Monday 29 May 2023

चूं चिर्र -कहानी-देवेंद्र कुमार

 

  चूं चिर्र -कहानी-देवेंद्र कुमार

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हरिराम अकेला था। घर, परिवार। इधर-धर घूमकर छोटा-मोटा काम करता और इस तरह दो जून की रोटी मिल जाती। बस, ऐसे ही जीवन चल रहा था। बरसात के मौसम में ज्यादा तकलीफ होती थी। घूमता-फिरता तपाई गाँव के पास से गुजर रहा था तो बारिश होने लगी। शाम हो रही थी। गाँव में किसी ने हरिराम को नहीं टिकाया। वह बारिश में भीगता खड़ा था, तभी किसी ने कहा, ‘गाँव के बाहर एक खंडहर है। वहाँ चले जाओ। भीगने से बच जाओगे।


हरिराम खंडहर में चला आया। भीगने से तो बचा पर भूख परेशान कर रही थी। खंडहर के आसपास झाड़-झंखाड़ थे। दूर से रास्ता गुजरता था। उस पर कई लोग आते-जाते दिखे पर किसी ने हरिराम में रुचि नहीं ली। वह भला किसका कौन था!

बैठै-बैठे यूँ ही बूँदों का गिरना देख रहा था। तभी चहचहाहट सुनाई दी। देखा एक कोने में चिड़िया बैठी थी। चोंच खोले हाँफ रही थी। उसके पंख भीगे थे।उसने चिड़िया को उठाकर पंख पोंछे फिर कुछ दाने निकालकर डाल दिए। चिड़िया दाना चुगने लगी।


तभी बाहर से आवाज आई, “अरे, कौन है‌?” हरिराम ने उठकर देखा घुटनों-घुटनों पानी में एक आदमी छाता लगाए खड़ा था। बोला, “मैं इधर से कई बार गुजरा हूँ। यहाँ हमेशा सन्नाटा पाया। आज आवाज सुनी तो हैरानी हुई। और कौन है‌?”


अजनबी की बात सुन, हरिराम हँस दिया। बोला, “अकेला था, यह चिड़िया दिखाई दी तो इसी से बात करने लगा।


कुछ देर में बारिश थम गई। धूप निकल आई। अजनबी का नाम जयंत था। किसी काम से गाँव में जा रहा था। आवाज सुनी तो रुक गया। जयंत ने पोटली खोली, उसमें भोजन था। हरिराम से बोला, “आओ खा लो।


भोजन देखकर हरिराम की आँखों में आँसू गए। जयंत ने पूछा तो कह गया कि कई दिन से खाना नहीं खाया है। फिर अपने बारे में सब बता गया। जयंत ने कहा, “जीवन ऐसे ही चलता है, आओ, थोड़ा-सा खा लो।

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हरिराम ने खाया ,दोनों बातें करने लगे। तभी चिड़िया की चूँ-चूँ सुनाई दी फिर पंखों की फड़फड़ाहट उभरी। तभी हरिराम की नजर दीवार पर टिक गई। एक सूराख में से साँप बाहर निकलता रहा था। उस तरफ जयंत की पीठ थी। उसे पता नहीं था कि एक साँप उसके इतना निकट पहुँचा है। जयंत के प्राण संकट में थे। हरिराम बिजली की फुरती से उछला। बाँए हाथ से जयंत को जोर से धक्का मारा और दाएँ हाथ से साँप को कसकर पकड़ लिया। जयंत धक्के से लुढ़कता हुआ दीवार से जा टकराया और बेहोश हो गया। तब तक हरिराम ने साँप को पत्थर से कुचल डाला और बाहर झाड़ियों में फेंक आया।


फर्श पर जयंत बेहोश पड़ा था। और हरिराम के मन में विचारों का तूफान उमड़ रहा था। वह सोच रहा था, ‘अगर में इस आदमी की पोटली उठाकर चला जाऊँ तो कोई नहीं जानेगा कि यहाँ क्या हुआ! पोटली में सामान है, कुछ रुपए भी जेब में जरूर होंगे। जब तक इसे होश आएगा, मैं दूर पहुँच जाऊँगा|


जयंत की जेबें टटोलने के लिए हरिराम के हाथ बढ़ने को हुए, फिर रुक गया। कानों में चिड़िया के चहचहाने की आवाज आई। चिड़िया फर्श पर बिखरे दाने चुगती हुई फुदक रही थी। यह हरिराम का वहम था या सच, उसे लगा जैसे चिड़िया उसे देख रही थी। हरिराम ने दृष्टि  फिरा ली। वह खंडहर से बाहर देखने लगा-सामने झाड़ियों में मरा हुआ साँप पड़ा था।


वह कुछ और कर पाता तभी पीछे आहट हुई। उसने देखा जयंत को होश गया है और वह फर्श पर हथेलियाँ टेककर उठने की कोशिश कर रहा है। हरिराम जैसे दौड़कर जयंत के पास जा पहुँचा। उसे उठने में सहारा देने लगा तो जयंत ने हाथ झटक दिया। बोला, “तुमने मुझे धक्का क्यों दिया था? आखिर क्या चाहते हो तुम‌?”

