Saturday 23 June 2018

जादूगर --देवेन्द्र कुमार --बाल कहानी




जादूगर—देवेन्द्र कुमार—बाल कथा


सबको पता है उधर से नहीं जाना है। पूरी कालोनी के बच्चे एक-दूसरे को बता रहे हैं-अरे देखो, उधर से मत जाना। कालोनी के बीच में छोटा-सा बाग है। बाग के चारों ओर पक्की सड़क बनी हुई है। बाईं ओर वाली सड़क के बीचोंबीच एक टोकरा उल्टा रखा है। बच्चे बाग में काम करते हुए माली के पास जाकर बार-बार पूछते हैं,  ‘‘माली भैया, उस टोकरे के नीचे क्या है?’’
माली जवाब देता-देता परेशान हो गया है। वह बार-बार कहता है, ‘‘कोई उस टोकरे को न छुए। शाम को यहां जादू का खेल दिखाया जाएगा। जादूगर खुद आकर इस टोकरे को उठाएगा और फिर जादू दिखाएगा।’’
अब बच्चे शाम को होने वाले जादू के खेल के बारे में बातें कर रहे हैं। सब एक-दूसरे को बता रहे हैं कि शाम को कालोनी में जादू का खेल होगा।
तभी एक ठेले वाला अपने ठेले पर सामान लादकर लाया। उसने अपनी जेब से पते वाला परचा निकालकर माली से पूछा। माली ने सामने वाले मकान की ओर संकेत करके बता दिया कि उस घर में जाना है। ठेले वाले ने सामान पहुंचा दिया फिर खाली ठेला ढकेलता हुआ बाहर की तरफ लौट चला। उसने भी पार्क के पास वाली सड़क पर उल्टा पड़ा टोकरा देखा। ठेले वाला रुक गया। वह सोच रहा था, ‘इस टोकरे के नीचे क्या है?’
तभी दो बच्चे वहां से गुजरे। उन्होंने ठेले वाले से कहा, ‘‘उस तरफ मत जाना। उस टोकरे को मत छूना। शाम को जादूगर इस टोकरे के नीचे से खरगोश निकालकर दिखाएगा। तुम भी आना जादू का खेल देखने के लिए।’’
ठेले वाला टोकरे के पास ही जमीन पर बैठकर पसीना पोंछने लगा। पेड़ की छाया भली लग रही थी। तभी उसके कानों में हल्की-सी आवाज आई। ठेले वाले ने देखा-आस-पास कोई परिंदा नहीं था, तब फिर आवाज कैसी थी। कहीं आवाज इस टोकरे के नीचे से तो नहीं आ रही है, जो सड़क पर औंधा रखा हुआ है।
ठेले वाले ने बाग में पेड़ की छाया के नीचे लेटे माली की ओर देखा। उससे पूछा, ‘‘क्यों भैया, इस टोकरे के नीचे क्या है?’’ उसे बच्चों की बात याद थी कि शाम को जादूगर इस टोकरे के नीचे से कोई अजीब चीज निकालेगा।
माली ने ठेले वाले को इशारे से पास बुलाया, खुद पेड़ की छाया में लेटा रहा। बोला, ‘‘बच्चों की बातें! क्या कहू। मैंने एक बार जादूगर का नाम क्या ले दिया, बस तभी से पूरी बस्ती के बच्चे जादू का खेलऔर जादूगरचिल्लाते घूम रहे हैं।’’ और धीरे से मुस्कराया।
‘‘जादूगर, जादू का खेल।’’ ठेले वाला बुदबुदाया। उसने भी कई बार बचपन में जादू के खेल देखे थे, लेकिन वह सब तो पुरानी बात हो गई थी। आजकल तो सारा दिन ठेला खींचना पड़ता था। मन में आया-अगर शाम को जादू का खेल होगा तो वह भी देखेगा।
माली फिर हंसा। उसने कहा, ‘‘अरे कैसा जादू! यह तो मैंने बच्चों से वैसे ही कह दिया। अब पछता रहा हूं कि क्यों कहा। थोड़ी-थोड़ी देर में पूछने आ जाते हैं, ‘कब आएगा जादूगर! कब दिखाएगा खेल?’ असल में सड़क पर एक मरा हुआ कबूतर पड़ा है। जब मैं काम पर आया तो मैंने देखा उसे। आज सफाई वाला आया नहीं। इसलिए मैंने टोकरे से ढक दिया ताकि किसी का पैर न पड़ जाए।’’
ठेले वाले को याद आया उसने टोकरे के नीचे से हल्की-सी  आवाज सुनी थी। उसने कहा, ‘‘सुनो भैया, मुझे लगता है कबूतर मरा नहीं। जरा चलकर तो देखो।’’
