Monday 23 January 2023

एक नया सितारा--कहानी-देवेंद्र कुमार

 

एक नया सितारा--कहानी-देवेंद्र कुमार

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  मुझे गर्मियों की रातें बहुत अच्छी लगती हैं। इसलिए कि उन दिनों स्कूलों की छुट्टियां होती हैं। सुबह मां की पुकार पर बिस्तर से उठना नहीं पड़ता। और रात में हम देर तक बाबा से कहानियां सुनते रह सकते थे।

  जैसे ही दिन ढलता हम यानी मैं और मेरी बहन राधा पानी की बाल्टी लेकर छत पर चले जाते और पानी के छपके मारकर छत को ठंडा करने लगते। पानी सूख जाता तो छत पर बाबा के लिए चटाई बिछा दी जाती। गर्मी के मौसम में बाबा शीतलपाटी पर सोया करते थे। उनके पास ही दूसरी चटाई पर मैं और राधा बैठ जाते। हमें बाबा की प्रतीक्षा रहती। कुछ ही देर में पड़ोस से मुन्नू और रमन भी आ पहुंचते। उन्हें भी बाबा से कहानी सुनना पसंद था। बाबा के छत पर आते ही हम उनसे कहानी सुनाने की फरमाइश करते।

  तब बाबा कहते-‘‘तुम लोग कहानी अधूरी छोड़कर नींद के पास चले जाते हो। अब नींद ही कहानी सुनाएगी तुम्हें।’’ कुछ देर तक हां-ना होती रहती ओर फिर बाबा कहानी सुनाने लगते। सुनते-सुनते मैं शीतलपाटी पर लेट जाता और आकाश की ओर ताकने लगता। आकाश तारों से भरा होता और फिर न जाने कब नींद आंखों में आ जाती।

  रोज ही ऐसा होता था। लेकिन उस दिन वैसा कुछ नहीं हुआ। उस रात बाबा देर से आए और चुपचाप शीतलपाटी पर बैठ गए। लगा जैसे वह कहानी सुनाने की तैयारी कर रहे हैं। फिर वह लेटकर आकाश में देखने लगे। मैंने कहा-‘‘बाबा, कहानी सुनाओ न।’’

  कुछ देर चुप रहने के बाद बाबा ने कहा-‘‘कहानी बाद में, आज पहले तारे गिनेंगे।’’ मैंने आकाश में देखा-हर कहीं तारे बिखरे थे। भला असंख्य तारों को कौन गिन सकता था। राधा बोली-‘‘शायद आपको कहानी याद नहीं है इसीलिए तारों की बात कर रहे हैं।’’

  ‘‘कहानियां तो अनेक याद हैं मुझे पर आज हम तारे गिनेंगे। इनमें एक नया तारा शामिल हुआ है। चलो शुरू करो।’’ फिर बाबा खुद तारे गिनने लगे- एक, दो, तीन... हम चारों ने भी तारों की गिनती शुरू कर दी-छत पर आवाजें गूंजने लगीं-एक दो, दस, सत्रह...! क्या यह भी कोई कहानी थी। तारे गिनते गिनते कब नींद आ गई, पता न चला।

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  सुबह आंख खुली तो अभी हल्का अंधेरा था। बाबा शीतलपाटी पर नहीं थे। मैंने ऊपर से आंगन में झांका तो बाबा खड़े दिखाई दिए, फिर वह बाहर दरवाजे की तरफ चले गए। अब वह मुझे दिखाई नहीं दे रहे थे। मैंने राधा को जगाया और फिर हम नीचे जा पहुंचे। मम्मी-पापा एक तरफ बैठे थे, पर बाबा दिखाई नहीं दे रहे थे। मैंने मां से पूछा-‘‘बाबा कहां हैं?’’

