Saturday 20 April 2024

कौन जाने-देवेंद्र कुमार

 

  कौन  जाने-देवेंद्र कुमार

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हरिराम अकेला था। घर, परिवार। छोटा-मोटा काम करता और इस तरह दो जून की रोटी मिल जाती। बस, ऐसे ही जीवन चल रहा था। घूमता-फिरता वह तपाई गाँव के पास से गुजर रहा था तो बारिश होने लगी। तब शाम हो रही थी। गाँव में किसी ने हरिराम को नहीं टिकाया। वह बारिश में भीगता खड़ा था, तभी किसी ने कहा, ‘गाँव के बाहर एक खंडहर है। वहाँ चले जाओ। भीगने से बच जाओगे।

हरिराम खंडहर में चला आया। खंडहर के आसपास झाड़-झंखाड़ थे। थोड़ी दूर से रास्ता गुजरता था। उस पर कई लोग आते-जाते दिखे पर किसी ने हरिराम में रुचि नहीं ली। उसके होठों से निकला, ‘ऐसे कब तक चलेगा?’ तभी चहचहाहट सुनाई दी। देखा एक कोने में नन्ही-सी चिड़िया बैठी थी। उसके पंख भीगे थे।

हरिराम के होंठों पर बरबस मुसकान गई। जैसे चिड़िया से बोला, ‘चलो, एक से दो हुए। उसने चिड़िया को उठाकर पंख पोंछे फिर कुछ दाने निकालकर डाल दिए। चिड़िया दाना चुगने लगी। तभी बाहर से आवाज आई, “अरे, कौन है‌?”

हरिराम ने देखा एक आदमी छाता लगाए खड़ा था। बोला, “मैं इधर से कई बार गुजरा हूँ। यहाँ हमेशा सन्नाटा पाया। आज आवाज सुनी तो हैरानी हुई।‘’

अजनबी की बात सुन, हरिराम बोला, “अकेला था, यह चिड़िया दिखाई दी तो इसी से बात करने लगा।

अजनबी ने चिड़िया को देखा। वह दाना चुगती हुई फुदक रही थी। दोनों हँस पड़े।कुछ देर में बारिश थम गई। धूप निकल आई। अजनबी ने बताया, उसका नाम जयंत था। किसी काम से गाँव में जा रहा था। आवाज सुनी तो रुक गया। बैठ कर जयंत ने अपनी पोटली खोल ली उसमें भोजन था। हरिराम से बोला, “आओ खा लो।

हरिराम कह गया कि कई दिन से खाना नहीं खाया है। फिर अपने बारे में सब बता गया। जयंत ने कहा, “जीवन ऐसे ही चलता है, आओ, थोड़ा-सा खा लो।

हरिराम ने खाया लेकिन संकोच के साथ। दोनों बातें करने लगे। तभी चिड़िया की चूँ-चूँ सुनाई दी फिर पंखों की फड़फड़ाहट उभरी। चिड़िया खंडहर में इधर से उधर चक्कर काट रही थी। तभी हरिराम की नजर दीवार पर टिक गई। एक सूराख में से साँप बाहर निकलता रहा था। उस तरफ जयंत की पीठ थी। उसे कुछ पता नहीं था कि एक भयानक साँप उसके इतना निकट पहुँचा है। जयंत के प्राण संकट में थे। अब अधिक सोचने का समय नहीं था। हरिराम जयंत को एकदम चौंकाना भी नहीं चाहता था, जो इस सबसे बेखबर पहले की तरह आराम से बैठा हरिराम से बातें कर रहा था।

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हरिराम बिजली की फुरती से उछला। उसने एक साथ दो काम किए, बाँए हाथ से जयंत को जोर से धक्का मारा और उसी क्षण दाएँ हाथ से साँप को कसकर पकड़ लिया। जयंत एकदम लगे धक्के से लुढ़कता हुआ दीवार से जा टकराया और बेहोश हो गया। तब तक हरिराम ने साँप को पत्थर से कुचल डाला और बाहर जाकर झाड़ियों में फेंक आया।

हरिराम स्वयं भी घबरा गया था। सब कुछ एक-दो पल में ही घट गया था। अब उसने खंडहर के फर्श पर बेहोश पड़े जयंत की ओर देखा। हरिराम के मन में विचारों का तूफान उमड़ रहा था। वह सोच रहा था, ‘अगर मैं इस आदमी की पोटली उठाकर चला जाऊँ तो कोई नहीं जानेगा कि यहाँ क्या हुआ है! इसकी पोटली में सामान है, कुछ रुपए भी जेब में जरूर होंगे। जब तक इसे होश आएगा, मैं दूर पहुँच जाऊँगा, फिर यह जहाँ चाहेगा चला जाएगा।

जयंत की जेबें टटोलने के लिए हरिराम के हाथ बढ़ने को हुए, पर फिर रुक गया। कानों में चिड़िया के चहचहाने की आवाज आई। उसने देखा चिड़िया फर्श पर बेहोश पड़े जयंत के पास बिखरे दाने चुगती हुई फुदक रही थी। यह हरिराम का वहम था या सच, उसे लगा जैसे चिड़िया उसे देख रही थी। हरिराम ने दृष्टि  फिरा ली।

वह कुछ और कर पाता तभी पीछे आहट हुई। उसने देखा जयंत को होश गया है और वह फर्श पर हथेलियाँ टेककर उठने की कोशिश कर रहा है। हरिराम जैसे दौड़कर जयंत के पास जा पहुँचा। उसे उठने में सहारा देने लगा तो जयंत ने हाथ झटक दिया। बोला, “तुमने मुझे धक्का क्यों दिया था? आखिर क्या चाहते हो तुम‌?”

