फूल
मुस्कुराए—देवेन्द्र
कुमार—बाल कहानी
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ये
दोनों फूलों के पौधे बेचते थे। एक का नाम था रामू और दूसरा था फूलसिंह। दोनों
ठेलों में पौधे रखकर गली-मोहल्ले में चक्कर लगाते थे। कभी-कभी तो वे साथ-साथ बस्ती
में आ पहुँचते थे। तब दोनों में कहा सुनी होने लगती थी। कहा सुनी होने का कारण था-
दोनों के पौधों की बिक्री का कम-ज्यादा होना।
वैसे
फूलसिंह के नाम में फूल शामिल था पर फिर भी रामू उससे बिक्री में बाजी मार ले जाता
था। चाहे और किसी दिन आएं या न आएं, दोनों शनिवार और रविवार को बस्ती में
जरूर आते थे। क्योंकि उस दिन प्रायः दफ्तरों की छुट्टी होती थी और फूलों के प्रेमी
साहब और मेम साहब घर पर ही मिल जाते थे। इन दो दिनों में उनकी बिक्री सबसे ज्यादा
होती थी।
फूलसिंह
ने एक बार रामू से कह दिया था- “तुम मेरा पीछा क्यों करते हो। जहां मैं
जाता हूँ वहीं चले आते हो।”
रामू
बोला- “मैं भला पीछा क्यों करूंगा। मैं तो अपने टाइम पर घर से निकलता हूँ और
बस्ती का चक्कर लगाता हूँ। अब अगर बीच में कहीं मैं और तुम मिल जाएं तो इसमें मेरा
क्या कसूर है। वैसे भी हम दोनों में भेंट
मुलाकात होती रहे तो इसमें क्या बुरा है।” कहकर वह मुस्कुरा दिया।
“क्या बुरा है।”
फूलसिंह
रामू की नकल उतारते हुए बड़बड़ाया। मैं नहीं मिलना चाहता हूँ तुमसे। तुम अलग टाइम पर
आया करो।”
“नहीं
मिलना चाहते तो मत मिलो, पर मैं तो अपने समय पर ही आया करता
हूँ।” रामू बोला।
‘’इसका मतलब यह कि तुम मुझसे जान बूझकर लड़ना
चाहते हो। यह ठीक नहीं है।” फूलसिंह ने गुस्से से कहा।
जब वे दोनों लड़ रहे थे तो वचनसिंह अपनी छाबड़ी लिए एक तरफ बैठा देख रहा था।
उसने कहा- “अरे तो लड़ते क्यों हो। फूलों के पौधे दोनों
बेचते हो। तुम दोनों भले ही अलग हो पर फूल तो एक हैं। इस तरह सुबह- सुबह लड़ना ठीक नहीं होता।” वह
देख रहा था कि बात बिना बात बढ़ रही है। दोनों ही बस्ती में फेरी लगाने के बाद
वचनसिंह के पास बैठकर नाश्ता भी करते थे। इस तरह वचनसिंह की बिक्री भी हो जाती थी।
उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर लड़ाई की वजह क्या है? पर फूलसिंह शांत
नहीं हुआ। फूल जानता था कि उसकी बिक्री न होती हो पर अक्सर ही रामू के सारे पौधे उस
से पहले बिक जाते थे। फूलसिंह ने कई बार सोचा था कि आखिर इसकी वजह क्या है। क्योंकि
दोनों ही एक नर्सरी से फूलों के पौधे औार खाद लाया करते थे। जब पौधे एक से थे तो
फिर रामू की बिक्री ज्यादा क्यों होती थी! उसने बहुत सोचा पर कारण समझ में नहीं
आया।
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आखिर एक सुबह उसने रामू से दो दो हाथ करने की ठान ली। वह आगे था और रामू
कुछ पीछे चल रहा था। मोड़ पर उसने अपना ठेला रामू के ठेले के सामने अड़ा दिया और
चिल्लाया- “मैंने तुझे इतनी बार समझाया, पर
तू मानता ही नहीं। अगर तू नहीं माना तो फिर देख लेना।”
“क्या देख लूं।”
रामू
ने हंसते हुए कहा। शायद वह लोगों को इसलिए पसंद था कि हरेक से मुस्कुरा कर बात
करता था। इसीलिए लोगों को उसका व्यवहार अच्छा लगता था। बोलचाल तो फूलसिंह की भी
ठीक ही थी, पर लोगों को रामू से पौधे खरीदना ज्यादा पसंद