‘‘जाओ जी, अपना काम करो। हमने खुद अपनी आंखों से देखा था मरा हुआ कबूतर। यों पंख फैलाए पड़ा था। पंखों पर खून के धब्बे थे। वह एकदम मरा हुआ था, तभी तो मैंने टोकरे से ढक दिया उसको।’’ माली ने तेज आवाज में कहा और फिर आंखें मूंद लीं। वह नहीं चाहता था कि मरे हुए कबूतर के बारे में ठेले वाला कोई और बात करे। शायद बच्चों के जवाब देता-देता परेशान हो चुका था।
लेकिन ठेले वाले को तसल्ली नहीं हुई। वह जाकर फिर से सड़क पर औंधे पड़े टोकरे के पास बैठ गया। उसने कान लगाए तो हल्की-सी आवाज फिर सुनाई दी। यह भ्रम नहीं था। ठेले वाले ने झपटकर टोकरा उठाया तो उसके नीचे पड़ा कबूतर दिखाई दिया। हां, उसके पंखों पर खून लगा था, पर वह एकदम मरा नहीं था। उसके एक पंख रह-रहकर कांपता तो जमीन से टकराकर हल्की-सी आवाज होती। ठेले वाले के कानों ने घायल कबूतर का पंख जमीन से टकराने की वही हल्की-सी आवाज सुन ली थी।
ठेले वाले ने हौले-से कबूतर को उठा लिया। माली को पुकारा, ‘‘अरे भाई, कबूतर मरा नहीं जिंदा है। जल्दी आओ।’’
माली झटके से उठा अैर दौड़ता हुआ वहां आ गया। घायल कबूतर ठेले वाले के हाथों में हौले-हौले हिल रहा था। माली अचरज से आंखें फाड़े देखता रह गया। ठेले वाले ने घायल कबूतर को माली के चेहरे के एकदम सामने कर दिया। बोला, ‘‘लो खुद ही देख लो। इसे तुमने मरा कह कर टोकरे से ढककर छोड़ दिया था।‘’
माली को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसने कहा,‘‘सच कहता हूं भैया, सुबह जब मैंने इसे देखा था तो यह मरा हुआ था।’’
‘‘तो क्या यह जादू के जोर से जिंदा हो गया?’’ ठेले वाले ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में कहा,‘‘अच्छा, बाकी बातें बाद में, पहले पानी लाओ।’’
माली दौड़ा हुआ गया और एक बरतन में पानी ले आया। ठेले वाले ने कपड़े के टुकड़े को पानी में भिगोया फिर घायल कबूतर की चोंच खोलकर बूंद-बूंद पानी मुंह में डालने लगा। पानी पीकर कबूतर में जैसे नई ताकत आ गई। वह पहले के मुकाबले अधिक तेजी से पंख फड़फड़ाने लगा। ठेले वाले ने गीले कपड़े से धीरे-धीरे उसके पंखों पर लगा खून पोंछ दिया। अब कबूतर का पूरा शरीर हिल रहा था, शायद उसके घावों में तकलीफ हो रही थी।
माली ने कहा, ‘‘ओ ठेले वाले भाई!यह कबूतर बस थोड़ी देर का मेहमान है। इसे आराम से वहीं पड़ा रहने दो।’’
                                       2
ठेले वाले ने दोनों हाथों में घायल कबूतर के संभालते हुए कहा, ‘‘यह बच भी सकता है। और मैं इसकी जान बचाने की पूरी कोशिश करूंगा।’’
‘‘लेकिन...’’ माली कहता-कहता रुक गया। ठेले वाला घायल कबूतर को संभाले हुए ठेले के खींचता हुआ वहां से चल दिया। उसने माली की ओर बिना देखे कहा, ‘‘मैं नहीं जानता कि कैसे क्या होगा, पर मैं इसे मरने नहीं दूंगा।’’
माली गुमसुम खड़ा रह गया, फिर धीरे-धीरे चलकर पेड़ के नीचे जा बैठा। उसके माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं। वह बड़बड़ाया, ‘‘मरा हुआ कबूतर फिर से जिंदा कैसे हो सकता है। क्या यह कोई जादू था।’’
धूप हल्की हुई तो बच्चे घरों से निकल आए। सड़क पर पड़े टोकरे के पास घेरा बनाकर खड़े हो गए। वे माली से पूछने लगे, ‘‘जादूगर कब आएगा माली भैया!’’ बच्चे बार-बार एक ही बात दोहरा रहे थे।
माली कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘जादूगर आया था। वह जादू का खेल दिखाकर चला गया।’’
‘‘चला गया!’’ बच्चों ने चकित स्वर में पूछा।
माली चुप खड़ा था।       (समाप्त )                                               