हरिराम अब चुप रहा सका, उसने सारी घटना कह सुनाई। संकेत से झाड़ियों में पड़ा साँप भी दिखा दिया। कुछ पल के लिए जयंत को जैसे हरिराम की बातों पर विश्वास नहीं हुआ, पर हरिराम की आवाज में सच्चाई झाँक रही थी। जयंत ने कहा, “तब तो तुमने मेरे प्राण बचा लिए, नहीं तो किसी को कुछ पता चल पाता और यहाँ मेरा शव पड़ा होता।

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हरिराम ने चिड़िया की ओर संकेत किया। बोला, “मैंने नहीं इसने बचाया तुम्हें। इसी ने अपनी चूँ-चूँ से मेरा ध्यान खींचा और तब मेरी नजर साँप पर गई। कौन जाने अगर यहाँ यह होती तो क्या दुर्घटना घट जाती | '

कुछ देर दोनों ही चिड़िया को देखते रहे। फिर हँस पड़े। जयंत बोला, “अब चलना चाहिए। थोड़ी देर में सूरज डूब जाएगा। वैसे बारिश भी थम गई है।

हरिराम खामोश खड़ा रहा, भला उसके पास था ही क्या कहने के लिए। तभी जयंत ने कहा, “आओ, तुम भी चलो।

कहाँ चलूँ?” हरिराम ने पूछा।मैं भला कहाँ जा सकता हूँ। मैं यहीं रहूँगा।

यहाँ! इस खतरनाक खंडहर में! यहाँ तो कभी भी कुछ भी हो सकता है। साँप, जंगली जानवर...”

हाँ, लेकिन उपाय भी क्या है। रात को आग जलाकर सो रहूँगा। सुबह देखूँगा कि कहाँ जाऊँ।हरिराम ने उदास स्वर में कहा। वह सोच रहा था, “अगर जयंत को पता चल जाए कि कुछ देर पहले मैं क्या सोच रहा था तो...”

जयंत कुछ पल असमंजस की मुद्रा में खड़ा रहा फिर बिना कुछ कहे खंडहर से बाहर निकल गया। हरिराम उसे जाते हुए देखता रहा। उसे लगा जैसे जयंत झाड़ियों में पड़े साँप के पास एक पल को ठिठका हो, फिर आगे बढ़ गया।

खंडहर में धुँधलका-सा छा गया था। तभी चिड़िया की चूँ-चूँ सुनाई दी। हरिराम उसे देखता रहा, ‘बड़ी विचित्र चिड़िया है!’ वह सोच रहा था, ‘सचमुच यहाँ रात बिताना ठीक नहीं, लेकिन भला जाऊँगा कहाँ‌?’ तभी बाहर कदमों की आहट उभरी। देखा जयंत खड़ा है।तुम फिर लौट आए‌?” हरिराम ने अचरज से कहा।

हाँ, मैं जा सका।जयंत बोला, “सच कहूँ तो मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं हुआ था। मुझे लग रहा था जैसे तुमने साँप की कहानी यूँ ही सुना दी है। असल में तो तुम मुझे बेहोश करके लूट लेना चाहते थे।

क्या तुमने ऐसा सोचा!”

हाँ, लेकिन बस थोड़ी ही देर। फिर जैसे  कोई मुझे आगे जाने से रोकने लगा। कोई मेरे कानों में कहने लगा, “अगर ऐसा करना होता तो तुम मुझे साँप से ही क्यों बचाते। वह मुझे डस लेता और तब तुम मजे से मेरा सामान और रुपए-पैसे लेकर जा सकते थे।फिर मैं जा सका। मुझे यह सोचकर ही डर लग रहा है कि तुम रात के अँधेरे में यहाँ अकेले रहोगे।कहकर जयंत ने हरिराम का हाथ पकड़ लिया। बोला, “माफ करना, मैं कितना उल्टा-सीधा सोच गया। तुमने साँप से मेरे प्राण बचाए और मैं...” कहते-कहते उसकी आवाज काँपने लगी।

हरिराम चुप रह सका। बोला, “तुमने कुछ गलत नहीं सोचा।और फिर वह बता गया कि उसके मन में कैसे विचार आए थे।जब मैँ तुम्हारा सामान उठाकर भाग जाने की बात सोच रहा तो लगा था जैसे चिड़िया मुझे देख रही है। और फिर मैं रुक गया।

कुछ देर मौन छाया रहा। सन्नाटे में चिड़िया के पंखों की फड़फड़ाहट और उसकी चूँ-चूँ गूँजती रही। जयंत ने कहा, “तुमने सुना, चिड़िया क्या कह रही है--जो  हुआ उसे भूल जाओ। ­ चलें। मैं किसी भी कीमत पर तुम्हें यहाँ छोड़कर नहीं जाऊँगा।

हरिराम की नजर आप से आप चिड़िया पर जा टिकी। वह चहचहाई तो जयंत हँस पड़ा। बोला, “सुना, चिड़िया क्या कह रही है-यही कि बात मान लो और चले जाओ।

तो क्या तुम भी मानते हो कि चिड़िया सचमुच हमसे बातें कर रही है।हरिराम ने हौले से कहा।

कौन जाने! ऐसा हो भी सकता है।जयंत बोला और हरिराम का हाथ पकड़कर खंडहर से बाहर खींचने लगा।

सूरज पश्चिम में डूब चुका था और वे दोनों चले जा रहे थे। मरा हुआ साँप झाड़ियों में पड़ा था। आकाश में परिंदों का शोर गूँज रहा था।

शायद चिड़िया भी हमारे साथ-साथ चल रही है आकाश में।जयंत ने आकाश में उड़ते परिंदों को देखा।

कौन जाने।हरिराम ने कहा।(समाप्त )