Thursday 29 November 2018

पिकनिक-कहानी बच्चों के लिए --देवेन्द्र कुमार


पिकनिक—देवेन्द्र कुमार—कहानी बच्चों के लिए
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पिकनिक में सभी शामिल होना चाहते थे,बड़ों के साथ बच्चे भी गए. पर बच्चों ने कुछ ऐसा कर दिया कि बड़ों का मज़ा बिगड़ गया. क्या सचमुच! ===     

                पूरे मोहल्ले में शोर था। सप्ताह में तीन छुट्टियां आ रही थीं। छुट्टियों का अच्छे से अच्छा उपयोग कैसे हो, इस पर सनराइज क्लब में मीटिंग पर मीटिंग हो रही थीं। सनराइज क्लब में मोहल्ले का कोई भी आदमी शामिल हो सकता था। आखिर फैसला हो गया। सैर के लिए बस की बुकिंग हो गई। इस सैर-सपाटे में बच्चे न जाते ऐसा कैसे हो सकता था।
                पिकनिक की तैयारियां सारी रात चलती रहीं। सुबह मुंह अंधेरे बस सैलानियों को लेकर चल दी। सब प्रसन्न थे। गाने चल रहे थे। खास तौर से बच्चे बहुत उत्साह में थे।
                दोपहर के समय बस एक गांव के निकट झील के तट पर रुकी। सबको भूख लग रही थी। खाना साथ में लाए थे। झील के किनारे चादर बिछा दी गई। तब तक कुछ लोग झील में तैरने का आनन्द लेने लगे। बाकी लोग किनारे पर खड़े होकर आसपास का प्राकृतिक सौंदर्य निहार रहे थे।
                झील के दो तरफ जंगल था और तीसरी तरफ एक रास्ता घाटी में उतर गया था। वहीं एक गड़रिया अपने रेवड़ चरा रहा था। उसने कहा, बाबू लोगो, घाटी में फूल बहुत खिलते हैं, वहीं एक गुफा भी है, जिसमें न जाने कहां से पानी आता है।
                पर्यटकों ने जमकर खाया, फिर तय हुआ कि घाटी की सैर की जाए। साथ में गली के कुछ बड़े-बूढ़े भी आए थे। उन लोगों ने आराम करना ठीक समझा। बाकी लोग घाटी की ओर चल गए। बच्चों के गाने-खिलखिलाने की आवाजें दूर तक गूंज रही थीं। सचमुच घाटी में फूलों की बहार थी। रंग-रंग के सुगंधित फूल। जहां तक नजर जाती फूलों का गलीचा सा बिछा हुआ था हरी घास के ऊपर।
                घाटी में घूमते हुए सबको फिर भूख लग आई। हरेक के पास थैले में नमकीन, बिस्किट के पैकेट और कोल्ड ड्रिंक की बोतलें थीं। सब खाते पीते हुए वहां की दृश्यावली का मजा लेते रहे।
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      क्लब के कर्ताधर्ता बाबू जीवनदास अपने दो दोस्तों  के साथ गुफा में चले गए। वे देखना चाहते थे पानी कहां से आता है। क्योंकि उस  गुफा के आसपास पानी का कोई स्रोत नहीं था। कुछ लोगों के पास टार्चें थीं। उनकी रोशनी में गुफा रोशन हो उठी। दिखाई दिया-- गुफा की दीवार में एक दरार से पानी निकलकर फर्श  में बने गड्ढे में तेजी से समा रहा है। अद्भुत था यह देखना। आखिर गुफा की दीवार से निकलने वाले पानी का स्रोत क्या था?
       तभी जीवनदास ने कहा-- दोपहर ढल रही है, अब हमें चलना चाहिए। कुछ ही देर में धुंधलका होने लगेगा। हमें रात का ठिकाना तो होटल लेकव्यू में करना है। हम बुकिंग करवा चुके हैं।‘’
                पर वह तो यहां से पचास किलोमीटर दूर है।अजय बाबू बोले।
                इसीलिए तो कह रहा हूँ कि हमें जल्दी निकल चलना चाहिए।पर बच्चों की टोली चलने को तैयार नहीं थी। चार बच्चों की टोली फूलों के पास बैठकर कागजों पर कुछ नोट कर रही थी। टोली में थे विपिन, गौतम, रणवीर और सुप्रभात--चारों एक ही स्कूल में, एक ही कक्षा में पढ़ते थे, और एक ही मोहल्ले में रहने के कारण आपस में दोस्ती भी खूब थी।
                टोली के बाकी लोग घाटी से मैदान की ओर जाने वाली पगडंडी पर चढ़ने लगे तो बच्चो ने कहा- हम थोड़ी देर में आते हैं।
                क्यों?”रामरत्न बाबू ने कहा-- क्या हमसे छिपाकर फूल तोड़ने हैं?”
                हां, यही बात है,जीवनदास बोले-- बच्चो, क्या तुम्हें पता नहीं कि पेड़-पौधों में और फूलों में जीवन होता है। वे भी हम मनुष्यों  की तरह सांस लेते हैं। उन्हें नहीं तोड़ना चाहिए।
                जी, यह बात हम जानते हैं।-- विपिन और गौतम बोले।
                तो फिर यहां क्यों रुक रहे हो? चलो हमारे साथ चलो।
                जी, हमने गुफा के पास कुछ रंगीन पत्थर देखे हैं। हम कुछ पत्थरों को इकट्ठा करके जल्दी ही आ जायेंगे।कहकर बच्चों ने वहां पड़ी पोलीथीन की कुछ थैलियां उठा लीं और गुफा की तरफ चले गए।
                जल्दी आना। दिन ढलते ही यहां जंगली जानवर आ सकते हैं। शाम होते ही यहां ज्यादा देर तक रुकना ठीक नहीं है।बच्चों को इस तरह की सलाह देकर सब बड़े घाटी से ऊपर चले गये। अजय ने कहा  आप सब आगे चलें, मैं बच्चों के साथ रहूंगा, ताकि इन्हें जल्दी लेकर आ सकूं।
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                ऊपर झील के किनारे बिछी चादर हवा में उड़कर दूर पेड़ों पर जा अटकी थी। क्योंकि चादर पर न कोई बैठा था, न ही खाने पीने का सामान रखा था। चादर तथा खाने के बरतन वगैरह उठाकर बस में रखकर सैलानी भी अपनी-अपनी सीटों पर जा बैठे। सूरज का लाल गोला झील के पानी में बहुत सुंदर दिख रहा था। आकाश  में परिंदे अपने पंख फड़फड़ाते, तरह-तरह की आवाजें निकालते हुए जंगल में अपने घोंसलों की तरफ उड़े जा रहे थे।
                                                                                   