Wednesday 13 June 2018

बूढी छड़ी--देवेन्द्र कुमार-- बाल कहानी


बूढ़ी छड़ी—देवेन्द्र कुमार—बाल कथा

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अजीब है बाबा की छड़ी। घर में किसी ने कभी बाबा को छड़ी लेकर चलते हुए नहीं देखा। घर के बच्चे कई बार मजाक में पूछते हैं, ‘‘बाबा, क्या आप सिर्फ दिखाने के लिए छड़ी रखते हैं?’’
बाबा हंसकर कह देते, ‘‘अरे, छड़ी लेकर चलते हैं बूढ़े लोग, पर मैं तो बूढ़ा नहीं हूं।’’
लेकिन बार-बार पूछने पर भी यह कभी न बताते कि जब छड़ी लेकर चलते नहीं तो रखते किसलिए हैं? बच्चे तो बच्चे, घर के बड़े लोग भी नहीं जानते कि आखिर छड़ी का रहस्य क्या है? और छड़ी भी कैसी-एकदम पुरानी, बदरंग! उस पर जगह-जगह, लकीरें और दरारें साफ दिखाई देती हैं। देखने पर ही बहुत पुरानी लगती है।
बाबा से उनका पोता अनिल बहुत प्यार करता है। औरों को चाहे वह कुछ भी कह दें पर अमित को कभी नहीं डांटते। शायद बाबा अपने पोते अमित को औरों से ज्यादा प्यार करते हैं। एक बार अमित की छोटी बहन रचना ने बाबा से यह पूछा तो उन्होंने रचना को गोद में उठाकर खूब प्यार किया। बोले, ‘‘घर में सबसे ज्यादा प्यार मैं अगर किसी से करता हूं तो रचना बिटिया से।’’
हां, एक बात जरूर है, अगर कोई बच्चा उनकी छड़ी को हाथ लगा दे ते फिर बाबा नाराज होकर कहते हैं, ‘‘अरे नहीं, नहीं, उसे मत छुओ, वहीं रख दो।’’
घर के लोगों ने देखा है-छड़ी बाबा के कमरे में एक कोने में रखी रहती है। बाकी हर चीज की जगह कई-कई बार बदल जाती है, लेकिन छड़ी का ठिकाना वहीं रहता है। लगता है बाबा के लिए उनकी छड़ी कुछ विशेष है। कोई ऐसा रहस्य जिसका भेद वह कभी खोलना नहीं चाहते। चाहे कोई कितना भी पूछे, कोई उत्तर न देकर मुस्करा उठते हैं, जवाब में कहते कुछ नहीं।
बाबा का नाम रंजन राय है और उनका इकलौता बेटा है सुरेश। सुरेश की पत्नी दया खूब पढ़ी-लिखी है, पर वह नौकरी नहीं करती। दिन में कई बच्चे घर पर ही पढ़ने आ जाते हैं। उन्हें बहुत ध्यान से पढ़ाती है। बीच में घर का कोई काम याद आ जाए या बाबा पुकार लें, तो उनका भी ध्यान रखती है। लेकिन ऐसा नहीं कि इस तरह छात्रों की पढ़ाई में कभी बाधा पड़ जाए। उन्हें बहुत ध्यान से पढ़ाती है। पूरी बस्ती में लोग उसे मैडम पास कराने वालीकहकर सम्मान से बात करते हैं। और तारीफ झूठी नहीं होती। उसके पढ़ाए हुए छात्र सदा बहुत अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होते हैं।
1

