Thursday 30 April 2020

खेल-कहानी-देवेन्द्र कुमार

खेल—कहानी-देवेन्द्र कुमार
मैं वर्ष 1993 में पुरानी दिल्ली के बाज़ार सीताराम से पटपड़ गंज में रहने आया था।तब यह बस्ती इतनी गुलज़ार नहीं थी। आवागमन के लिए रिक्शा ही एकमात्र साधन थी। जगह बदल गई पर लिखने का क्रम पहले की तरह चल रहा है।इन वर्षों में की गई रिक्शा यात्राओं में मेरा परिचय अनेक रिक्शा वालों से हुआ जो मेरी आदत के मुताबिक अन्तरंग और प्रगाढ़ होता गया।एकाएक मैंने महसूस किया कि मेरे जाने       अनजाने उनमें से अनेक मेरी रचनाओं में समा गए हैं। मैं ऐसी कुछ रचनाओं को आपके सामने रखना चाहता हूँ==
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  कभी-कभी घर का काम एक आवश्यक मजबूरी बन जाता है, लेकिन जून की दोपहर में निकलना कोई नहीं चाहता और वह भी तब, जब दिन रविवार हो। सो न चाहते हुए भी मैं घर के बाहर सड़क पर खड़ा था। मैं रिक्शा खोज रहा था, ताकि कालोनी से बाहर बड़ी सड़क वाले बस स्टैंड तक जा सकूं।
  सड़क सुनसान, हवा तेज और बेहद गरम। मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई, पर कहीं कुछ नहीं था। मैं आंखों  पर हथेली की छाया किए आगे चला। तभी एक रिक्शा दूर खडी दिखाई दी। मैं  कदम घसीटता रिक्शा के पास तक पहुंच गया, पर रिक्शावाला दिखाई न दिया। एकाएक पीछे किसी के चिल्लाने की आवाज आई। मैंने घूमकर देखा। कुछ लोग खड़े थे-शायद दो या तीन। हो सकता है रिक्शावाला उन्हीं में हो-आगे बढ़कर पूछना ठीक रहेगा।
   मैंने उम्मीद भरी आवाज दी लेकिन मेरी पुकार की प्रतिक्रिया नजर नहीं आई। वे आकाश की ओर देखते खड़े थे-बेखबर। मैंने भी ऊपर की ओर नजरें उठाई, पर ठीक से देख न पाया। नीली कौंध भरी गरमाहट आंखों में चुभने लगी।पता नहीं वे लोग क्या देख रहे थे?
  ‘‘सुनो, बस स्टैंड तक का क्या लोगे?’’ मैंने कह तो दिया, पर अगर रिक्शावाला उनमें न हुआ  तो...मैं और पास जा खड़ा हुआ। वे तीन थे। एक लुंगी और बनियान  पहने और कंधे पर अंगोछा रखे कमर पर हाथ टिकाए खड़ा था। दूसरा दस-बारह साल का किशोर और तीसरा मेरी तरह एक साहब। लुंगी-बनियान वाला ही मुझे अपना आदमी लगा। मैंने आशा भरी आंख उस पर टिकाई, लेकिन वह मेरे दो बार पुकारने पर भी उसी तरह खड़ा रहा। 
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  ‘‘भाई...’’ मैंने पुकारना शुरू किया, तो वह मेरी तरफ घूमा-‘‘कह तो दिया नहीं जाना... कब से कह रहा हूं, फिर भी...’’
  मैं अचकचा गया। उसने तो पहली बार मुझसे कुछ कहा था। इतना तो तय था कि वही रिक्शावाला था, मेरा अनुमान गलत नहीं था। उसके पास ही खड़ा लड़का दांत फैलाकर हंसा-‘‘बाबू, वह नहीं जाएगा। देखते नही हम काम कर रहे हैं।’’
  काम! कैसा और कौन सा काम... मैं कुछ पूछता इससे पहले ही हलचल सी हुई-तीनों तीन दिशाओं में लपके-‘‘आ गया..आ गया...’’
