी

रखकर कहीं गए हम भूल

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Thursday 11 March 2021

गड़बड़झाला-शरारती बाल गीत-देवेंद्र कुमार

गड़बड़झाला-शरारती बाल गीत-देवेंद्र कुमार

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आसमान को हरा बना दें

धरती नीली पेड़ बैंगनी

गाड़ी नीचे ऊपर हम सब

फिर क्या होगा-गड़बड़झाला!

 

कोयल के सुर मेंढ़क बोले

उल्लू दिन में आंखें खोले

सागर मीठा, चंदा काला

फिर क्या होगा-गड़बड़झाला!

 

दादा मांगें दांत हमारे

रसगुल्ले हों खूब करारे

चाबी अंदर बाहर ताला

फिर क्या होगा-गड़बड़झाला!

 

चिडि़या तैरे मछली चलती

आग यहां पानी में जलती

बरफी में हो गरम मसाला

फिर क्या होगा-गड़बड़झाला!

 

दूध गिरे बादल से भाई

तालाबों में पड़ी मलाई

मक्खी बुनती मकड़ी जाला

फिर क्या होगा-गड़बड़झाला!

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Tuesday 9 March 2021

दही का करामात--कहानी-देवेंद्र कुमार

          दही का करामात--कहानी-देवेंद्र कुमार

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राजा विजयसिंह भोजन कर रहे थे।राजा का प्रिय सेवक मुंशीराम भोजन परोस रहा था। राजा तन्मय होकर खा रहे थे। राजा विजयसिंह की मूँछें बड़ी-बड़ी थीं। एकाएक उनका हाथ बहक गया। दही का ग्रास मुँह में जाकर मूँछ पर गिर गया। राजा की मूँछें दही से सन गईं। उस समय मुंशीराम पास ही खड़ा था। पता नहीं कैसे रोकते-रोकते भी उसे हँसी गई। फिर झट से उसने हँसी रोक ली। पर वह एक पल की हँसी ही बहुत थी। राजा क्रोध से काँप उठे। उन्होंने रूमाल से मूँछें साफ कीं और भोजन छोड़कर उठ खड़े हुए।

मुंशीराम के काटो तो खून नहीं। समझ गया अब प्राणों की खैर नहीं। अपने को कोस रहा था कि हँसी होंठों पर कैसे चली आई। जाने अब क्या होगा।

विजयसिंह ने मूँछों पर लगी दही साफ कर ली, पर फिर भी कुछ लगी रह गई। उन्होंने ताली बजाई। एक सैनिक तुरंत अंदर आया। राजा ने कहा, “मंत्री को बुलाओ।

बात की बात में मंत्री भी गया | विजयसिंह ने गुस्से भरी आवाज में कहा, “मुंशीराम को काल कोठरी में डाल दो। इसका निर्णय कल होगा।

रानी जयवंती भी एक तरफ खड़ी देख रही थी। उसकी समझ में आया कि एकाएक हुआ क्या? पता चलता भी तो कैसे। क्योंकि मुंशीराम और राजा के बीच कोई शब्द नहीं बोला गया था। मुंशीराम हँसा नहीं था। दहीं में सनी हुई राजा की मूँछें एकाएक उसे विचित्र लगी थीं और बस... जयवंती को मालूम था कि राजा को जल्दी क्रोध जाता था।

रानी धीरे-धीरे राजा के पास चली आई। विजयसिंह ने रानी की ओर देखा और फिर जयवंती के होंठों पर भी हँसी गई। विजयिसंह गरज उठे, “तो तुम भी...” और उन्होंने रूमाल से मूँछें रगड़नी शुरू कर दीं। समझे शायद दही अभी तक मूँछों पर लगी है। लेकिन इस बीच तो मंत्री तथा सैनिक भी आकर चले गए हैं। तो क्या उन लोगों ने भी दही से सनी हुई मूँछों को देख लिया है? यह तो गजब हो गया। अब तो अकेले में ये मुझ पर हँसेगे। ओफ!

पलक झपकते ही रानी जयवंती पूरी घटना समझ गईं। उन्होंने ऐसा भाव बनाया जैसे उन्हें कुछ पता ही हो। बोलीं, “महाराज, यह एकदम क्या हो गया?” ऊपर से रानी गंभीर बनी हुई थी, पर राजा की दही में सनी बड़ी-बड़ी मूंछों को कल्पना की आँखों से देखकर उनके मन में गुदगुदी हो रही थी। वह जोर-जोर से हँस पड़ना चाहती थीं। लेकिन इससे तो बात और बिगड़ जाएगी।

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अब राजा समझे कि किसी को कुछ पता नहीं चला। पर रानी से तो कहना ही था। उन्होंने कहा, “मूर्ख मुंशीराम! हमारी हँसी उड़ाता है। भोजन करते समय मूँछों पर जरा-सी दही क्या लग गई, वह तो हँसने लगा।

हँसी शब्द सुनते ही रानी जयवंती अपनी हँसी रोक सकीं। जोर से हँस पड़ीं। बोली, “हँसी की बात पर कभी-कभी हँसी ही जाती है।

इस तरह हँसने की कीमत उसे अपने प्राण देकर चुकानी पड़ेगी।

क्या आपने उस मूर्ख को प्राणदंड दे दिया है?”