लेकिन एक दिन दया को गुस्सा आ ही गया। एक बच्चा अपने काम में लापरवाही कर रहा था। दया के बार-बार कहने पर भी वह पढ़ाई में मन नहीं लगा रहा था। फिर एक दिन तो हद ही हो गई। उसने दूसरे बच्चों के सामने दया का अपमान कर दिया। दया को भी गुस्सा आ ही गया। उसने कुछ सोचा फिर अपने ससुर के कमरे में गई और कोने में रखी छड़ी उठा लाई। उस समय बाबा घर में नहीं थे। छड़ी दिखाते हुए बच्चे को धमकाया, फिर एक बार मार भी दिया।
उसी समय बाबा घर में लौट आए। उन्होंने दया के हाथ में छड़ी देखी, पर कुछ कहा नहीं। चुपचाप कमरे में जाकर दरवाजा बंद कर लिया। दया ने तुरंत छड़ी को उनके कमरे के दरवाजे से टिकाकर रख दिया और बच्चों को पढ़ाने लगी। उसे खुद बुरा लग रहा था कि आखिर उसने बच्चे पर छड़ी कैसे उठाई!
दिन ढल गया, पर बाबा के कमरे का दरवाजा बंद ही रहा। दया चाय बनाकर ले गई। दरवाजा खटखटाया तो बाबा ने दरवाजा खोल दिया। दया उनका गंभीर मुंह देखकर जान गई कि मामला गड़बड़ है। चाय का प्याला तिपाई पर रखकर वह दरवाजे के बाहर रखी छड़ी उठा लाई और उसे कोने में रखने लगी।
तभी बाबा ने कहा, ‘‘दया, अब मैं इस छड़ी को अपने पास नहीं रखूंगा, अब मुझे इसकी जरूरत नहीं।’’
दया ने देखा बाबा की आंखों में आंसू थे, उनके होंठ कांप रहे थे। इस तरह अपने बूढ़े ससुर को छोटे बच्चों की तरह रोते हुए उसने शायद पहली बार देखा था। उसने कहा, ‘‘पिताजी, मुझसे गलती हो गई। मुझे आपसे पूछकर छड़ी यहां से उठानी चाहिए थी।’’
‘‘लेकिन यह छड़ी’’ और बात को बीच में ही अधूरी छोड़कर रंजन राय फिर उदास हो गए।
दया अचरज के भाव से अपने ससुर को देखती रह गई। आखिर उसने पूछ ही लिया, ‘‘पिताजी, पूरी बात बताइए, आप छड़ी के बारे में कुछ कह रहे थे।’’
रंजन राय ने कहा, ‘‘दया, इस छड़ी का रहस्य मैंने अब तक सबसे छिपाकर रखा था, आज तुम्हें बता रहा हूँ ।’’
‘‘यह छड़ी मेरे अध्यापक की है। बात मेरे बचपन के दिनों की है। वह अध्यापक मुझसे बहुत प्यार करते थे। मैं कक्षा में सबसे आगे भी रहता था । इस कारण क्लास के दूसरे साथी मुझसे नाराज रहते थे। एक बार उनमें से किसी ने मेरी झूठी शिकायत उनसे कर दी। सुनकर मास्टर साहब को बहुत गुस्सा आया। उन्हें लगा यह तो मेरी बहुत बड़ी गलती थी। बस, उन्होंने अपनी छड़ी से मुझे पीटना शुरू कर दिया।
2
‘‘फिर?’’
‘‘वह मारते हुए कहते जा रहे थे-तूने मेरा अपमान किया है। मेरी इज्जत मिट्टी में मिला दी है। मैं कहता रहा-जी, किसी ने मेरी झूठी शिकायत की है। आप पता कर लें।-आखिर उन्होंने छड़ी फेंक दी और खुद रो पड़े। क्योंकि वह मुझसे बहुत स्नेह करते थे।
बाद में तो उन्हें पता चल गया कि शिकायत झूठी थी। इसके कुछ दिन बाद ही एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी। तब मुझे बहुत रोना आया।’’
दया ध्यान से रंजन बाबू की बातें सुन रही थी। उन्होंने आगे कहा, ‘‘इसके कुछ दिन बाद की बात है। मैं मास्टरजी के घर के सामने से जा रहा था। एकाएक मैंने घर के बाहर पड़ी छड़ी देखी। मैं चौंक कर रुक गया। मैंने छड़ी को एकदम पहचान लिया । पहचानता कैसे नहीं! वह वही छड़ी थी जिससे पहली बार उन्होंने मेरी पिटाई की थी और फिर खूब रोए थे। शायद बेकार समझकर किसी ने उसे बाहर फेंक दिया था। मैंने चुपचाप छड़ी उठाई और घर ले आया। बस, तब से इसे सदा अपने साथ रखता हूं। इस बात को न जाने कितना समय बीत गया है। यह मुझे अपने प्रति मास्टरजी के स्नेह की याद दिलाती रहती है।’’ और रंजन बाबू की आंखों में फिर आंसू आ गए।
दया की आंखें भी गीली हो गईं। उसने छड़ी उठाकर कोने में पुरानी जगह रख दी और कहा, ‘‘पिताजी, अब चाहे मुझे कितना भी गुस्सा क्यों न आए, मैं किसी बच्चे को हाथ नहीं लगाऊंगी।’’
दया जान गई थी कि रंजन बाबू के लिए वह छड़ी उनके अध्यापक के स्नेह, पिटाई और पश्चात्ताप का प्रतीक थी।
उस छड़ी के बारे में घर किसी को कुछ पता नहीं चला। दया छड़ी का रहस्य जान गई थी। पर रंजन बाबू ने उससे कह दिया था कि वह इस घटना के बारे में किसी से कुछ न कहे। उसके बाद अनेक बार घर के बच्चों ने छड़ी के बारे में जानना चाहा, पर रंजन बाबू हमेशा की तरह चुप ही रहे। वह जानते थे कि उनके मास्टरजी की छड़ी का रहस्य दया के पास सुरक्षित था।                     ( समाप्त)