था। रामू को तो इसमें कोई दोष था नहीं। पर फूलसिंह यह समझता था कि उसकी बिक्री कम
होने के पीछे रामू की ही कोई शरारत थी।
फूलसिंह
अपने ठेले को गली के बीच में अड़ाए खड़ा था। रामू ने बगल से निकल जाना चाहा, पर
संकरी गली में इतनी जगह ही नहीं थी कि दो
ठेले अलग-अगल से निकल सकें। रामू ने कई बार कहा- “फूलसिंह,
ठेला
आगे पीछे कर लो, ताकि मैं आगे चला जाऊं।” पर फूलसिंह ने
हठ ठान ली थी। “मैंने तय कर लिया है कि तेरा ठेला मेरे ठेले से
आगे नहीं जाएगा। तुझे मेरे पीछे-पीछे ही चलना होगा।”
चने
चबैने वाला वचनसिंह दोनों की बातें सुनकर मुस्करा रहा था। उसने रामू से कहा- “अरे
क्यों झगड़ा बढ़ाते हो। अगर वह तुम्हें रास्ता नहीं देना चाहता तो न सही, कुछ
देर इंतजार कर लो। फूलसिंह को अपना ठेला आगे ले जाने दो, तुम बाद में चले
जाना। भला दो चार मिनट में क्या फर्क पड़ जायेगा।”
रामू
ने कहा- “भैया, तुम्हारी बात ठीक है, पर मेरी समझ में
यह नहीं आ रहा कि फूल सिंह ने ऐसी हठ क्यों ठान ली है।”
“छोड़ो इस बात को।
आओ कुछ देर मेरे पास बैठ जाओ, तब तक फूलसिंह का गुस्सा भी ठंडा हो
जाएगा। फिर चले जाना, यह आगे-पीछे की रेस नहीं है।”
रामू ने ठेला एक तरफ कर
लिया और फूलसिंह से बोला- “जाओ, तुम्हीं अपने फूलों को आगे ले जाओ। मेरे फूल पीछे रह जायेंगे तो कोई आफत नहीं आ जाएगी।”
फिर चेहरे से पसीना पोंछता
हुआ वचनसिंह के पास जा बैठा। इतनी देर में दो लोग वहां आकर रामू के ठेले पर लगे
पौधे देखने लगे। फूलों के कई पौधे उन्हें पसंद आ गए। मोलभाव हुआ फिर सौदा हो गया।
उन लोगों ने अपने घर का पता बता दिया। रामू से कहा- “पौधों के गमले हमारे घर छोड़ जाना।”
कहकर उन्होंने रामू
को एडवांस के रूप में कुछ पैसे दिए और फिर आगे चले गए।
फूलसिंह
कहीं गया नहीं था। वहां खड़ा-खड़ा यह सब देख रहा था। उसे गुस्सा आ गया। यह क्या!
उसने रामू को अपने से आगे नहीं जाने दिया, पर फिर भी रामू ने कई पौधों का सौदा कर
लिया। वह अपने गुस्से पर काबू नहीं कर पा रहा था। उसने मन ही मन कुछ सोचा और मोड़
पर ठेला रोके खड़ा रहा। रामू को बताए पते पर पौधे पहुँचाने थे। अब तो उसे फूलसिंह
के ठेले के पास से निकलना ही था। उसने कहा- “फूलसिंह,
अब
तो ठेला हटा लो। मुझे आगे जाना है।”
“मैंने कहा न तू अपना ठेला मुझसे आगे
नहीं ले जायेगा।”
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“पर तुम न आगे जा
रहे हो, न पीछे आ रहे हो। बस रास्ता रोके खड़े हो। यह क्या बात हुई। अच्छा हटो
मुझे निकलने दो। “कहकर रामू ने अपना ठेला आगे बढ़ाया, पर
आगे निकल न सका। उसने जैसे ही अपना ठेला निकालने की कोशिश की वैसे ही फूलसिंह ने
अपने ठेले को आगे धकेला। उसका ठेला रामू के ठेले से जा टकराया। रामू का ठेला उलट
गया। उस पर रखे पौधों के गमले सड़क पर गिर गए। कुछ तो गिरते ही टूट गए। सब तरफ पौधे
और मिट्टी बिखर गई।
रामू सन्न रह गया। उसकी परेशानी देख फूलसिंह के
चेहरे पर शरारत की हंसी आ गई। वचनसिंह अपनी छाबड़ी के पास बैठा यह सब देख रहा था।
वह दौड़कर गया और गिरे हुए गमले उठाकर सड़क के किनारे रखने लगा, फिर
पैरों से सड़क पर बिखरी मिट्टी भी एक तरफ सरका दी।
तब
