अहंकार
टूटा हुआ-कहानी-देवेंद्र कुमार
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नई
बस्ती में बना था मंदिर। दूर से ही उसके शिखर पर फहराती पताकाएं दिखाई दे जाती
थीं। दूर-दूर से लोग वहां आते। कैसी सुंदर मूर्तियां बनाई थीं शिल्पियों ने। पूरा
मंदिर संगमरमर का बना था। हर समय भजन-कीर्तन के स्वर हवा में गूंजते रहते-फूलों की
सुंगध से मह-मह महकता रहता सारा वातावरण।
मंदिर
के निर्माण में सबने दिल खोलकर धन दिया था। वैसे सबसे अधिक योगदान था सेठ दीवानचंद
का। बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के सेठ दीवानचंद। उसी बस्ती के रायबहादुर दीपकराय ने
भी दिल खोलकर दान दिया था।
मंदिर
में मूर्ति प्रतिष्ठा का एक वर्ष पूरा हुआ। शानदार उत्सव का आयोजन हुआ। अखंड
कीर्तन और फिर भोज। रात के समय बिजली की रोशनी में जगमगाता मंदिर बहुत भव्य लग रहा
था। लेकिन बस तभी एक गड़बड़ हो गई।
समारोह
के अंतिम दिन विशेष सभा हुई। उसमें बस्ती के सभी प्रतिष्ठित जन मंच पर बैठे थे-सेठ
दीवानचंद को हर बात में प्रमुखता दी जा रही थी। भगवान की मूर्ति को माल्यार्पण
सबसे पहले उन्हीं के हाथों से करवाया गया। यह बात रायबहादुर दीपकराय को बुरी लगी।
आखिर वह किस बात में कम थे। उन्होंने मंदिर के
निर्माण में कुछ कम धन नहीं दिया था। जहां तक रुपये-पैसे का सवाल था, वह दीवानचंद से किसी भी तरह कम नहीं
बैठते थे। अपनी उपेक्षा उनके मन में कांटे-सी गड़ने लगी।
उस
रात उन्हें नींद न आई। न जाने कितना कुछ सोच गए। सुबह-सुबह उन्होंने अपने मित्रों
को बुलाया। सभी लोग सेठ दीवानचंद को प्रमुखता देने और दूसरों की उपेक्षा करने से
नाराज थे। फैसला हो गया। मोहल्ले में नया मंदिर बने जो पुराने मंदिर की तुलना में अधिक भव्य हो।
मंदिर से थोड़ी दूर पर दीपकराय की एक पुरानी
हवेली थी। आजकल उसमें कोई नहीं रहता था। बस, उसी स्थान पर एक नए मंदिर का निर्माण
शुरू हो गया। सैकड़ों मजदूर चैबीसों घंटे काम करने लगे। दीपकराय मंदिर
जल्दी-से-जल्दी पूरा कराना चाहते थे। मंदिर का भवन बनता रहा। दूसरी ओर संगमरमर का
काम करने वाले शिल्पी आ गए। दीपकराय ने इंजीनियर से कहा था कि उनके मंदिर का शिखर पुराने
मंदिर से ऊंचा बनना चाहिए।
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अब
उन्होंने मंदिर में पूजा के लिए जाना भी छोड़ दिया था। उनका व उनके मित्रों का
फैसला था अब तो अपने मंदिर में ही पूजा के लिए जाएंगे।
मोहल्ले
के समझदार लोग इस बात पर परेशान थे। लेकिन करते क्या? लड़ाई दो दिग्गजों के बीच थी। मंदिर
बनकर तैयार हो गया। अब मूर्तियां प्रतिष्ठित की जानी थीं। एक रात पुराने मंदिर के
पुजारी जी का द्वार खड़क उठा। उठ कर देखा, सामने रायबहादुर दीपकराय खड़े हैं।
पुजारी चौंक कर बोले, ‘‘आधी रात के समय कैसे?’’