                ये बच्चे वापस आने में इतनी देर क्यों कर रहे हैं?” कहते हुए जीवनदास ने ड्राइवर की ओर देखा तो उसने कई बार जोर-जोर से हार्न बजा दिया। यह बच्चों के लिए पुकार थी कि जल्दी आ जाएं। कुछ ही देर में बच्चे अजय के साथ आते दिखाई दिए। उनके हाथों में कुछ थैलियां थीं।
                जरूर शैतान बच्चे घाटी से फूल तोड़कर लाए हैं। जबकि हमने ऐसा करने से मना किया था।कई लोग बोले।                बच्चो को देखकर ड्राइवर ने फिर से दो बार हार्न बजा दिया। वह भी चलने को बेचैन था।
                इन थैलियों में क्या है?” जीवनदास ने पूछा तो अजय मुस्करा कर रह गए। बच्चे भी चुप रहे।
                चलो, जल्दी से बस में बैठो। पहले ही इतनी देर हो चुकी है।
                पर बच्चे अब भी बस में नहीं बैठे। वह अजय के साथ बस से दूर खड़े थे। अजय ने ड्राइवर से कहा-- अभी तुम्हें कुछ देर और इंतजार करना होगा।बस में बैठे लोगों की समझ में चारों बच्चों और अजय का व्यवहार एकदम नहीं आ रहा था। सब सोच रहे थे—‘ आखिर बच्चे कर क्या रहे हैं!’
                चारों बच्चे अजय के साथ जमीन पर पड़ा कूड़ा उठा-उठाकर थैलों में भर रहे थे। उनमें थे नमकीन के खाली बैग व कोल्ड ड्रिंक की खाली बोतलें। झील के किनारे बैठकर भोजन करने के बाद जूठन से भरी प्लास्टिक की प्लेटें यूं ही खुले में छोड़ दी गई थीं। बच्चे वहां पड़ी एक-एक चीज उठाकर थैलों में डाल रहे थे। सब तरफ अंधेरा छा गया था, पर बच्चे टार्चों से प्रकाश में कूड़ा इकट्ठा कर रहे थे।
                 आखिर काम खत्म हुआ। विपिन, गौतम, रणवीर और सुप्रभात हाथों में थैलियां पकड़े बस में चले आए।
                एकाएक बस में दुर्गंध उठने लगी। थैलियो में भरी जूठन और प्लास्टिक की गंदी प्लेटो  से पूरी बस की हवा में बदबू फैल गई। सबने नाक पर रूमाल रख लिए।
                बस में विरोधी स्वर उभरने लगे-- यह क्या बदतमीजी है। कूड़ा घर में लाया जाता है क्या? आज तक तो ऐसा हुआ नहीं।
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                लेकिन यह तो हम लोगों की अपनी जूठन है। इसे बाहर खुले में छोड़ना क्या ठीक होता? अगर कल कोई दूसरी सैलानी टोली यहां आती तो वह हमें बुरा भला न कहती?” अजय ने कहा। खैर, जो हुआ, मुझे नहीं पता यह किसकी शरारत है, पर इस कूड़े के साथ हम सफर नहीं कर सकते।जीवन दास बोले।
                अब अजय ने कहा- बच्चे घाटी में भी बिना बात नहीं रुके थे।