  ‘‘वह गांव गए हैं।’’ पापा ने बताया।

  ‘‘दो दिन बाद आएंगे।’’ मां बोलीं।

  ‘‘गांव क्यों गए हैं?वहां तो कोई नहीं है हमारा।’’

  ‘‘तुम्हारी एक दादी रहती थीं। वह बीमार थीं। इसीलिए गए हैं।’’

  ‘‘लेकिन हमारी दादी तो यहां हमारे साथ रहती थीं।’’ मैं पूछ रहा था। दो साल पहले दादी हमें छोड़ गई थीं। तब फिर गांव में यह कौन सी दादी थीं जिनके पास बाबा गए थे।

  ‘‘तुम्हारे बाबा  की बहन जयवंती जो गांव में ही रहती थीं।’’ पापा ने जयवंती दादी के बारे में कुछ बताया, जो मेरी समझ में नहीं आया। मैंने उन्हें कभी देखा ही नहीं था।

  बाबा दो दिन बाद लौट आए। वह कुछ थके-थके लग रहे थे। शाम को मैंने और राधा ने रोज की तरह छत को पानी डालकर ठंडा किया, फिर बाबा के लिए शीतलपाटी बिछा दी। अब आकाश में तारे झिलमिल करने लगे थे। बाबा आकर शीतलपाटी पर बैठ गए। उन्होंने पूछा-‘‘आज कौन सी कहानी सुनोगे?’’

  मैंने कहा-‘‘बाबा, आज हम सच्ची कहानी सुनेंगे?’’

  ‘‘यह सच्ची कहानी कैसी होती है?’’ उन्होंने पूछा।

  ‘‘जो सच होती है-वैसी कहानी सुनाइए, हम जयवंती दादी की कहानी सुनेंगे।’’ हम दोनों ने एक साथ कहा।

  बाबा कुछ देर चुप रहे फिर बोले-‘‘तो तुम्हारे पापा ने तुम्हें जयवंती दादी के बारे में बता दिया। हां, दो दिन पहले वह स्वर्ग चली गईं। मैं गांव गया तो सही पर उनका मुंह न देख सका।’’

  मैंने कहा-‘‘बाबा, पापा को भी उनके बारे में ज्यादा पता नहीं है। आप ही बताइए, बाबा कुछ देर चुप बैठे रहे फिर कहने लगे-‘‘मैं और जयवंती कई वर्षों तक गांव में रहे। हमारा बचपन साथ-साथ बीता... हम देानों में बहुत प्रेम था। हम सदा साथ-साथ रहते थे। हमारे घर से नदी बस थोड़ी ही दूर थी, हम अक्सर खेलते हुए नदी तट पर पहुंच जाते। पिता हम दोनों को वहां जाने से रोकते। कहते-- नदी में घडि़याल आ गया है। वह मनुष्यों को खा जाता है।

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  तब जयवंती ने कहा था-‘‘जब घडि़याल हमारी तरफ आएगा तो मैं भैया के सामने खड़ी हो जाऊंगी, वह मुझे खाकर ही भैया के पास पहुंच सकेगा।‘’ और फिर रोते-रोते उसने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया।

  मैंने कहा-‘‘जयवंती, रो क्यों रही हो। यहां हमारे घर में तो घडि़याल का कोई खतरा नहीं है।’’ यह सुनकर जयवंती हंस पड़ी। जब वह हंस रही थी तब भी उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे।' कहकर बाबा आंखें पोछने लगे।

  मैंने पूछा-‘‘इसका मतलब जयवंती दादी आपसे बहुत प्यार करती थीं।'

  ‘‘हां, वैसे ही जैसे तुम और राधा एक  दूसरे से करते हो।’’ कहकर बाबा हंस पड़े। बोले-‘‘एक बार एक सांड जयवंती के पीछे पड़ गया। वह डरकर भागने लगी तो गिर पड़ी। मैं उसके साथ ही था। मैंने जयवंती को अपने पीछे छिपा लिया और सांड पर पत्थर फेंकने लगा। कुछ देर बाद वह मुड़कर चला गया। हम दोनों बच गए।’’

  ‘‘सांड आपको चोट भी पहुंचा सकता था।’’ मैंने कहा।

  ‘‘हां, यह तो था पर मैं जयवंती को खतरे से बचाने के लिए कुछ भी कर सकता था।’’

    इसके बाद बहुत देर तक मैं और राधा जयवंती दादी के बारे में पूछते रहे और बाबा बताते रहे। बीच-बीच में वह पूछ लेते थे-‘‘जब नींद आए तो बता देना।’’

  उस रात हम देर तक बाबा से उनकी बहन जयवंती दादी की बातें सुनते रहे पर नींद हमारे पास तक नहीं फटकी। बाबा ने हमें अपने गांव के बारे में बताया जहां मैं और राधा कभी नहीं गए थे। पर उनकी बातें सुनकर मुझे लग रहा था जैसे मैं उनके साथ उनके गांव की गलियों में घूम रहा हूं। मैंने कहा-‘‘बाबा, मैं आपके साथ जाकर गांव देखना चाहता हूं।’’

