अध्यापक-- -देवेंद्र
कुमार
रामेश्वर हमेशा उस बस
में चढ़ता है,
जिसमें यात्री ठसाठस भरे होते हैं। कोई उससे इसका कारण जानना चाहे तो वह हँसकर रह जाएगा। बस में
रामेश्वर की आंखें उस काली टोपी वाले की ओर लगी हुई थीं, जो इस समय उससे थोड़ा
आगे खड़ा था। वह काली टोपी वाला व्यक्ति काफी देर से रामेश्वर की नजरों में था।
रामेश्वर ने उसे सड़क के पार वाले बैंक से निकलते देखा था। बाहर आते ही उस व्यक्ति
ने अपने कोट की अंदर वाली जेब पर हाथ रखा था और फिर तुरंत हटा भी लिया था, लेकिन रामेश्वर के लिए
इतना ही संकेत बहुत था।
रामेश्वर ने उसे अपना
शिकार मान लिया था। अब रामेश्वर को बस में कुछ पलों के लिए उसके पास खड़े होने का
मौका चाहिए था। रामेश्वर अगल-बगल की सीटों पर बैठे लोगों की ओर देखने लगा। एकाएक
रामेश्वर को लगा जैसे बायीं ओर किनारे वाली सीट पर बैठा लड़का ध्यान से उसकी ओर देख
रहा है। रामेश्वर सिर घुमाकर दूसरी तरफ देखने लगा। तभी पीछे से किसी ने पुकारा, ‘‘नमस्कार सर, आइए सीट खाली है।’’
रामेश्वर अचकचा गया।
उसने गर्दन घुमाकर देखा,
बायीं तरफ बैठा वही लड़का उठ खडा़ हुआ है और हाथ जोड़कर खाली सीट पर बैठने की
प्रार्थना कर रहा है।‘‘सर, आइए न!’’ लड़के की आवाज फिर
सुनाई दी,‘‘मैं देख रहा
हूं, आप बहुत देर
से खड़े हैं। ‘’
रामेश्वर को घूमकर उसकी
ओर देखना पड़ा था। वह सीट छोड़कर खड़ा था।
‘‘क्या तुमने मुझसे कुछ
कहा?’’ रामेश्वर ने
पूछा।
‘‘जी सर, आइए बैठिए ना!’’ कहते हुए लड़का खुलकर
हंस पड़ा।
‘‘नहीं, नहीं तुम बैठो,’’ रामेश्वर ने
जल्दी से कहा | सीट पर बैठने का मतलब होगा शिकार को बचकर निकल जाने देना।
‘‘आप खड़े रहें और
मैं...’’ लड़का फिर कह
रहा था।
1
‘‘कोई बात नहीं, आजकल सब चलता है। लेकिन
मैं तुम्हें पहचान नहीं पा रहा हूं।’’ रामेश्वर ने कहा।
‘‘सर, स्कूल में इतने लड़के
आते हैं। आप सबको कहां तक याद रख सकते हैं, लेकिन मैं आपको कभी
नहीं भूल सकता।’’
लड़के ने कहा।
रामेश्वर कुछ और कहता, इससे पहले उसके आगे
खड़ा व्यक्ति उस खाली सीट पर बैठ गया। अब रामेश्वर और उसके शिकार के बीच कोई नहीं
था।
‘‘सर!’’ लड़का क्रोधित हो उठा।
रामेश्वर जोर से हंस
पड़ा। वह मन ही मन सीट पर बैठने वाले व्यक्ति को धन्यवाद दे रहा था।‘‘कोई बात नहीं, मुझे बस में बैठकर सफर
करना अच्छा नहीं लगता।’’
रामेश्वर यह कैसे कहता कि अगर वह बस में बैठकर यात्रा करे तो हाथ की सफाई
दिखाने का मौका कैसे मिलेगा।
‘‘आप कहां जाएंगे?’’ लड़के ने
पूछा।
रामेश्वर एकाएक कुछ कह
न पाया, क्योंकि वह
कहीं जाने के लिए तो बस में चढ़ा नहीं था , फिर उसने ऐसे ही किसी जगह का नाम बता दिया।
‘‘जी, मैं भी वहीं जा रहा
हूं। हम वहीं रहते हैं।’’
लड़का खुशी से बोला,
‘‘आपको मेरे घर चलना होगा।’’
2
रामेश्वर का खून खौल
उठा। इस लड़के ने तो सारा खेल ही बिगाड़ दिया है। उसने लड़के की किसी बात का जवाब
नहीं दिया। वह खिसकता हुआ टोपी वाले से एकदम सटकर खड़ा हो गया। उसके हाथ टोपी वाले
की जेब तक पहुंचने के लिए तैयार थे।
‘‘सर, आप तो अब भी उस दयानंद
हायर सेकेंड्री स्कूल में पढ़ा रहे होंगे?’’ रामेश्वर ने उस लड़के को
कहते सुना।
‘‘तुम क्या करते हो?’’ रामेश्वर ने
जवाब देने के बदले सवाल पूछ लिया। बात कुछ-कुछ समझ में आ रही थी। शायद लड़का उसे
