मेरा-तेरा बचपन=देवेंद्र कुमार
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माँ ने फिर याद दिलाया, “अमित, तेरे पिताजी नई किताबें ले आए हैं। अपनी अलमारी साफ करके रख लो।”
अमित ने कहा, “अच्छा माँ।” और अलमारी में रखी पुरानी किताबें बाहर निकालने लगा। हर वर्ष पुरानी कक्षा से नई कक्षा में जाने पर यह जरूरी काम सबसे पहले करना पड़ता
था।
अलमारी तो जैसे कूड़ाघर बन जाती थी। सिर्फ कापियां
-किताबें ही नहीं, और भी न जाने क्या अल्लम-गल्लम उसमें भर जाता था। अलमारी से सामान निकाल
कर
अमित आँगन में रखता जा रहा था और सोच रहा था, “यह फालतू सामान मैंने अलमारी कब रख दिया!” शायद मन की बात उसके मुँह से अनजाने ही बाहर निकल आई थी, क्योंकि तभी माँ ने कहा, “तुम पूरे साल में अपनी किताबों की अलमारी को जैसे कूड़ाघर ही तो बना देते हो। हर दिन न जाने उसमें क्या-क्या भरते रहते हो। चलो, अब जल्दी से सफाई कर लो। गली में कबाड़ी आया हुआ है। घर का फालतू सामान भी दे दूँगी उसे।”
अमित ने परेशान नजरों से माँ की ओर देखा तो वह हँस पड़ी।
पुरानी किताबें बंडल बाँधकर रख दी गईं। उन्हें बाद में बुकसेलर को आधी कीमत पर वापस करना था। अलमारी में नए कागज बिछाकर अमित अपनी नई किताबें लगाने में व्यस्त हो गया। वह सोच रहा थ, ‘इस बार ध्यान रखूँगा। किताबों की अलमारी में कोई भी बेकार चीज नहीं आने दूँगा।’
अलमारी में से कुछ पुरानी खिलौने निकले थे, जो टूट फूट चुके थे। अमित ने माँ से कहा, “मैंने देखा है, गली में पुराने कागज बीनने वाला एक छोकरा आता है। मैं खिलौने
उसे
दे दूँगा।”
“ठीक है। आओ, अब हाथ धोकर खाना खा लो। तेरे बाबाजी भी खा चुके हैं।” अमित की माँ ने कहा।
अमित ने नई किताबें अलमारी में लगा दीं। फिर नल पर हाथ धोने गया। उसने देखा तो चौंक उठा। उसने अलमारी से जो पुराने खिलौने तथा दूसरी चीजें निकाल
कर
रखी थीं वे वहाँ नहीं थीं।
1
“माँ, मैंने कुछ पुरानी चीजें यहाँ रखी थीं। उन्हें किसने उठा लिया?”
“ध्यान से देखो, वहीं होंगी। जाएँगी कहाँ।” माँ ने रसोई में काम करते हुए जवाब दिया।
अमित ने इधर-उधर देखा, पर पुराने खिलौने कहीं नजर नहीं आए। वह जैसे अपने आप
से
बोला, “इतनी ही देर में यहाँ कौन चोर आ गया?”
“तुम मुझे ही वह चोर समझ सकते हो।” आवाज आई तो अमित ने देखा, अरे, यह तो बाबा थे। वह कमरे के दरवाजे पर खड़े मुसकरा रहे थे।
“बाबा, आप...” अमित इतना ही कह सका।
बाबा ने कहा, “आओ, कमरे में चलो, मैं तुम्हें कुछ दिखाना चाहता हूँ।”
“पर वे मेरे पुराने खिलौने!”
“हाँ, हाँ, उन्हें मैंने ही उठाया है।” बाबा बोले, “जब तुम अपनी अलमारी साफ कर रहे थे तो मैं आँगन में आया था । मैंने तुम्हारी बात भी सुनी थी कि तुम कागज बीनने वाले लड़के को कुछ देना चाहते हो। यानी तुम उन चीजों को फेंकने वाले थे। तो बस, उन्हें मैं उठा लाया।” कहकर बाबा हँस पड़े।
“लेकिन क्यों, आप क्या करेंगे उन टूटे-फूटे खिलौनों का?” अमित को आश्चर्य हो रहा था।
“मैंने उन्हें अपने खिलौनों में मिला लिया। आओ देखो।” कहकर बाबा ने एक पिटारी खोली, उसमें से कुछ पुरानी चीजें बाहर निकालीं। अमित ने देखा--दो-तीन पिचकी हुई गेंदें, एक बाँसुरी जिसका अगला भाग टूटा हुआ था। एक माउथ आर्गन जिस पर जगह-जगह खरोंचें लगी थीं। एक छोटा बैट, एक कलर बॉक्स जिसके रंग सूख गए थे। और भी कई खिलौने थे, लेकिन सभी पुराने।
बाबा ने कहा, “देखो, ध्यान से देखो, इनमें कुछ चीजें तुम्हारी हैं, और कुछ खिलौने मेरे।”
“आपके खिलौने! क्या आप अब भी खिलौनों से खेलते हैं!” अमित ने कहा। उसे जैसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि बाबा ने पुराने खिलौने क्यों सँभालकर रखे हुए थे। और अब बेकार खिलौने भी क्यों उठा लाए थे?”