  ‘‘गांव तो जा सकते हैं पर तुम्हारी जयवंती दादी तो अब रही नहीं।’’ बाबा ने उदास स्वर में कहा और आंखें पोंछने लगे।

  आकाश में सब तरफ चमकीले तारे बिखरे थे| बाबा ने कहा था-- एक नया सितारा तारों के झुंड में शामिल हुआ है। मैं तारों को देखने लगा-क्या नया सितारा जयवंती दादी थीं? (समाप्त )    

Friday 13 January 2023

रोशनी का चौराहा-कहानी-देवेंद्र कुमार

 

 

 

रोशनी का चौराहा-कहानी-देवेंद्र कुमार

बरसात का मौसम नहीं था, फिर भी जोरों की बारिश शुरु हो गई। दोपहर ढलते ही झुटपुटा हो गया। अगले दिन इम्तिहान है इसलिये अरुण और गरिमा पढ़ रहे थे, पर उनका मन तो बाहर जाकर बारिश में भीगने का हो रहा था। वैसे दोनों अलग अलग बैठ कर पढ़ रहे थे,  पर दोनों का मन एक ही बात कह रहा था। उनके मम्मी-पापा और दादी भी दूसरे कमरे में बैठे थे। तभी मम्मी ने आकर खिडकियों के पर्दे हटा दिए। कहा-“अंधेरा हो गया दिन में, कम से कम लाइट तो जला लो। “और लाइट आन करके बाहर चली गईं, पर जाते जाते हिदायत कर गईं कि ध्यान से पढ़ाई करें।

दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और मुस्करा दिए। पर तभी लाइट चली गई। कमरे मैं अन्धकार छा  गया। दोनों खिड़की के पास जाकर खडे हो गए और फिर खिड़की खोल दी, हवा के तेज झोंके के साथ बूंदें अन्दर आकर उन्हें भिगो गईं । कुछ देर बाद मम्मी मोमबत्ती लेकर अंदर आ गईं पर उससे बात नहीं बनी, अब पढना मुश्किल था। पापा ने पुकारा-“ अरुण और गरिमा, बाहर आ जाओ।

दोनों बाहर के कमरे में चले आये। उन्होंने सुना पापा दादी से कह रहे थे-“ मां, यह तो मुश्किल हो गई, कल बच्चों का इम्तिहान है, अब कैसे होगा? “ दादी ने मुस्करा कर कहा- “रमेश, तुम शायद भूल गए कि गाँव के हमारे घर में बिजली नहीं थी और तुम भी शहर में आने से पहले कई साल तक लैंप की रोशनी में ही पढते थे।”  

अरुण के पापा ने कहा-“ मां, बचपन के वे दिन तो कब का भूल चुका हूँ, और अरुण तथा गरिमा तो कभी गाँव गए ही नहीं।” दादी ने कहा-“ पर मुझे वे दिन कभी नहीं भूलते। “ काफी देर हो गई पर लाइट नहीं आई। तभी दादी ने अरुण की माँ लता से कहा-“ लगता है बिजली जल्दी आने वाली नहीं।” कमरे में चुप्पी छाई रही, भला इस बारे में कोई क्या कह सकता था। तभी दादी उठ कर रसोई में चली  गईं, कुछ देर बाद एक थाली में आटा और गिलास में पानी लेकर आ गईं। लता, रमेश, अरुण और गरिमा चुपचाप उन्हें देख रहे थे, बात कुछ समझ में नहीं आ रही रही थी। भला बात बिजली की हो रही है और दादी हैं कि थाली में आटा लाकर न जाने क्या करने जा रही हैं!। ये चारों हैरानी से देखते रहे। दादी चुपचाप अपना खेल करती रहीं। वह एकदम चुप थीं, फिर कमरे में एक धुन गूंजने लगी। दादी न जाने क्या  गुनगुना रही थीं और उनके हाथ आटे में पानी मिला रहे थे।