  अब मुझे भी ऊपर देखना पड़ा-पंखों की फड़फड़ाहट तेजी से ऊपर गुजर गई-कौआ था, उसने उतरने के अंदाज में गोता लगाया, मैंने अनायास सिर पर हाथ रख लिये। दो पत्थर हवा में उछले और अगले पल  नीचे आ गिरे। अच्छा हुआ कि मैंने  सिर को हथेलियों से ढक लिया था. एक पत्थर ठीक मेरे सामने गिरा था, नाक को छूता हुआ। अजीब पागलपन था। चिलचिलाती धूप में लोग आकाश में उड़ते कौए पर पत्थर फेंक रहे थे। एक रिक्शावाला भी उनके खेल में शामिल हो गया था। अगर पत्थर मेरे सिर पर गिरता तो... मुझे लगा यहां से दूर जाने में भलाई है।मैं मुड़ने को हुआ, तो लुंगीवाले की आवाज उभरी-‘‘तुमने देखा बाबू, कैसे आया था बदमाश...इस बार आया तो ...तो... मैं छोड़ूंगा नहीं।’ वह गुस्से से नीले आकाश में ताक रहा था?
  मैं मुड़कर चला, तो लड़के ने दौड़कर पीछा किया। -‘‘जरा देखो न बाबू, आओ न मैं दिखाऊं। वह बदमाश इसे मारना चाहता है...लो देखो...’’ उसने एक हथेली पर टिकी दूसरी हथेली को ढक्कन की तरह जरा सा उठाया। उस फांक में से दिखाई दी-फड़कती गोली जैसी एक चिडि़या, नन्ही-सी|
  ‘‘मैं तो  कहता हूं, मर जाएगी, दम घुट जाएगा...’’ यह दूसरे आदमी की आवाज थी, जो मेरी तरह पैंट पहने था।
  ‘‘तो क्या इसे मरने के लिए बाहर, खुले में छोड़ दूं।’’ लुंगी वाले ने उसे घूरा-‘‘बस जमीन पर रखने की देर है। कौआ झट दबोच लेगा। वह कब से इसी ताक में है।“
  ओह तो यह बात थी।एक कौआ चिडि़या के बच्चे को अपने पंजों में दबोचना चाहता था और ये तीनों उसे बचाने और कौए को छकाने में लगे थे। ‘‘यह उड़ नहीं सकती। मैंने इसे उठा न लिया होता, तो कौआ कभी का ले जाता।’’ रिक्शेवाले ने मुझे संक्षेप में समझाना चाहा।
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  मुझे लगा, कुछ देर इस खेल का आनंद लिया जा सकता है, पर कितनी देर? क्या रिक्शावाला सारा दिन इसी चिडि़या में उलझा रहेगा? उसे क्या शाम की रोटी की फिक्र नहीं है। शायद नहीं, अगर होती, तो सवारी को यों साफ मना न कर देता।
  मैंने कहा-‘‘ऐसा करो, इस चिड़िया को कहीं टिका दो, ऐसी जगह जहां कौआ इसे  देख न सके, आखिर तुम इस चिडि़या को कब तक हथेली में लिए रहोगे।’’
  पैंट वाले बाबू ने लपककर मेरी बात थाम ली। राहत भरी आवाज में बोला-‘‘मैं भी यही कह रहा हूं, आखिर हम सारा दिन तो यहां मोर्चा बांधे खड़े नहीं रह सकते।’’
  मुझे लगा, वह भी शायद मेरी तरह रिक्शा की खोज में आया होगा और इन लोगों ने उसे उलझाकर रोक लिया होगा।
  तभी फड़फड़ाहट फिर उभरी। कौए ने गोता मारा   तो रिक्शावाला मुट्ठियां तानते हुए उछला, ‘‘आ तेरी...तो...आ हरामी...’’
  लड़का हथेलियों को एक दूसरे पर हल्के ढंग से टिकाए खड़ा था।मुझसे  नजर मिली तो बोला, ‘‘जब तक मेरे हाथ में हैं, तब तक बदमाश कौआ कुछ नहीं कर सकता|’’  
  ‘‘क्या तुम इसे सारा दिन लिए खड़े रहोगे। शाम तक...’’मैंने कहा तो रिक्शावाले ने मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरा, ‘‘बाबू, तुम जाओ, कोई दूसरी रिक्शा खोज लो.कहा न मुझे कहीं नहीं जाना।’’
  लड़के के कानों में मेरी बात पहुंच गई थी। बोला-‘‘मुझे बहुत देर हो गई है चिड़िया को थामे हुए। हथेलियों में गुदगुदी हो रही है। एक बार चिडि़या को जमीन पर टिकाया था, तो कौए ने झपट्टा मारा....