दीपकराय
ने पुजारी के सामने सौ-सौ के कई नोट रख दिए। कहा- ‘‘आप कल से नए मंदिर में भगवान की आरती
कराएंगे। यहां आप जितना पाते हैं, मैं उससे दोगुना दूंगा।’’ पुजारी जी स्तब्ध खड़े देखते रहे।
उन्होंने कहा, ‘‘दीपकराय
जी, आप रुपये ले जाइए। मैं सुबह बताऊंगा।
मुझे धन का लालच नहीं है।’’
‘‘लेकिन
आपको मेरे मंदिर में आना है। खूब सोच लीजिए-जितना मांगोगे, मिलेगा।’’
पुजारी
जी ने रायबहादुर को वापस भेज दिया। उसी समय सेठ दीवानचंद के घर गए। सेठ जी पुजारी
जी को असमय आया देख घबरा गए। उन्होंने पूछा तो पुजारी जी ने इतना कहा- ‘‘तुम जाकर रायबहादुर दीपकराय को मना लो।
जो कुछ हो रहा है वह ठीक नहीं।’’
दीवानचंद
ने चिड़चिड़े स्वर में कहा- ‘‘तो आप यही कहने मेरे पास आए हैं? अगर दीपकराय अपने को बड़ा समझता है तो
मेरा क्या दोष? मैंने
तो उससे कुछ कहा नहीं। वह अपने भगवान का घर अलग बनाना चाहता है तो खुशी से बनाए।
मैं तो उससे बात भी नहीं करना चाहता।’’
पुजारी
जी निराश होकर लौट आए।
दिन
निकला,
लेकिन
मंदिर में पूजा के घंटे नहीं बजे। तभी लोग कहने लगे, ‘‘पुजारी जी तो सब छोड़छाड़ कर जा रहे
हैं।’’
भीड़
जुट गई,
सचमुच
पुजारी ने अपनी पोटली उठा रखी थी। कई लोग उन्हें रोक रहे थे। तभी एक तरफ से
दीपकराय और दूसरी तरफ से दीवानचंद भी आ पहुंचे।
दीवानचंद
ने कहा-‘‘पुजारी जी, आप हमें क्यों छोड़कर जा रहे हैं?’’ उधर से दीपकराय ने आवाज लगाई, ‘‘आ जाइए महाराज, आपका स्वागत है।’’
पुजारी
जी ने कहा-‘‘आप
दोनों को ही भगवान की शक्ति में विश्वास नहीं रहा।’’ दीवानचंद की ओर देख कर बोले-‘‘अगर तुम्हें यह भरोसा होता कि मंदिर
में भगवान का निवास है तो रूठे हुए को मनाने में तुम्हारा अहंकार कभी आड़े न आता।’’ फिर दीपकराय से कहा-‘‘और अगर तुम्हें यह विश्वास होता कि
भगवान मंदिर में हैं तो फिर तुम दूसरा मंदिर कभी न बनवाते। मैं तो जा रहा हूं, लेकिन इतना कहे जाता हूं, तुम दोनों का अहंकार तुम्हें कभी ईश्वर
से नहीं मिलने देगा।’’
पुजारी
जी चल दिए, तभी
दीपकराय आगे लपके और पुजारी जी के पैरों से लिपट गए। बोले-‘‘आप नहीं जा सकते। मैं क्षमा मांगता हूं, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।‘’
सेठ
दीवानचंद भी पुजारी जी के पास पहुंचे। बोले-‘‘भूल हुई, क्षमा कर दीजिए मत जाइए, सचमुच दीपकराय से वैसा व्यवहार मुझे
नहीं करना चाहिए था। मैं उन्हें मना सकता था।’’
दीवानचंद
और दीपकराय दोनों एक दूसरे से क्षमा मांगने लगे। आखिर पुजारी जी ने अपना फैसला बदल
दिया। वह रुक गए। थोड़ी देर बाद पूजा हुई तो दीपकराय और दीवानचंद पास-पास खड़े थे।
उसी
दिन दीपकराय ने नए मंदिर का निर्माण स्थगित कर दिया। बस, शिखर पर थोड़ा सा काम बाकी था, चर्चा होने लगी- कम-से-कम निर्माण कार्य तो पूरा कर लेते। दूर से देखने पर बुरा लगता है।
दीपकराय मुसकराकर कहते, ‘‘उसे इसी तरह रहने दो! इसे देखकर मुझे अपने खंडित अहंकार की याद आएगी।
चित्त सही मार्ग पर चलेगा, भटकूंगा नहीं।’’
सेठ
दीवानचंद कहते-‘‘अब मुझे और शर्मिंदा मत कीजिए। सवाल आपके अहंकार का ही नहीं, मेरे थोथे अहं का भी है।’’ फिर दोनों हंस पड़ते।(समाप्त )
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