आखिर रमेश से चुप न रहा गया, उन्होंने कहा-“ माँ, यह क्या खेल कर रही हो, कुछ हमें भी तो बताओ।दादी ने कहा- “ लाइट नहीं है और कल बच्चों का इम्तिहान है इसलिए उनकी पढाई जरुरी है, देखो शायद कुछ हो जाए।” और फिर से आटा मांडने लगीं। सब चुप बैठे रहे, दादी के हाथ आटे पर चल रहे थे। देखते देखते थाली में आटे का एक बहुत बड़ा दीपक दिखाई देने लगा। दीपक आटे के ही बने हुए एक खम्भे पर टिका हुआ था। इस बीच लता जैसे समझ चुकी थी। वह रसोई में जाकर सरसों के तेल की बोतल ले आई। दादी ने आटे के दीपक में  तेल भर दिया। अब पता चला कि दादी क्या करना चाहती थीं। उन्होंने दीपक के चार कोने बाहर की तरफ बढ़ा दिए फिर रुई की चार बत्तियां तेल में भिगो कर हर कोने से कुछ आगे निकाल दीं। अब रमेश की बारी थी, वह किचन में जाकर माचिस ले आये और दादी के दीपक को जला दिया। कमरे में जल रही मोमबत्तियों का प्रकाश जैसे एकाएक कई गुना बढ़ गया।

कमरे में सम्मिलित हंसी गूँज गई, दादी के दीपक ने जैसे जादू कर दिया था। दादी धीरे धीरे मुस्करा रही थीं। उन्होंने कहा-“ गांवों में हमेशा ही बिजली की दिक्कत रहती है, ऐसे में रोशनी का  चौराहा ही बच्चों की पढाई में उनकी मदद करता है, “

“ मां, तुम इसे रोशनी का चौराहा क्यों कह रही हो?”- रमेश ने पूछा।

दादी ने हंस कर कहा-“ तो इसे और क्या कहूं?  जरा देखो तो कैसे अपने चारों हाथों से रोशनी  फैला कर अंधकार को दूर भगा रहा है।”

तब तक अरुण और गरिमा दूसरे कमरे से किताबें ले आये थे और पढाई में जुट गये थे। अब उन्हें पढने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। मोमबत्ती और दीपक के प्रकाश ने मिल कर अन्धकार को भगा दिया था। बच्चे पढ़ रहे थे। रमेश और लता मां से गाँव के जीवन के बारे में बहुत सी बातें जानना चाहते थे, पर अभी अवसर नहीं था। बच्चे पढाई में डूबे थे और रोशनी का चौराहा अपने चारों हाथों से अंधकार को दूर भगा रहा था। ==

                                                                                                         

 

Monday 9 January 2023

उपहार --कहानी-देवेंद्र कुमार

 

उपहार --कहानी-देवेंद्र कुमार  

बच्चों के बाबा यानी श्यामजी का जन्मदिन उनके मना करने पर भी मनाया जाता है।इस बार उनके 75 वर्ष पूरे होने पर  बेटे  रमेश ने विशेष आयोजन किया है। ज्यादा लोगों को बुलाया गया है। धीरे-धीरे मेहमान आने लगे। सबके हाथों में रंगीन कागजों में लिपटे उपहार के पैकेट हैं। रचना और राजन एक तरफ खड़े देख रहे हैं।वे रमेश की संतान हैं|  एकाएक श्यामजी ने पूछा- ‘‘बच्चों, क्या तुम मुझे कोई उपहार नहीं दोगे ?’’

सुनकर रचना और राजन दूसरे कमरे में दौड़ गए और रंगीन पन्नी में लिपटा एक बड़ा-सा पैकेट ले आए।

बढ़कर उपहार का पैकेट बाबा को थमा दिया। फिर उनके पैर छूने के लिए झुकने लगे तो श्यामजी ने उन्हें आलिंगन में बांध लिया फिर पूछा- ‘‘इसमें क्या है?’’