बाबा ने अमित का हाथ पकड़कर उसे अपने पास बैठा लिया, “मैंने तुम्हारे और अपने बचपन को एक साथ मिला लिया है।”
2
“पर आपने यह नहीं बताया कि पुराने खिलौने आपने क्यों रख छोड़े हैं। और मेरी पुरानी चीजें आप बाहर से क्यों उठा लाए हैं?”
“मैंने कहा न, यह मेरा बचपन है।” बाबा ने कहा। फिर हँसकर बोले, “मेरे खिलौनों की भी एक कहानी है, सुनोगे, सच्ची कहानी?”
“सुनाइए न, कहानी तो मुझे बहुत अच्छी लगती है।” अमित बोला।
बाबा ने कहा, “मैं तीस साल पहले की बात बता रहा हूँ। तब कोई पैंतालीस बरस का रहा होऊँगा। मैं दफ्तर के काम से
जमालपुर गया हुआ था। हमारा एक पुराना नौकर रामदीन वहीं रहता था। वह बहुत बूढ़ा हो गया था। उससे काम नहीं होता था, इसलिए
काम छोड़कर जमालपुर चला आया था। मैंने सोचा, जमालपुर आया हूँ तो उससे भी मिल लूँ।”
अमित ध्यान से बाबा की बात सुन रहा था।
बाबा कहते रहे। “पता लगाता हुआ रामदीन के घर जा ही पहुँचा। शहर के बाहरी इलाके में एक झोंपड़ी में मिला रामदीन। चारपाई पर लेटा खाँस रहा था। मुझे देखा तो उठकर बैठ गया। वह बेटे के साथ रहता था। बेटा भी किसी कारखाने में मजदूरी करता था। घर में रामदीन अकेला ही था। वह मुझसे हमारे घर वालों के बारे में पूछता रहा।”
मैंने पूछा, “रामदीन, कभी मेरी याद आती है?”
“भैया, मैं तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ। तुम मेरे सामने ही पैदा हुए थे। मैंने तुम्हें गोदी में खिलाया है।” यह कहकर रामदीन एक छोटी सी संदूकची उठा लाया। उसमें कुछ पुराने खिलौने थे। बोला, “एक बार तुम्हारे पिताजी, तुम्हारे लिए नए खिलौने लाए थे। तुमने ये खिलौने घर से बाहर फेंक दिए थे। तब तुम बहुत छोटे थे। मैंने वे खिलौने उठाकर रख लिए। जब तुम्हारे घर से नौकरी छोड़कर आया तो अपने साथ इन्हें लेता आया। मैं इन खिलौनों को किसी को नहीं देता। जब-जब तुम्हारी याद आती है तो इस पिटारी को खोलकर देख लेता हूँ। इस समय भी ऐसा लग रहा है जैसे तुम छोटे से हो।” कहकर रामदीन रो पड़ा।
“जब मैंने उससे विदा ली तो रामदीन ने वही पिटारी मुझे दे दी। मुझसे बोला, ‘भैया, इन्हें ले जाओ। सँभालकर रखना, इनमें तुम्हारा बचपन बोलता है।’ बस, मैं उस पिटारी को ले आया। उस बात को तीस साल बीत गए हैं। मैं फिर दोबारा कभी जमालपुर नहीं गया। अब तो रामदीन भी मर चुका होगा। पर उसकी एक-एक बात मुझे आज तक याद है।”
अमित ने देखा, बाबा की आँखों में आँसू छलक रहे थे। अब वह समझ गया था कि बाबा ने उसके पुराने खिलौने आँगन से क्यों उठाए थे। आज उसे पता चल रहा था कि बाबा उससे कितना प्यार करते थे।
वह उठकर बाबा से लिपट गया। बोला, “बाबा, आप मन क्यों दुखी करते हैं।”
बाबा की आँखें गीली थीं, पर होंठों पर हँसी चमक उठी जैसे बादलों को चीरकर धूप खिल उठे। उन्होंने कहा, “हम बड़े होकर अपना बचपन भूल जाते हैं। मैं भी भूल गया था। लेकिन रामदीन ने मेरे बचपन को सँजोकर रखा था। बड़े होकर मेरी बात को भूल मत जाना।”
“पर अभी तो मैं छोटा हूँ, और छोटा ही रहना चाहता हूँ।” अमित ने मचलते हुए कहा। उसकी उँगलियाँ बाबा की आँखों पर गईं तो उन पर आँसुओं का गीलापन लग गया। उस गीलेपन में उनके बचपन के रंग थे। कमरे में अमित और बाबा की हँसी गूँज रही थी।(समाप्त
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