तरकीब--देवेन्द्र कुमार-- बाल कथा


बाल कहानी: तरकीब—देवेन्द्र कुमार
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तरकीब

  
  छोटे बाजार के मोड़ पर बालू दोसा कार्नर है। वहां हर समय ग्राहकों की भीड़ रहती है। उन्हें उस दुकान का दोसा खूब पसन्द आता है। ग्राहक आते हैं, दोसे खूब बिकते हैं। बालू खुश रहता है, क्योंकि रोज़ अच्छी आमदनी होती है। परेशान कोई होता है तो रमन और छोटू। क्यों भला?
   
रमन को भट्टी के सामने खड़े रहकर फटाफट दोसे तैयार करने पड़ते हैं- जरा भी फुरसत नहीं मिलती। बालू के आर्डर आते रहते हैं, और रमन के हाथ मशीन की तरह चलते रहते हैं। उसी तरह छोटू को भी जल्दी-जल्दी प्लेटें साफ करके देनी होती हैं। जरा देर हुई नहीं कि बालू चिल्ला उठता है।
   
रमन को गर्मियों में परेशानी ज्यादा होती है। दुकान छोटी सी है, गर्मियों में उस का चेहरा पसीने से भीगा रहता है। पसीना माथे से नीचे बहता है, बस  कभी कभी सिर को झटक कर पसीना गिरा देता है वह। कभी कभी मन में आता है- अगर थोड़ी देर आराम कर सकता तो?’ लेकिन मौका नहीं मिलता!       
   
रविवार था, दुकान के सामने भीड़ थी। दोसे बन रहे थे- रमन और छोटू काम में लगे थे। छोटू धुली हुईं प्लेटें रखने आया तो देखा रमन का चेहरा पसीने से भीगा था। वह दोसे बनाने में जुटा था। खूब गरमी थी! छोटू ने एक कपड़े से रमन के माथे का पसीना पोंछ दिया। रमन हंस पड़ा। छोटू भी मुसकराया पर बालू के माथे पर बल पड़ गए। उसने यह सब देख लिया था। दिन में छोटू जब जब बरतन लेकर आया उसने हर बार रमन के माथे पर आया पसीना पोंछ दिया। बस, दोनों हंस पड़ते थे। कुछ बोलते नहीं थे।
   
शाम को बालू ने छोटू को बुलाया। कहा- ‘‘लगता है अब तेरा मन काम में नहीं लगता। तेरी छुट्टी कर दूंगा।’’                                                                
   
 कहा -‘‘जब देखो रमन का पसीना पोंछता है। पैसे बरतन साफ करने के देता हूं या रमन का पसीना पोंछने के? आगे भी यह सब किया तो बस तेरी नौकरी खत्म।’’
   
छोटू चुपचाप बाहर आ गया। वह सोच रहा था। मैंने क्या गलत किया।
                                      1

   
अगले दिन धूप तेज थी। काम चल रहा था। ग्राहक जल्दी मचा रहे थे। रमन के हाथ मशीन की तरह चल रहे थे। छोटू सिर झुकाए बरतन धोने में लगा था। उसने बीच-बीच में जब रमन का चेहरा देखा-पसीने से भीगा हुआ। धुले बरतन लेकर आया तो देखा बालू देख रहा है। छोटू ने कुछ सोचा फिर रमन के माथे से बहता पसीना पोंछ दिया। और फिर     कंधे  पर पड़े झाड़न से उसके चेहरे पर हवा करने लगा।
   
रमन को अच्छा लगा, पर उसने कहा--- ‘‘जा भाग, मालिक इधर ही देख रहा है।
   
शाम हुई। बालू उठा और छोटू से कहा, ‘‘आज फिर वही हरकत। आज तो सिर्फ पसीना ही नहीं पोंछा, उसे पंखा भी झल रहा था। तेरी छुट्टी। मैंने दूसरा छोकरा बुला लिया है।’’
   