‘‘खोलकर देख लीजिए।’’ रचना ने कहा।

बाबा कुछ देर पन्नी में लिपटे पैकेट को उलटते-पलटते रहे फिर उन्होंने  पन्नी उतार दी। सबने देखा वह एक लकड़ी की छोटी-सी संदूकची थी|

संदूकची बहुत पुरानी लग रही थी।श्यामजी ने संदूकची को एक-दो बार उलटा-पलटा फिर बोले- ‘‘बच्चों, तुम्हें यह संदूकची कहां मिली! मैं तो इसे न जाने कब से ढूंढ़ रहा था।‘’ श्यामजी ने संदूकची का ढक्कन खोल डाला फिर मेज पर उलट दिया-उसमें कोई कीमती चीज नहीं थी। थे कुछ धुंधले फोटो, कुछ कागज, छोटी-छोटी कई थैलियां और कई पुराने पोस्टकार्ड। उन्होंने कहा-‘‘बच्चों ने तो जैसे  खोया खजाना ही दे दिया है। जानते हो, इनमें बहुत पुराने फोटाग्राफ तथा चिट्ठियां हैं मेरे हाथों की लिखी हुई।’’श्यामजी ने रचना से पूछा- ‘‘यह पुरानी संदूकची तुम्हें कहां मिली।’’

जवाब राजन ने दिया। बोला- ‘‘हमारी हमवर्क की कापी मिल नहीं रही थी। ढूंढ़ते हुए हम स्टोर में चले गए जहां बेकार चीजें रखी रहती हें।’’

‘‘कापी मिली या नहीं?’’

‘‘कापी तो नहीं मिली-पर कबाड़ में हमें यह संदूचकी दिखाई दी तो हमने बाहर निकाल ली।’’ रचना बोली। “उसमें रखा सामान देखा पर कुछ समझ नहीं आया। तब हमने सोचा बाबा को जरूर पता होगा इन पुराने कागजों और फोटाग्राफ्स के बारे में।‘’

श्यामजी ने कहा- ‘‘ये सभी चीजें बहुत पुरानी हैं-शायद 65 वर्ष या उससे भी ज्यादा पुरानी।

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तभी रमेश ने एक पोस्टकार्ड उठा लिया। पढ़ने लगे”-आदरणीय बाबूजी, यहां सब ठीक है। फिर पत्र के अंत में लिखा नाम पढ़ा-श्याम. यह तो...’’

श्यामजी बोले- ‘‘हां, यह मेरा ही नाम है। घर में थे  मेरी नानी , पड़नानी और  मेरे बड़े भैया... आगरे में मेरी नानी के भाई रहते थे। मैं उन्हीं को नानी की ओर से चिट्ठी लिखता था।’’

रमेश ने ने देखा एक पोस्टकार्ड पर लिखी कुछ पंक्तियां लाल स्याही से कटी हुई थीं। श्यामजी बोले- ‘‘हां, यह चिट्ठी मैंने लिखी थी आगरे वाले मामाजी के नाम, पर इसे डाक में नहीं डाला गया था।’’

‘‘क्यों?’’ रमेश ने पूछा- ‘‘और लाइनों को लाल स्याही से क्यों काटा गया है।‘’ -लिखा था-मेरा दोस्त अविनाश बहुत बीमार है। हमारे पड़ोस में रहने वाली कला की तबीयत भी काफी खराब रहती है।

श्यामजी बताने लगे -आगरे वाले मामाजी जब दिल्ली आते तो मुझसे कहते-‘‘श्याम, तू चिट्ठी में घर की बातें लिखता है। क्या तेरे पास अपनी कोई बात नहीं होती लिखने के लिए।’’

‘‘तब मैंने सोचा मैं अपनी बात भी लिखूंगा-अविनाथ मेरा दोस्त था-मैंने उसकी बीमारी की बात लिख दी। पड़ोस में रहने वाली कला के बारे में भी लिखा। मैं सोच रहा था मामाजी जब दिल्ली आएंगे तो मैं उन्हें अविनाश और कला  से मिलाने ले जाऊंगा।‘‘तभी बड़े भैया वहां आए। वह मेरा लिखा पोस्टकार्ड उठाकर पढ़ने लगे। फिर गुस्से से बोले- ‘‘यह अविनाश और कला  कौन हैं-यह क्या बकवास लिख डाली है।’’  फिर उन्होंने लाल स्याही से अविनाश और कला वाली पंक्तियां काट दीं और पोस्टकार्ड लेकर चले गए

“मुझे तो रोना आ गया। मैंने कुछ गलत तो नहीं लिखा था। इसके कई दिन बाद मैं भैया के कमरे में गया तो देखा मेज पर वही चिट्ठी रखी थी-यानी भैया ने मेरी लिखी चिट्ठी डाक में नहीं डाली थी। मैंने चुपचाप चिट्ठी उठा ली और बाहर चला आया।