                पर ये तो वहां उगे फूल तोड़कर लाए हैं जबकि मैंने ऐसा करने से मना किया था।जीवनदास क्रोधित स्वर में बोले। इतना सुनते ही अजय के संकेत पर बच्चों ने घाटी से लाई थैलियों के मुंह खोल दिए। उन थैलियों में भी कूड़ा भरा हुआ था। किसी को याद नहीं था कि घाटी में चहलकदमी करते हुए हरेक को हाथ में नमकीन की थैली थी या खाने की किसी और चीज का पैकेट था। और जब सैलानी घाटी से ऊपर आए थे तो वे खाने के बाद खाली थैलियां घाटी में ही छोड़ आए थे।
                अजय ने जीवनदास से कहा-आपने गलत समझा। बच्चे घाटी में फूल या चमकीले पत्थर इकट्ठे करने नहीं, बल्कि वहां फैले कूड़े को चुनकर थैलियों में भरने के लिए रुक गए थे।
                बच्चे अगर कहते तो हम खुद ही कूड़े को वहां से चुनकर ले आते, वहां न छोड़ते।जीवनदास ने कहा| पर सब मन में जानते थे कि इससे पहले भी गली के पर्यटकों को लेकर बसें कई बार सैर पर निकली थीं| पर खाने-पीने के बाद कूड़ा इकट्ठा करने की याद किसी को नहीं आती थी।
                बच्चे खामोश बैठे थे,क्योंकि उनकी तरफ से अजय बोल रहे थे।
                जीवनदास ने कहा- अच्छा अब बहुत हुआ, कूड़े की थैलियां बस में लाने की क्या जरूरत थी? अब तो बच्चे भी बड़ों को साफ-सफाई का पाठ पढ़ाने लगे हैं। कूड़े की थैलियों को बाहर फेंक दो।
                नहीं अंकल, हम कूड़े की थैलियां बाहर खुले में नहीं फेंकेंगे। तब कूड़े को थैलियों में भरने का क्या फायदा हुआ। कूड़े को सही जगह पर ही फेंकना चाहिए।सुप्रभात बोला। तब तक बस झील से काफी आगे आ गई थी।
                सब समझ गए थे कि बच्चे कूड़े की थैलियां सड़क पर फेंकने वाले नहीं। कूड़े की थैलियों को अच्छी तरह बंद करके पीछे वाली सीट के नीचे रखकर, आगे अखबार लगा दिये गए। कुछ देर बाद बस होटल के सामने जाकर रुकी। बस रुकते ही बच्चे अजय के साथ होटल की लाबी में जा पहुंचे। उन्होंने पूछा कि होटल का कूड़ा कहां डाला जाता है। इसके बाद बच्चे कूड़े की थैलियों को ले जाकर होटल के विशाल डस्टबिन में डाल आए।
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                तब तक बस में बैठे बड़े लोग उतरकर होटल की लाबी में जा बैठे थे। वहां से उन्हें कमरों में ले जाया गया। रात आराम से बीती, पर सब जानते थे कि पिकनिक का मजा कुछ किरकिरा हो गया था।
                इसके बाद दो दिन की यात्रा और थी पर. अब पिछली घटना नहीं दोहराई गई। सबने इस बात का ध्यान रखा कि जब वे किसी पिकनिक स्पाट से चलें तो वहां अपना जरा सा भी कूड़ा न छोड़ें।
                सफर से लौटने के बाद जीवनदास ने हंसी हंसी में कहा--बच्चों ने हमें ऐसा पाठ पढ़ाया है जिसे हम कभी नहीं भूलेंगे।                                                                                                                                (समाप्त )