लेकिन बहुत देर से प्रेशर बन रहा है।’’ उसने छोटी अंगुली ऊपर की तरफ उठाई। ‘’जरा पकड़ लीजिए, अभी आया।’’ मैं कुछ कह पाता, इससे पहले ही धड़कती हुई गोली जैसी चिड़िया को  मेरी हथेली पर छोड़ कर पीछे गली में भाग गया। मैंने झट दूसरी हथेली से उसे ढांप लिया-लड़के ने ठीक कहा था-हथेली पर हल्की चुभन और गुदगुदी हो रही थी।
  मुझे लगा रिक्शावाला जैसे शरारत से हंसा हो। हां, उस शैतान लड़के ने अनचाहे ही मुझे चिड़िया और  कौए  के खेल में उलझा दिया था, जो पता नहीं किसने शुरू किया था।
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लड़का जा चुका था,बाकी दोनों पहरेदारों की तरह चौकस खड़े थे-दिशाओं को संभाले हुए। मैंने गोली जैसी चिडि़या को हथेलियों की कोठरी में सावधानी से संभाला हुआ था। एकाएक सिर में भारीपन महसूस होने लगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह शैतान छोकरा मुझे फंसाकर भाग गया। उसी तरह ये दोनों भी मौका देखकर खिसक जाएं। मैंने उन दोनों की ओर देखा-वे अपने में गुम अलग-अलग खड़े थे। जैसे आपस में उनका कोई संबंध न हो। वे शायद भूल ही गए थे कि जिस चिडि़या को कौए के हमले से बचाने की कोशिशें चल रही है वह कहां है। एक पल को लगा, दिन ढल रहा है-आकाश में कौए मंडरा रहे हैं और मैं एक हथेली पर दूसरी का ढक्कन लगाए सुनसान सड़क के बीचो-बीच अकेला खड़ा हूं। हाथेलियों की कोठरी में कुछ हो रहा है।
  मन हुआ, हथेली का ढक्कन खोल दूं, फिर चाहे जो हो। कौए को जो करना हो करे-मैं भागकर जान बचाऊं। लेकिन क्या ऐसा करना आसान था। मेरे दोनों हाथ इस तरह बंध गए थे कि मैं पसीना पोंछने लायक भी नहीं रह गया था। होंठों पर खारापन महसूस करता हुआ मैं चिडि़या को लिए हुए खड़ा था और फिर मैंने अपनी आवाज सुनी-‘‘भई, मुझे बहुत जरूरी काम है, इसे संभालो।’’ रिक्शावाले से कह रहा था मैं।
  ‘‘बाबू, बस दो पल ठहर जाओ। मैंने इसे थाम  लिया, तो मेरे हाथ बंध जाएंगे, फिर मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा।’’उसने कहा.
  ‘‘लेकिन यह साहब भी तो आखिर  कब तक खड़े रहेंगे इस तरह...’’ पैंटवाले ने मेरी हिमायत की। स्पष्ट था इस खेल से उसका  मन भी  भर चुका था। और इस बात को शायद रिक्शावाले ने भी समझ लिया था। उसकी ओर ध्यान दिए बिना वह सीधा मेरे पास चला आया, ‘‘तो आप बताओ बाबू, क्या किया जाये अब ?’’
  मैं जैसे आकाश  से गिरा। देखो तो इस बदमाश की चाल। यानी अब यह भी हाथ खींचकर अलग होने के चक्कर में था। “मैं क्या बताऊं, जो मर्जी आये करो’’-एक दूसरे पर मुंदी हथेलियों में लहरें-सी उठ रही थीं। ऊपर वाली हथेली यों कांप रही  थी, गोया अंदर से चिड़िया उसे ऊपर उठाने के लिए जोर लगा रही हो।
  ‘‘बाबू, आप तो पढ़े-लिखे समझदार हो। भिड़ाओ न कोई ऐसी जुगत कि बच जाए बेचारी...’’ रिक्शावाला सीधे मेरी आंखों में देख रहा था, तो अब उसने अपना बोझ भी मेरे कंधों पर लाद दिया था। और तब मुझे भी सोचने पर मजबूर होना पड़ा। मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई, तो एक मकान के बाहर की दीवार में ऊंचाई पर बना एक मोखा नजर आया। हां, चिडि़या को उसमें रखा जा सकता था और उसके बाद हम दोनों छुटकारे की सांस ले सकते थे।वहां चिड़िया को  कौए से शायद कोई खतरा नहीं था।  
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  रिक्शावाले ने उस तरफ नजरें उठाई। एक बार चमककर उसका चेहरा बुझ गया-‘‘बाबू, यह उड़ नहीं सकती। वहां से गिरेगी तो बिल्ली, नेवला कोई भी...’’