‘‘फिर क्या हुआ’’ रमेश ने पूछा।

‘‘फिर मैंने चुपचाप मामाजी को दोबारा चिट्ठी लिखी.  उसमें अविनाश और कला की बीमारी के बारे में बताया और जाकर उसे लेटर बॉक्स में डाल आया। इसके कुछ दिन बाद मामाजी आगरा से  दिल्ली आए तो उन्होंने मुझसे पूछा- ‘‘श्याम, यह अविनाश और कला कौन हैं?’’ उस समय बड़े भैया भी वहीं खड़े थे। उन्होंने घूरकर मुझे देखा जैसे कह रहे हों-तुझसे मैं बाद में निपटूंगा। बाबा की यह बात सुनकर कमरे में मौजूद सभी हंस पड़े। रचना और राजन भी मुसकरा उठे।

‘‘तो आपके भैया ने आपको खूब डांटा फटकारा होगा।’’ रमेश ने पूछा।

श्यामजी भी हंस पड़े।‘ आज इतनी पुरानी बातें तो पूरी तरह याद नहीं। हो सकता है भैया ने मुझे डांटा हो।

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मामाजी ने कहा -''मैं तुम्हारे बीमार दोस्तों को देखने चलूंगा।’’मामाजी की बात सुनकर मैं उत्साह से भर उठा। कुछ देर बाद मैं दौड़ा हुआ अविनाश के घर गया। उसे मामाजी के बारे में बताया। मामाजी को मैं अविनाश और कला के घर ले गया। मामाजी ने उनका हाल-चाल पूछा। फिर हम लौट आए।‘श्यामजी ने आगे बताया- ‘‘मामाजी को मैंने उन दोनों के घर की स्थिति बता दी थी। उन्हें पैसे की तंगी थी।  मामाजी अविनाश और कला के इलाज के लिए कुछ रुपये देना चाहते थे। पर मैंने साफ कह दिया कि मेरे मित्रों के घरवाले पैसे कभी नहीं लेंगे।

‘मामाजी कुछ देर सोचते रहे फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि अविनाश और कला का इलाज  कौन डाक्टर कर रहा है। मैंने उन्हें बताया तो मामाजी मेरे साथ  डाक्टर के पास गए। उनसे बात की और कहा कि वह अविनाश और कला का अच्छे से अच्छा इलाज करें। मामाजी ने डाक्टर से कहा कि वह आगरा से उन्हें पैसे भेजते रहेंगे पर वह अविनाश और कला के घरवालों से इस बारे में कुछ न कहे|’’इतना कहकर श्यामजी चुप हो गए। कमरे में खामोशी छाई थी। तभी रचना ने पूछा- ‘‘बाबाजी ,फिर क्या हुआ?’’

बाबा सिर झुकाए बैठे थे। उन्होंने उदास स्वर में कहा-‘‘मामाजी डाक्टर को पैसे भेजते रहे। डाक्टर उन दोनों का मुफ्त इलाज करते रहे। अविनाश तो ठीक हो गया पर-पर...कला की बीमारी ठीक न हुई।’’

रचना और राजन दौड़कर श्यामजी से लिपट गए। माहौल कुछ उदास हो गया था। श्यामजी ने पत्र और फोटो समेटकर संदूकची में रखकर उसे बंद कर दिया। फिर बोले- ‘‘मैं देख रहा हूं कि मेरे बचपन की पिटारी का खुलना तुम सबको उदास कर गया है। यह तो ठीक नहीं. जो बीत गया, बीत गया-उस पर ज्यादा नहीं सोचना चाहिए। हमें आने वाले कल के सपने देखने चाहिए।’’ और फिर राजन और रचना को गोद में भरकर प्यार करने लगे।

बाबाजी के  बचपन की पिटारी बंद हो चुकी थी। उन्होंने संदूचकी को फिर से पन्नी में लपेटकर रमेश से कहा-‘‘इसे अंदर रख आओ।’’जब रमेश बाबा की संदूकची रखकर लौटा तो सब हंस रहे थे, क्योंकि सबकी फरमाइश पर बाबा ने एक गजल सुनानी शुरू कर दी थी। बाबा के जन्म दिन का रंग जमने लगा था. (समाप्त )