               

Friday 12 October 2018

पंख बोलते हैं --देवेन्द्र कुमार--कहानी बच्चों के लिए


पंख बोलते हैं—देवेन्द्र कुमार—कहानी बच्चों के लिए

कभी पिंजरे में गूंगी चिड़िया थी और अब पिंजरा खाली था.श्यामू के मन में ख़ुशी और उदासी दोनों ने जगह बना ली थी.
   
                ==श्यामू ठेलेवाला माल ढोता है। उसका ठेला गली के मोड़ पर खड़ा रहता है। जब कोई पुकारता है तो आवाज लगाता है-- ‘’आया बाबू |’’ और आवाज के साथ-साथ दौड़ा चला आता है। उसके कंधे पर एक अंगोछा सदा दिखाई देता है। श्यामू सबसे मीठा बोलता है और मजदूरी में कभी कहा-सुनी नहीं करता। इसीलिए गली में सभी उससे काम करवाना पसंद करते हैं।
                उस दिन गली के चतुर भाई को कहीं सामान भेजना था। उन्होंने श्यामू  को पुकारा- श्यामू , जरा सुनना।
                पर आश्चर्य! श्यामू ने चतुर भाई की पुकार का कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने फिर आवाज दी, पर श्यामू  ने इस बार भी कुछ नहीं कहा। बस मुंह दूसरी तरफ घुमाए हुए कुछ देखता खड़ा रहा। पता नहीं क्या! चतुर भाई को श्यामू का व्यवहार विचित्र लगा। ऐसा तो वह कभी नहीं करता था, हमेशा पहली बार पुकारते ही दौड़ा चला आता था।
                चतुर भाई जरा गुस्से में उसके साथ पहुँचे। कहा-- श्यामू , क्या बात है। पुकार का जवाब ही नहीं दे रहे हो।
                श्यामू  ने उनकी बात का जवाब न देकर कहा-- बाबू, जरा उस चिड़िया को तो देखो। सामने खिड़की की जाली में फंसी हुई पंख फड़फड़ा रही है, पर गले से चूं चिर्र की कोई आवाज नहीं है। मैं उसी को देख रहा हूँ। अगर ऐसे में कोई बिल्ली या दूसरा शिकारी पंछी आ जाए तो यह बच नहीं सकेगी। मैं यही सोच रहा हूँ।
                चतुर भाई ने सामने वाले मकान की खिड़की की तरफ देखा। अरे हां, श्यामू  ठीक ही तो कह रहा था। सचमुच चिड़िया के गले से कोई आवाज़ नहीं निकल रही थी, हां अपने पंख जरूर फड़फड़ा रही थी  छूटने की कोशिश में। उन्होंने कहा--श्यामू , तुम ठीक कहते हो। जरा देखो तो चिड़िया को हुआ क्या है।
                श्यामू  ने चबूतरे पर चढ़कर खिड़की की जाली में फंसी चिड़िया को धीरे से बाहर निकाल लिया। फिर उसके पंख सहलाने लगा। चिड़िया ने पंख तो फड़फड़ाए, पर उसकी चोंच से चूं चिर्र की कोई आवाज अब भी बाहर नहीं आई। कहीं चिड़िया गूंगी तो नहीं थी?
       श्यामू  ने चतुर भाई से कहा-- बाबूजी, माफ करना। पहले जरा इस चिड़िया को देख लूं फिर आपका काम भी कर दूंगा।चतुर मुड़कर चले गए। वह समझ गए थे कि इस समय श्यामू  का पूरा ध्यान उस चिड़िया में लगा है।
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                चिड़िया सचमुच गूंगी थी, यह श्यामू  ने इतनी देर में समझ लिया था। वह उसे लिए हुए बाजार गया और एक छोटा सा पिंजरा खरीद लिया। फिर चिड़िया को पिंजरे में बंद करके अपनी कोठरी में रख दिया-- वह सोच रहा था-- इस गूंगी चिड़िया का क्या किया जाए।
                                        