स्कूल का कोई अध्यापक समझ बैठा था गलती से।
रामेश्वर का प्रश्न
सुनकर लड़का उदास हो गया। निराश स्वर में बोला , ‘‘जी, पढ़ाई बीच में ही रह
गई। आपको शायद पता न हो, दो वर्ष पहले मेरे पिताजी नहीं रहे। आप तो जानते ही होंगे
कि वह कितने बीमार रहते थे।’’
रामेश्वर ने ध्यान से
लड़के की ओर देखा। वह सिर झुकाकर आंसू पोंछ रहा था। रामेश्वर ने उसके कंधे पर हाथ
रख दिया। मृदु स्वर में बोला, ‘‘तो इसमें निराश होने की कौन-सी बात है। धीरज रखना चाहिए।
हिम्मत करके पढ़ते रहो। अभी नौकरी की उम्र भी तो नहीं है, लेकिन ट्यूशन कर सकते
हो।’’
‘‘जी, वही कर रहा हूँ ।’’ लड़के ने कहा, फिर जैसे कोई भूली हुई
बात याद आ जाए इस तरह बोला, ‘‘मैंने तो आपको बस में चढ़ते समय ही देख लिया था, लेकिन बात करने की
हिम्मत नहीं हो रही थी।’’
3
‘‘क्यों?’’ रामेश्वर को
पूछना पड़ा।
‘‘सोच रहा था, एक बार साथी से बिना पूछे उसके बैग से कुछ पैसे लेने पर आपने
मुझे बहुत डांटा था। यही सोच कर मन में
संकोच हो रहा था |
‘‘अच्छा... अच्छा...’’ रामेश्वर सिर्फ इतना
कह सका। एकाएक उसकी आंखों के सामने एक चित्र तैर गया, वह कुर्सी पर बैठा है।
यह लड़का सामने खड़ा है और अपनी गलती की क्षमा मांग रहा है।
एकाएक रामेश्वर जैसे
सोते से जाग गया।
कंडक्टर चिल्ला रहा था, ‘‘जोरबाग...
जोरबाग...’’
‘‘अरे!’’ रामेश्वर के होठों से
निकल गया। उसने देखा उसका शिकार टोपी वाला बस से नीचे उतर रहा है।
एक पल को रामेश्वर कुछ
बोल न सका। उसे अपना गला रुंधता हुआ महसूस हुआ। बस की खिड़की में से टोपी वाले की
आकृति उसे दूर जाती दिखाई दी।
‘इसे मेरे चेहरे में न जाने कौन-सा अध्यापक नजर आ रहा
है!’ उसके हाथों के
ठीक नीचे से टोपी वाला सुरक्षित बच निकला था। रामेश्वर उसकी जेब को छूने का मौका
ही नहीं पा सका था इस अनजान लड़के के कारण। उसने गुस्से से लड़के को देखा। वह
मुस्करा रहा था। रामेश्वर भी हंस पड़ा और हंसता ही गया। लड़का भी हंसने लगा। बस
में बैठे लोग आश्चर्य से दोनों की ओर देख रहे थे।
जब लड़के का स्टाप आया
तो रामेश्वर उसका हाथ थामकर नीचे उतर आया। लड़के ने अपने घर चलने के कहा तो उसने
मना कर दिया। उससे काफी देर तक बस स्टैंड पर ही बातें करता रहा। उसे लग रहा था
जैसे वह जेबकतरा नहीं,
उसी अनजान लड़के का भूला-भटका अध्यापक है।‘‘तो मैं चलता हूं।’’ अंत में रामेश्वर ने
कहा।
‘‘आशीर्वाद दीजिए सर!’’ कहते हुए लड़का उसके
पैरों में झुक गया।
‘‘अरे रे...’’ कहते हुए रामेश्वर ने
लड़के को कंधों से थाम लिया। बोला, ‘‘बड़े होकर अच्छे आदमी
बनो! यही आशीर्वाद है। इसके अतिरिक्त हम और दे भी क्या सकते हैं।‘’
’
लड़का नमस्कार करके
चला गया। रामेश्वर खोया-सा खड़ा रह गया।‘काश, मैं सचमुच ही उस लड़के
का अध्यापक होता।’’
उसने होंठों-होंठों में कहा और पैदल ही लौट चला। अनेक ठसाठस भरी बसें उसके पास
से गुजर गईं। कोई और समय होता तो वह उनमें से किसी बस में जरूर चढ़ जाता, लेकिन वह तो उसी लड़के
के बारे में सोच रहा था,
जो अपने घर पहुंचकर मां को पुराने अध्यापक से मिलने की घटना बताकर खुश हो रहा
होगा।
रामेश्वर चला जा रहा
था। मन में खुशी थी,
पछतावा नहीं था। वह याद करने की कोशिश कर रहा था, इतनी खुशी उसे कब मिली
थी! (समाप्त )
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