तक रामू और फूलसिंह एक दूसरे से भिड़ गए थे। फूलसिंह बोला- “मैंने कहा था न
मुझसे मत उलझ, पर तू नहीं माना। मैं चला।” रामू
के कई गमले टूट गए थे। कई गमलों से पौधे निकलकर सड़क पर जा गिरे थे। वह माथे पर हाथ
रखकर सड़क के एक तरफ बैठ गया और फटी-फटी आंखों से फूलसिंह की तरफ देखने लगा।
मन
ही मन खुश होता हुआ फूलसिंह आगे चला। उसे उम्मीद थी आज वह रामू से
ज्यादा पौधे बेच लेगा। उसने मुस्कराते हुए मुड़कर रामू की तरफ देखा, बस
तभी एक गड़बड़ हो गई। उसने ध्यान न दिया कि सड़क पर एक गड्ढा था। उसका पैर फंस गया और
वह जा गिरा। पैर की ठोकर से उसका ठेला उलट गया और रामू की तरह उसके पौधों के गमले
भी सड़क पर जा गिरे। सिर्फ इतना ही नहीं, गिरते समय उसका माथा भी सड़क से टकरा
गया। वह बेहोश हो गया। रामू और वचन ने दौड़कर फूलसिंह को उठाया, फिर
उसे होश में लाने का उपाय करने लगे। वचन ने फूलसिंह को संभाला तब तक रामू ने औंधे
पड़े ठेले को सीधा किया, फिर टूटे हुए गमले व पौधे उठाने लगा। उसने
साबुत गमले उठाये और वहीं रख दिये जहां वचन ने उसके गमले रखे थे फिर टूटे हुए
गमलों को एक तरफ रखकर दिया।
तब
तक फूलसिंह को होश आ गया। उसने आंखे खोलीं तो वचन व रामू दोनों बोले- “क्यों
फूल, अब कैसे हो?”
फूलसिंह
कुछ बोल न पाया। तब तक वचन दौड़कर चाय वाले से चाय और कुछ खाने का सामान ले आया।
माथे पर मामूली चोट थी। इसी बीच रामू जाकर मोहल्ले में रहने वाले कम्पाउंडर रमेश
को बुला लाया। उन्हेांने मरहम पट्टी कर दी। रामू ने पैसे देने चाहे पर रमेश ने लिए
नहीं। हंसकर बोले- “कभी तुमसे फूलों का एक गमला ले लूंगा। बस वही
मेरी फीस होगी।” सुनकर सब हंस पड़े।
अब
रामू और फूलसिंह के ठेले पास-पास खड़े थे। ठेलों में अब थोड़े से ही गमले दिखाई दे
रहे थे, क्योंकि ज्यादातर गमले टूट गए थे। खाद की बोरियां गिरकर फट गई थीं।
पूरी सड़क पर पौधों की गीली मिट्टी और खाद बिखरी थी। एक तरफ बहुत सारे फूलों के
पौधे पड़े थे जो ठेले गिरने से दब और कुचल गये थे।
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वचन
ने फूलसिंह से कहा- “भैया, समझो बहुत कुशल हुई। तुम जिस तरह गिरे
थे उसमें चोट ज्यादा भी आ सकती थी। चलो जो हुआ उसे भूल जाओ। अब दोनों अपने-अपने
गमले छांट लो।” फूलसिंह ने देखा सामने कई साबुत गमले रखे थे।
उनमें लगे फूल धीरे-धीरे हवा में हिल रहे थे- पर यह कैसे पता चले कि कौन सा गमला
उसका था और कौन सा रामू का। क्योंकि वचन
ने दोनों के साबुत गमले पासपास रख दिये थे। वह देखता रहा, सोचता रहा था,
पर
उसकी आंखें अपने फूलों को रामू के फूलों से अलग नहीं पहचान पाईं । एक सी हरियाली,
एक
से फूल और गमले भी एक से। क्योंकि दोनों एक ही नर्सरी से पौधे लाया करते थे।
उसके
मुंह से निकला—‘’फूल तो एक से हैं। कैसे पहचानूं कि कौन से मेरे है और कौन से रामू
के।‘’
वचन
बोला- “चलो यह हिसाब किताब तो बाद में हो जाएगा, पहले चाय पीकर
कुछ खा लो। फिर अपने-अपने घर जाकर आराम करो। आज का दिन अच्छा नहीं रहा।”
फूलसिंह ने रामू का हाथ पकड़ लिया। बोला-“लो तुम भी खाओ।
कैसे कहूं कि आज का दिन बुरा रहा। नहीं दिन तो अच्छा ही रहा है। जो टूट फूट होनी
थी हो गई।” उसके मन का सारा गुस्सा निकल गया था। ( समाप्त )