                इसे तो पिंजरे में ही रखना होगा। अगर बाहर छोड़ा तो यह जरूर बिल्ली या किसी दूसरे शिकारी पंछी का शिकार बन जाएगी। क्योंकि जब इस पर हमला होगा तो खुद को बचाने के लिए चूं चिर्र भी नहीं कर पाएगी।
                गूंगी चिड़िया के चक्कर में श्यामू  दो दिन बाजार नहीं गया। काम नहीं हुआ तो पैसे भी नहीं मिले। ऐसे तो काम चल नहीं सकता था। आखिर तीसरे दिन ठेला लेकर निकला तो उस पर गूंगी चिड़िया वाला छोटा सा पिंजरा भी था। जिसने देखा वही हंस पड़ा। हरेक ने पूछा, “श्यामू  अब तुम एक से दो हो गए। अब इस चिड़िया का करोगे क्या?”
                क्या करना है, ठेला खीचूंगा तो साथ में रखूंगा, कमरे पर जाऊंगा तो तार से पिंजरा लटका दूंगा।श्यामू  का एक ही जवाब था।
                रात में अपनी कोठरी में चिड़िया का पिंजरा लेकर बैठ जाता और चिड़ियों की तरह चूं चिर्र की आवाज निकालता। वह सोचता था, शायद इस चिड़िया की मां इसे बोलना सिखाना भूल गई, या एक दिन दाना चुगने गई हो और फिर लौट ही न पाई हो। आखिर नन्हे बच्चों को भी बोलने की ट्रेनिंग देनी होती है, तभी तो ये बोलना सीखते हैं। उसे देखने वाले कहते, “श्यामू तो पागल हो गया है, जो चिड़िया के साथ ऐसा अजीब व्यवहार कर रहा है। अरे चिड़िया अगर गूंगी है तो उसे उसके हाल पर छोड़ दो। देखना एक दिन पागल श्यामू पंख लगाकर चिड़ियों की तरह आकाश में उड़ने की कोशिश न करने लगे।
                पर श्यामू पर इन बातों का कोई असर न पड़ता। वह एक ही बात कहता था-- गूंगी चिड़िया अकेली है। भला उसे उसके हाल पर कैसे छोड़ दूं। वह क्या अपनी जान बचा पाएगी?” चिड़िया का पिंजरा हर समय श्यामू के ठेले पर ही दिखाई देता था। कहता- भला कोठरी में पिंजरे को कैसे छोड़ दूं। इसे दाना पानी कौन देगा। मैं तो काम के चक्कर में सारा-सारा दिन बाजार में भटकता हूँ।
                लोग अब उसे श्यामू  चिड़ियावाला कहने लगे थे।
                एक रात एकाएक उसकी नींद टूट गई। कोठरी में चिड़िया की चूं चिर्र गूंज रही थी। श्यामू  हड़बड़ाकर उठ बैठा। वह फटी-फटी आंखों से पिंजरे में बंद चिड़िया को देखता रहा। हां गूंगी चिड़िया ही बोल रही थी| यह क्या जादू हो गया था। एकाएक गूंगी चिड़िया ने कैसे बोलना सीख लिया था!
                सुबह उठा तो जिससे मिला उसी को खुश खबरी दी-- गूंगी चिड़िया बोलने लगी है। जादू हो गया है।लोगों ने सुना और हंस दिए।
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                बाजार में चिड़िया का पिंजरा ठेले पर रखकर चला तो चिड़िया लगातार चूं चिर्र कर रही थी। लोगों ने हंसी में कहा- श्यामू  की पाठशाला में गूंगी चिड़िया ने आखिर बोलना सीख ही लिया।एक ने मजाक में कहा- श्यामू , पता नहीं तुमने  डाक्टर डू लिटिल के बारे में सुना है या नहीं। वह पंछियों से उन्हीं की भाषा में बात करते थे। अब चिड़िया ने चूं चिर्र करना सीख लिया है तो तुम भी उसकी बोली सीख लो। फिर तुम उसकी बातों का मतलब
                                                                  