  अब मुझे गुस्सा आ गया। दया और करुणा के कुएं में गिरा हुआ यह आदमी मुझे भी अपने साथ डुबाने पर तुला था। लेकिन मैं इस चक्कर में आने वाला नहीं था। मैंने कहा-‘‘देखो भाई, तुम्हारी तरह मैं भी चाहता हूं कि यह चिडि़या कौए से  बची रहे लेकिन जरा सोचो, मैं और तुम सारी उम्र तो इसे यों ही हथेली में बंद किए नहीं खड़े रह सकते। क्या कहते हो।’’
  वह सिर झुकाए सोच में डूबा था। मुझे कुछ राहत महसूस हुई।शायद मैं उसे रास्ते पर लाने में कामयाब हो रहा था।फिर मैंने उसे दीवार में बने मोखे के बारे बताया. उसने मोखे की तरफ देखा फिर बोला-- ‘‘लेकिन मेरा हाथ दीवार में बने मोखे तक नहीं जाएगा।’’ उसने आखिरी हथियार चलाया।पर मैं इस ‘‘चिडि़या चक्कर’’ में ज्यादा देर तक उलझे रहने को तैयार नहीं था। मैंने कहा-‘‘ यह तो बहुत आसान  है। अपनी रिक्शा को दीवार में बने मोखे के ठीक नीचे  तक ले आओ।फिर रिक्शा को  दीवार से सटाकर खड़ा करके उस पर चढ़ जाओ। तब तुम्हारा हाथ मजे से मोखे तक पहुंच जाएगा। मैं नीचे से मदद करूंगा।’’
  वह पैर घसीटता हुआ गया और मरे ढोर की तरह रिक्शा को ठेलता हुआ ले आया। मैं बताता गया, वह करता गया। जैसे अब खुद यहां नहीं था, यह खेल उसके हाथ से निकलकर मेरी हथेलियों में बंद हो गया था।
  उसने रिक्शा दीवार से सटा दी और डगमगाता-सा उस पर चढ़ गया। रिक्शा पहियों पर आगे पीछे हो रही थी। वह लाल रैक्सीन वाली सीट पर खड़ा किसी शराबी की तरह झूम रहा था। मैंने अपनी हथेलियों की कोठरी उसकी तरफ बढ़ाई और अगले ही पल मेरे हाथ खाली हो गए।अब वह  अपनी  हथेलियों को भींचे हुए वह किसी मूर्ति की तरह रिक्शा की सीट पर खड़ा था। जैसे  किसी ने उसे दीवार से चिपका दिया हो। उसका मुंह दीवार की तरफ था, हाथ सिर से ऊपर उठे हुए। और फिर एकाएक रिक्शा डगमगाई  और  वह भहराकर नीचे आ गिरा, रिक्शा के  डगमगाने से उसका संतुलन बिगड़ गया था। वह सहारा लेकर खड़ा होने की कोशिश कर रहा था। उसके पैरों के पास खून के छींटे नजर आ रहे थे। एक रक्तरंजित चिड़िया कुचली जाकर सड़क पर चिपक गई थी-लाल और धूसर रंगों से बने चित्र जैसी।
  मैं नहीं जानता यह कैसे हुआ, पर हम दोनों ही एकबारगी मुक्त हो गए थे। वह कुछ पल सिर झुकाए सोचता खड़ा रहा। फिर उचककर सीट पर बैठ गया और उसके पैर पैंडलों पर जम गए।
  मैं रैक्सीन की तपती सीट पर जा बैठा। अब कुछ कहने की जरूरत नहीं थी। रिक्शा एक झटके के साथ आगे बढ़ी तो मैंने हौले से उसके कंधे को छुआ-‘‘बुरा हुआ!’’ मेरे होठों से निकला।
  उसने घूमकर देखा। उसकी आंखें सूखे जुड़वां कुओं जैसे दिखाई दीं। अंदर क्या हो रहा है यह पता नहीं चल रहा था।
  ‘‘इतनी कोशिश बेटे के लिए करता, तो शायद वह बच गया होता।’’ उसका अधूरा पूरा  वाक्य पहियों में लिपटता हुआ घूमने लगा-बार-बार।(समाप्त)