कल दरबार में यह निर्णय सुनाया जाएगा।‘’

रानी समझ गई--  मुंशीराम के प्राण बचने  वाले नहीं। उन्हें दुख हो रहा था कि राजा इतने उतावले स्वभाव के क्यों हैं। पर अब कुछ तो करना ही था। एकाएक उन्होंने कहा, “आपने मूँछें पूरी तरह साफ नहीं की हैं। लाइए, रूमाल मुझे दीजिए |

राजा ने इधर-उधर देखा फिर रूमाल रानी को थमा दिया। जयवंती ने राजा की मूँछें अच्छी तरह पोंछ दीं, फिर हँसकर बोलीं, “मैं देखती तो मैं भी हँसती। कितने अच्छे लग रहे होंगे उस समय आप। काश, मुंशीराम की जगह मैं होती तो हँसकर मन की तो निकाल लेती।और वह जोर-जोर से हँसने लगीं। अपनी मूँछों पर हाथ फेरते हुए राजा विजयसिंह भी हँस पड़े।

रानी ने कहा, “लेकिन अच्छा हुआ कि मैं हुई, नहीं तो मुंशीराम के स्थान पर इस समय मैं कालकोठरी में पड़ी होती और कल सुबह आप मुझे प्राणदंड दे रहे होते।‘’

राजा विजयसिंह अचकचा गए, “क्यों-क्यों...तुम्हें क्यों प्राणदंड देता? क्या तुम अपने को मुंशीराम के बराबर समझती हो?”

हाँ, महाराज, अपराध करने वाला केवल अपराधी होता है, न्याय दास या रानी में कोई भेद नहीं करता। मैं तो आपके न्याय की प्रशंसा इसीलिए करती हूँ।

हाँ, लेकिन...” राजा कुछ उलझ गए।

अगर आपको न्याय करना है तो फिर मुझे भी दंड दीजिए। क्योंकि मैं भी तो दही से सनी हुई मूँछें देखकर हँसी हूँ।‘’ रानी ने कहा।

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रानी...”

हाँ, महाराज, आप न्यायी राजा हैं। आपके हाथों अन्याय नहीं होना चाहिए। अगर आपने कल दरबार में नौकर को मृत्युदंड दिया तो मैं...मैं भी अपने अपराध के लिए वही दंड माँगूँगी। और तब आप मना नहीं कर सकेंगे।

रानी! यह क्या कह रही हो तुम! क्या तुम पूरी दुनिया में मेरी हँसी उड़वाओगी।

हाँ, मैं बताऊँगी कि आपका न्याय अपने-पराए में भेद करता है। इसलिए वह न्याय नहीं अन्याय है।जयवंती ने कहा।अगर इस तरह आप जरा-जरा-सी बात पर लोगों को कालकोठरी में डालेंगे, उन्हें मृत्युदंड देंगे तो फिर मुझे हस्तक्षेप करना ही होगा। अगर आप चाहते हैं कि मैं ऐसा कुछ करूँ तो मुंशीराम का अपराध बताइए?”

अपराध ऐसी तो कोई बात नहीं।राजा विजयसिंह ने उलझन भरे स्वर में कहा।

महाराज, आपकी मूँछों पर दही गिर गई। उस हालत  में कोई भी आपको देखता तो उसे हँसी ही जाती। लेकिन बेचारा मुंशीराम शायद मनुष्य नहीं राज सेवक है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। बस, उसी अपराध का दंड मिला है ! सच कहिए, क्या यह अपराध था?”

कुछ पल दोनों चुप रहे। फिर राजा ने कहा, “रानी, एकदम क्रोध गया और बस...”

महाराज, आप प्रजा के पिता हैं। आप किसी को कुछ भी दे सकते हैं। बेचारे मुंशीराम के प्राण उसे लौटा दीजिए। असल में तो बेचारे ने कुछ किया ही नहीं।

रानी की बात सुन राजा भी अपनी गलती समझ गए। पर उन्होंने कहा, “अगर मैं अपना आदेश वापस लेता हूँ तो मंत्री जाने क्या समझे...”

कोई कुछ नहीं समझेगा, आप चुप रहिए। चाहें तो विश्राम कक्ष में चले जाइए। मैं मंत्री को स्वयं बुलाती हूँ।

ठीक है। मैं इस बारे में कुछ नहीं बोलूँगा। तुम मंत्री को बाहर के कक्ष में बुलाकर जो चाहे कह दो।कहकर राजा वहाँ से दूसरे कमरे में चले गए।

जयवंती ने मंत्री को बुलवाया। हँसकर बोली, “महाराज का क्रोध शांत हो गया। मुंशीराम को मेरे पास भेज दीजिए।

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मंत्री तुरंत आ गया। उसने कहा-''                              

मैं महाराज का कोमल मन अच्छी तरह समझता हूँ। मैंने मुंशीराम को बाहर ही बैठा रखा है। अभी भेजता हूँ।

कुछ ही पल बाद  मुंशीराम रानी के पास खड़ा आँसू बहा रहा था। जयवंती ने कहा, “घबराओ मत। जाओ, कल मैं फिर महाराज के लिए भोजन बनाऊँगी और  तुम्ही परोसोगे।

रानी माँ...” मुंशीराम घबरा गया।

अरे पगले, कुछ नहीं होगा।रानी ने कहा और मुसकरा दी।

अगली दोपहर राजा विजयसिंह फिर भोजन करने बैठे थे। रानी रसोई में थीं। मुंशीराम भोजन परोस रहा था। वह थर-थर काँप रहा था। राजा ने कहा, “मुंशीराम, डरो मत। आराम से भोजन परोसो। दही मूँछ पर गिरेगी तो...” और खूब जोर से हँसे। रसोई में रानी भी हँस पड़ीं। लेकिन मुंशीराम नहीं हँस सका। विजयसिंह ने गले का हार उतारकर मुंशीराम को थमा दिया। बोले, “रख लो। हाँ, लेकिन ध्यान रहे, किसी से कुछ कहना।

महाराज की जय हो!” मुंशीराम की जान में जान गई। राजा जोर-जोर से हँस रहे थे।==