रमन चुप लेकिन दुखी था। उस  के कारण छोटू की नौकरी जा रही थी। अब क्या करेगा, कहां जाएगा छोटू।‘’
    ‘‘
छोटू ने कहा- ‘‘ठीक है मालिक, पर मैंने जो किया दुकान के फायदे के लिए।
   
   
‘’मालिक, कल मैंने कई ग्राहकों को कहते सुना था- अरे देखो, देखो। देासे बनाते आदमी का पसीना दोसे के घोल में टपक रहा है। ऐसे गंदे दोसे कैसे खाएंगे हम।
  
‘’फिर?’   
    ‘‘
बस, वे लोग दोसा बिना खाए चले गए। मैंने सेाचा यह तो ठीक नहीं हुआ। अगर दूसरे ग्राहकों ने सुन लिया तो गड़बड़ हो जाएगी। इसीलिए मैंने रमन के माथे का पसीना पोंछा था।’’
   
बात बालू की समझ में आ गई। बोला-‘‘ तो पहले क्यों नहीं बताया।’’
   
छोटू धीरे से हंसा। बालू के पीछे खड़ा रमन भी मुसकराए बिना न रह सका। छोटू ने कहा- ‘‘उस दिन जब मैं धुली हुई प्लेटें अंदर रखने आया तो मैंने देखा मक्खियां दोसे के घोल पर मंडरा रही हैं। इसीलिए जब बरतन रखने जाता हूं तो झाड़न हिलाकर मक्खियों को उड़ाता हूं और आप समझते हैं......’’
   
बालू ने जान लिया अगर ग्राहकों में गंदगी की बात फैल गई तो नुकसान हो सकता है। बोला-‘‘अच्छा!’’    छोटू और रमन ने एक दूसरे की तरफ देखा पर हंसे नहीं क्योंकि बालू की नज़र दोनों पर थी। पर  दोनों की आंखें हंस रही थीं!                            
   
बालू ने फुर्ती दिखाई। बिजली वाले को बुलाकर कहा-‘‘ तुरंत दुकान में छोटा पंखा लगाओ। हवा सीधी रमन के मुंह पर रहे, भट्टी पर न लगे!’’                                      
   
पंखा लग गया। दोसे बनाते समय अब रमन के चेहरे पर उतना पसीना नहीं आ रहा था। दुकान में पहले की तरह भीड़ थी। दोसे बन रहे थे, छोटू के हाथ बरतन धोने में जुटे थे। अब उसे रमन का पसीना पोंछने की जरूरत नहीं थी। बालू पैसे गिन रहा था। उस दिन रमन और छोटू कई बार मुसकराए थे। तरकीब काम कर गई थी। और हां, दो दिन बाद बालू ने छोटू की पगार में दस रुपए बढ़ा दिए थे। वह सोचता था- है तो छोटा पर दिमाग खूब चलता है इसका।***    ( समाप्त )
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भरने का खेल ,देवेन्द्र कुमार ,पर्यावरण कथा


भरने का खेल===देवेन्द्र कुमार ==पर्यावरण कथा
कैसा था यह खेल जिसे क्या बच्चे क्या बड़े –सभी खेलना चाहते थे!  