 समझ जाओगे और चिड़िया को अपनी भाषा  भी सिखा देना। फिर तो तुम दोनों आपस में खूब मजे से बात कर सकोगे।
                श्यामू  धीरे से हंसकर रह गया। और कहता भी क्या।
                एक दिन चिड़िया का पिंजरा ठेले पर रखे बाजार से जा रहा था तभी दो चिड़ियां पास आकर पिंजरे पर मंडराने लगीं, फिर वे पिंजरे पर बैठकर चूं चिर्र करने लगीं। पिंजरे के अंदर से श्यामू वाली चिड़िया भी बोल रही थी।
                श्यामू  ध्यान से देखता रहा। वह सोच रहा था—‘आखिर ये चिड़ियां क्या बातें कर रही हैं? जरूर एक दूसरे का हाल पूछ रही होंगी। पूछना ही चाहिए।‘ रात को सोने के लिए लेटा तो यही बात दिमाग में घूम रही थी। सुबह उठा तो चिड़िया पिंजरे में खामोश थी। पिंजरे को कोठरी से बाहर लाया तो दो चिड़ियां आकर पिंजरे पर मंडराती हुई फिर चूं चिर्र करने लगीं।
                एकाएक श्यामू  के होठों पर हंसी दौड़ गई। वह बड़बड़ाया-- मैंने समझ ली चिड़िया की भाषा। हां जरूर वे आपस में एक ही बात पूछ रही होंगी।‘’ अगले ही पल उसने पिंजरे का दरवाजा खोला तो चिड़िया झट से उड़ गई। उसने नजरें उठाईं, ऊपर बहुत सी चिड़ियां उड़ती हुई चूं चिर्र कर रही थीं। वे खुश हो रही थीं। खुश होने की बात ही थी। पिंजरे में बंद उनकी एक सहेली आजाद जो हो गई थी।
        उस दिन श्यामू  ठेला लेकर चला तो सबने पिंजरा खाली देखा। पूछले लगे- श्यामू , तुम्हारी चिड़िया
 कहां गई?’’
                अपनी सहेलियों के साथ घूमने-फिरने,”-- श्यामू ने कहा।
                तो फिर पिंजरा साथ में लेकर क्यों फिर रहे हो?”
                यही तो मेरी पहचान होगी उस चिड़िया के लिए।श्यामू ने कहा--अगर वह कभी आई तो मुझे इसी पिंजरे से पहचान लेगी।
                अरे, अब वह चिड़िया आने वाली नहीं।एक ने हंसकर कहा।
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                मुझे तो पूरा भरोसा है एक दिन वह जरूर आएगी,” श्यामू  बोला।
                क्या तुम्हारे पिंजरे में बंद होने के लिए?”
                नहीं, मुझसे मिलने के लिए। आखिर मैं उसका दोस्त हूँ। श्यामू ने कहा तो उसकी उदास आंखों में गीलापन था।                                                           ( समाप्त)