हरिराम अब चुप रहा सका, उसने सारी घटना कह सुनाई। संकेत से झाड़ियों में पड़ा साँप भी दिखा दिया। कुछ पल के लिए जयंत को जैसे हरिराम की बातों पर विश्वास नहीं हुआ, पर हरिराम की आवाज में सच्चाई झाँक रही थी। जयंत ने कहा, “तब तो तुमने मेरे प्राण बचा लिए|’’


हरिराम ने चिड़िया की ओर संकेत किया। बोला, “मैंने नहीं इसने बचाया तुम्हें। इसी ने चूँ-चूँ से मेरा ध्यान खींचा और मेरी नजर साँप पर गई। कौन जाने अगर यह होती तो क्या दुर्घटना घट जाती |' जयंत ने आकाश की ओर देखा, पोटली बाँधी और छाता उठा लिया। बोला, “अब चलना चाहिए।‘’

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हरिराम खामोश खड़ा रहा, भला उसके पास था ही क्या कहने के लिए। तभी जयंत ने कहा, “आओ, तुम भी चलो।


कहाँ चलूँ?” हरिराम ने पूछा।मैं भला कहाँ जा सकता हूँ। मैं यहीं रहूँगा।

यहाँ! इस खतरनाक खंडहर में! यहाँ तो कभी कुछ भी हो सकता है। साँप, जंगली जानवर...”


हाँ, लेकिन उपाय भी क्या है। रात को आग जलाकर सो रहूँगा। सुबह देखूँगा कि कहाँ जाऊँ।हरिराम ने उदास स्वर में कहा। वह सोच रहा था, “अगर जयंत को पता चल जाए कि कुछ देर पहले मैं क्या सोच रहा था तो...”


जयंत कुछ पल असमंजस की मुद्रा में खड़ा रहा फिर बिना कुछ कहे खंडहर से बाहर निकल गया। हरिराम उसे जाते हुए देखता रहा। खंडहर में धुँधलका-सा छा गया था। तभी बाहर कदमों की आहट उभरी। देखा जयंत खड़ा है।तुम फिर लौट आए‌?” हरिराम ने अचरज से कहा।


हाँ, मैं जा सका।जयंत बोला, “सच कहूँ तो मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं हुआ था। मुझे लग रहा था जैसे तुमने साँप की कहानी यूँ ही सुना दी है। असल में तो तुम मुझे बेहोश करके लूट लेना चाहते थे।


क्या तुमने ऐसा सोचा!”


हाँ, लेकिन बस थोड़ी ही देर। जेसे कोई मुझे आगे जाने से रोकने लगा। कोई मेरे कानों में कहने लगा, “अगर ऐसा करना होता तो तुम मुझे साँप से ही क्यों बचाते। वह मुझे डस लेता और तब तुम मजे से मेरा सामान और रुपए-पैसे लेकर जा सकते थे।फिर मैं जा सका। मुझे यह सोचकर ही डर लग रहा है कि तुम रात के अँधेरे में यहाँ अकेले रहोगे।कहकर जयंत ने हरिराम का हाथ पकड़ लिया। बोला, “माफ करना, मैं कितना उल्टा-सीधा सोच गया। मैं भी कैसा हूँ! तुमने साँप से मेरे प्राण बचाए और मैं...” कहते-कहते उसकी आवाज काँपने लगी।


हरिराम चुप रह सका। बोला, “तुमने कुछ गलत नहीं सोचा।और फिर वह बता गया कि उसके मन में कैसे विचार आए थे।बोला, “जब मैँ तुम्हारा सामान उठाकर भाग जाने की बात सोच रहा था  तो लगा था जैसे चिड़िया मुझे देख रही है। और फिर मैं रुक गया।


कुछ देर मौन छाया रहा। सन्नाटे में चिड़िया के पंखों की फड़फड़ाहट और उसकी चूँ-चूँ गूँजती रही। जयंत ने कहा, “तुमने सुना, चिड़िया क्या कह रही है--जो  हुआ उसे भूल जाओ। ­ चलें। मैं किसी भी कीमत पर तुम्हें यहाँ छोड़कर नहीं जाऊँगा।


हरिराम की नजर आप से आप दान चुगती चिड़िया पर जा टिकी। वह चहचहाई तो जयंत हँस पड़ा। बोला, “सुना, चिड़िया क्या कह रही है-यही कि बात मान लो और चले जाओ।


तो क्या तुम भी मानते हो कि चिड़िया सचमुच हमसे बातें कर रही है।हरिराम ने हौले से कहा।


कौन जाने! ऐसा हो भी सकता है।जयंत बोला और हरिराम का हाथ पकड़कर खंडहर से बाहर खींचने लगा।


सूरज पश्चिम में डूब चुका था और वे दोनों चले जा रहे थे। मरा हुआ साँप झाड़ियों में पड़ा था। आकाश में परिंदों का शोर गूँज रहा था। (समाप्त )

 

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