      चुन्नू के पास आजकल कोई काम नहीं है। कई महीनों से बेरोजगार चल रहा है। बहुत कोशिश की है। जिसने जहां बताया वहीं गया है, पर अब तक कुछ न हुआ। बीच में कई दिन रिक्शा चलाई, पर बीमार होने के कारण वह काम भी छूट गया।
      उस दिन बाजार में गुलाब सिंह मिल गए। दोनों एक ही गांव के हैं। गुलाबसिंह की दुकान अच्छी चलती है। चुन्नूसिंह ने उन्हें अपना हाल बताया तो गुलाब सिंह ने कहा-तुम कल सुबह मेरे घर आ जाना। शायद मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकूं।उन्होंने सुबह ठीक दस बजे बुलाया था। लेकिन चुन्नू तो आधा घंटा पहले ही पहुंच गया। उसे डर था कहीं देर न हो जाए। पर गुलाबसिंह घर पर न थे। वह कुछ देर दरवाजे पर खड़ा रहा फिर घर के सामने वाले पार्क में चला गया।
        सर्दियों के दिन थे। अभी धूप अच्छी तरह निकली नहीं थी-कहीं कहीं नजर आ रही थी। बाग में सन्नाटा था। चुन्नू घास पर जा बैठा। घास अभी ओस से गीली थी। कपड़े नम हो गए तो उठकर टहलने लगा। ठीक दस बजे फिर गुलाबसिंह के दरवाजे पर जा खड़ा हुआ। पता चला वह जरूरी काम से कहीं दूर चले गये हैं, देर से लौटेंगे।
         चुन्नू की समझ में न आया कि अब क्या करे। आखिर वह कब तक प्रतीक्षा कर सकता था। थोड़़ी देर और रुकने की सोचकर फिर से बाग में चला आया। अब धूप और फैल गई थी। कई बच्चे आकर घास पर दौड़भाग करने लगे थे। बच्चों का यों फुदकना, हंसना चुन्नू को अच्छा लगा। तुरन्त गांव में मौजूद अपने बच्चे की याद आ गई। वह भी तो घास पर उछलते खिलखिलाते इन्हीं बच्चों जैसा है, पता नहीं कैसा होगा। चुन्नू का मन हुआ कि दौड़कर जाए और अपने बेटे को गोद में भर ले। पर यह नहीं हो सकता था। जब तक शहर में कोई ठीक काम न मिल जाए वह परिवार को यहां नहीं ला सकता था।
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         चुन्नू का मन उदास हो गया, पर फिर भी नजरें घास पर दौड़ते भागते बच्चों पर टिकी रहीं। एकाएक उसने एक बच्चे को जमीन पर गिरते देखा। शायद बच्चे का पैर मुड़ गया था। वह पैर को पकड़कर चीख रहा था। चुन्नू तुरन्त दौड़कर बच्चे के पास जा पहुंचा। उसे गोद में उठाया और पैर मलने                                               
 लगा। तभी बिट्टू-बिट्टू पुकारती हुए एक औरत बाग में दौड़ी आई। शायद वही उस बच्चे की मां थी। औरत ने बच्चे को चुन्नू के हाथों से झपट लिया। पूछा--तुमने इसे मारा क्या?”
       चुन्नू झट बोला-जी नहीं, एकदम नहीं। मैं तो दूर बैठा था। इसे गिरते देखा तो दौड़कर उठाया। शायद पैर में चोट लगी है। डाक्टर को दिखाना होगा।
       हूं....बिट्टू की मां ने कहा-आज इसके पापा भी घर पर नहीं हैं। सुबह ही कहीं चले गए। मैं इसे रोकती रही पर यह बाग में भाग आया और अब देखो...
                     चुन्नू ने कहा-कोई बात नहीं, मैं बच्चे को डाक्टर के पास ले चलता हूं।फिर उसने बताया कि वह किसका इंतजार कर रहा था। गुलाबसिंह का नाम सुनकर लगा जैसे औरत को कुछ तसल्ली हो गई। बोली-हां, वह कहीं गए हैं। हम लोग उन्हीं के मकान की ऊपर वाली मंजिल में रहते हैं।
      चुन्नू ने बच्चे को फिर से गोद में ले लिया और उसकी माँ के पीछे-पीछे चल पड़ा। डाक्टर का दवाखाना पास में ही था। चुन्नू संकोच में था क्योंकि उसकी जेब में बहुत थोड़े से पैसे थे।
       डाक्टर ने बिट्टू के पैर की जांच की फिर बोला-इसका पैर किस गड्ढे में पड़कर मुड़ गया है पर चोट ज्यादा नहीं है।फिर डाक्टर ने पैर की पट्टी कर दी।
        बिट्टू की मां ने कहा-भला बाग में गड्ढे का क्या काम।फिर डाक्टर को फीस देकर अपने बच्चे को घर में ले गई। जब वह घर में जा रही थी तभी गुलाबसिंह उधर आते दिखाई दिए। उन्होंने चुन्नू को अंदर बुला लिया। बोले-माफ करना भाई, मुझे आने में देर हो गई।तब तक बिट्टू की मां ने उन्हें बच्चे को चोट लगने की बात बता दी। और चुन्नू की ओर इशारा करते हुए कहा-इन्होंने ही बच्चे को दौड़कर उठाया था।
        गुलाबसिंह ने चुन्नू को अपनी दुकान पर काम करने को कहा। बोले-मैं तुम्हें ज्यादा पैसे तो नहीं दे सकूंगा, पर कुछ समय तक तो तुम्हारा काम चल ही जाएगा। मेरी दुकान पर काम करते हुए तुम दूसरा काम भी खोज सकते हो।उन्होंने चुन्नू को अगले दिन आने के लिए कह दिया।
                                          2       
        काम का इंतजाम हो जाने से चुन्नू की चिंता कुछ काम हो गई। वह फिर बाग में चला आया। उसके कानों में डाक्टर की बात गूंज रही थी- ‘बच्चे का पैर किसी गड्ढे में पड़कर मुड़ गया है।‘ वह बाग में घूमता हुआ सोच रहा था-बाग में अगर गड्ढा है तो कहां? यह तो बहुत खतरनाक बात है। आज एक बच्चे का पैर गड्ढे में फंसकर मुड़ा है तो कल कोई और बच्चा इसी तरह घायल हो सकता है। यह                                         सोचता हुआ चुन्नू ध्यान से बाग में उगी घास के अंदर देखता हुआ चलने लगा। और उसने देखा घास में एक नहीं कई छोटे-छोटे गड्ढे नजर आ रहे थे। उन गड्ढों का कारण समझने में देर नहीं लगी।
       अक्सर बाग या मैदानों में शादी ब्याह या दूसरे समारोह होते हैं तो शामियाने खड़े किये जाते हैं। शामियाने के डंडे जब उखाड़े जाते हैं तो गड्ढे रह जाते हैं। शामियाने लगाने वालों को बांस गाड़ना तो याद रहता है पर बांसों के कारण होने वाले गड्ढों को भरने की बात वे एकदम भूल जाते हैं। यह सोचते-सोचते चुन्नू ने तय किया कि वह बाग की जमीन में बने ज्यादा से ज्यादा गड्ढे भरने की कोशिश  करेगा।
      बाग के बाहर एक तरफ रेती और बदरपुर का ढेर लगा हुआ था। चुन्नू ने जमीन पर पड़ा एक गत्ते का टुकड़ा उठाया। उस पर रेत और बदरपुर रख लिया और बाग में जाकर बारी बारी से गड्ढे भरने में जुट गया। तब तक धूप अच्छी तरह फैल चुकी थी। बाग में कई लोग धूप सेकने आ बैठे थे। काफी बच्चे भी इधर से उधर धमा चौकड़ी मचा रहे थे। चुन्नू का मन घबरा गया। उसे लगा कहीं किसी बच्चे का पैर गड्ढे में न चला जाए.  उसने जोर से पुकार कर कहा—‘बच्चो, घास पर मत दौड़ो, रुक जाओ। घास में गड्ढे हैं। तुम्हारा पैर गड्ढे में फंस सकता है।
              चुन्नू को यों जोर से पुकारते देख लोग उसकी तरफ हैरानी से देखने लगे तो चुन्नू ने अपनी बात दोहरा दी, फिर रेत और बदरपुर से घास में छिपे गड्ढे भरने में जुट गया। उसकी देखा देखी और भी कई लोग इस काम में लग गए। बच्चों ने इसे नया खेल समझा और वे भी इस खेल में शामिल हो गए। बच्चे दौड-दौड़कर कागजों में रेत और बदरपुर लाकर लोगों को देने और कहने लगे-अंकल, गड्ढे भर दो नहीं तो हमें चोट लग जाएगी।
       चुन्नू की देखा-देखी बहुत सारे स्त्री-पुरुष और बच्चे गड्ढे भरने के खेल में लग गये। अब पता चला कि बाग की जमीन में एक नहीं अनेक छोटे-छोटे गड्ढे और सूराख थे और यह बच्चों के कोमल, छोटे पैरों के लिए बहुत ही खतरनाक था।
      आखिर बाग की धरती में बने सारे गड्ढे भर दिए गए। मोहल्ले वालों ने फैसला किया कि आगे से वे किसी टैंट वाले को बाग में टैंट नहीं लगाने देंगे।
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     सबसे ज्यादा खुशी चुन्नू को थी। सब उसकी तारीफ कर रहे थे। खास तौर से बच्चे तो उसके पक्के फैन हो गए थे। उस दिन उसे मोहल्ले में बहुत देर तक रुकना पड़ा। बिट्टू की मां ने उसे अपने घर चाय पीने के लिए बुलाया तो मोहल्ले के बच्चे भी आए। जब वह चलने लगा तो बच्चों ने कहा-अंकल,                                          यह गड्ढे भरने का खेल आपके साथ हम भी खेलना चाहते हैं। बताइए, अगली बार यह खेल कहां खेला जाएगा?”
    चुन्नू क्या कहता, बस मुस्कराता रहा-मन ही मन उसने निश्चय कर लिया था-अगर किसी बाग में, फुटपाथ पर कहीं कोई गड्ढा देखेगा तो उसे भरने की कोशिश जरूर करेगा ताकि किसी छोटे बड़े का पैर उसमें फंसकर घायल न हो जाए।  ( समाप्त )