Thursday 20 July 2023

नया महल=देवेंद्र कुमार

 

       नया महल=देवेंद्र कुमार

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मौसम सुहावना था। राजा महल के उद्यान में मंत्री से बातें कर रहे थे। नगर से दूर, हरी-भरी घाटी में नया महल बनवाने की योजना थी। उसी बारे में विचार हो रहा था। एकाएक राजा ने कहा, “मन करता है आज उस स्थान को देखा जाए।‘’

तुरंत रथ तैयार करने का आदेश दिया गया। आगे-आगे सैनिक घोषणा करते चले, “सावधान, महाराज की सवारी रही है। मार्ग खाली रहे।पीछे राजा का रथ था। मंत्री घोड़े पर सवार था। जिसने राजा के आगमन का समाचार सुना वही मार्ग से दूर हो गया। जाने सैनिक किसे गिरफ्तार कर लें।

रथ तेजी से बढ़ा जा रहा था। एकाएक राजा ने रथ रोकने का आदेश दिया। रथ रुक गया। मंत्री घोड़ा बढ़ाकर पास गया।आज्ञा हो महाराज!”

राजा ने कहा, “मैंने कुछ देर पहले घास पर कोई वस्तु पड़ी देखी है। कोई पुस्तक या ऐसा ही कुछ। मैं देखना चाहता हूँ। कुछ देर यहीं ठहर जाएँ।

कुछ ही देर में एक सैनिक उस वस्तु को ले आया, सचमुच वह एक पुस्तक थी। पीले पन्नों वाली ,जगह-जगह से फटी हुई! “यह कोई प्राचीन पुस्तक लगती है। पर यहाँ तो कोई दिखाई देता नहीं, फिर पुस्तक यहाँ निर्जन में क्या रही है!” राजा ने प्रश्न किया।

मंत्री राजा का संकेत समझ गया। उसने झट सैनिकों को इधर-उधर भेज दिया। कुछ ही देर में सैनिक एक बूढ़े को पकड़ लाए। साधारण वेशभूषा| सैनिकों ने कहा, “इसे हमने एक झाड़ी में छिपे हुए पकड़ा है।

राजा ने बूढ़े को ध्यान से देखा। पूछा, “झाड़ी में क्या कर रहे थे?”

जी, कछ नहीं।बूढ़े ने कहा।

राजा ने पुस्तक दिखाई, “क्या यह तुम्हारी है?”

जी महाराज।बूढ़े ने कहा।

यहाँ जंगल में इस पुस्तक के साथ क्या कर रहे थे?”

जी, पढ़ रहा था, तभी आपके आगमन की घोषणा सुनी। बस, तुरंत मार्ग से परे हट गया। इसी हड़बड़ी में पुस्तक छूट गई।बूढ़े ने बताया।

यहाँ सुनसान में किताब पढ़ रहे थे।

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जी, मैं तो यही रहता हूँ।

कहाँ रहते हो?” राजा ने पूछा तो बूढ़ा उन्हें एक तरफ ले चला। सैनिक साथ थे। आगे झाड़ियों के पीछे फूलों की क्यारियाँ थीं। उन्हीं के बीच एक छोटी-सी झोंपड़ी थी। क्यारियों में एक बूढ़ी औरत पानी दे रही थी।

सैनिक दौड़ते हुए राजा के बैठने के लिए कुर्सी ले आए।बुढ़िया झोंपड़ी में से एक छोटी-सी चारपाई निकाल लाई। राजा बिना बिछावन की चारपाई पर बैठ गए। उनके लिए लाई गई कुर्सी वैसे ही रखी रही।

राजा को शांत दोपहर में वहाँ का वातावरण बहुत सुखद लगा। उन्होंने सैनिकों को जाने का संकेत किया। सैनिक पीछे हटकर खड़े हो गए, पर गए नहीं। आखिर उन पर राजा की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी।

बूढ़े ने अपना नाम विष्णुसेन बताया।

राजा को नाम परिचित लगा। विष्णुसेन ने कहा, “हाँ, मैंने बहुत समय तक एक विद्यालय में पढ़ाया है। अब शरीर थक रहा है। इसीलिए अध्यापन बंद कर दिया। यह स्थान मुझे पसंद है, इसीलिए पत्नी के साथ झोंपड़ी बनाकर रहता हूँ। पढ़ता हूँ। फूलों से प्यार है इसलिए उगाता हूँ। कहीं आता-जाता नहीं। कभी-कभी लोग यहीं जाते हैं।

जैसे मैं।राजा ने हँसकर कहा।वैसे मैं शायद सीधा निकल जाता, वह तो घास पर पड़ी पुस्तक ने ध्यान खींच लिया।

विष्णुसेन चुप।

आप भागे क्यों?” मंत्री ने पूछा।

एक बार मेरे साथ ऐसा हो चुका है। यहाँ से कोई बड़ा अधिकारी गुजरा था। मैंने घोषणा पर ध्यान नहीं दिया था। मैं बैठा हुआ पुस्तक पढ़ता रह गया था। सैनिकों ने पकड़ लिया था, फिर क्षमा माँगकर छूटा था। आज की घोषणा सुनकर वही घटना याद गई थी। मैं तेजी से उठकर चला तो पुस्तक पीछे छूट गई।

राजा को बुरा लगा। मंत्री से कहा, “पता लगाइए, इन्हें किसके आदेश पर पकड़ा गया था।‘’

जी।मंत्री ने धीरे से कहा। वह चाहता था कि राजा महल का निर्माण स्थल देखने चलें, पर राजा तो विष्णुसेन से बातों में मग्न थे। वह उनसे वहाँ उगे फूलों के बारे में पूछ रहे थे। दोनों टहलते हुए झोंपड़ी के पीछे चले गए। वहाँ छोटे से पोखर में कमल के फूल खिले थे। तितलियाँ फूलों पर उड़ रही थीं।

राजा का मन प्रसन्न हो उठा। वह सदा शान-शौकत में रहे थे, भव्य महल, विशाल सेना, बड़ा राज्य। उनके एक संकेत पर हजारों सिर झुक जाते थे, लेकिन उस सब में ऐसा निर्मल आनंद तो कभी नहीं आया था। आज पहली बार पता चल रहा था कि सादगी में कितना सौंदर्य, कितनी अद्भुत शांति होती है।

विष्णुसेन देर तक राजा को अपने जीवन के अनुभव सुनाते रहे। उन्होंने अपनी लिखी पुस्तकें भी राजा को दिखाईं। बातों ही बातों में दिन ढलने लगा। आकाश में पक्षियों के झुंड शोर करते हुए अपने घोंसलों की तरफ लौटने लगे। पश्चिम में सूरज का लाल गोला धीरे-धीरे डूबता जा रहा था।

ऐसा आनंद मैंने जीवन में पहली बार पाया है।राजा ने अपने मन की बात कह दी।

विष्णुसेन धीरे-धीरे मुस्कराने लगे। उनकी पत्नी ने राजा को ताजा दूध और फल दिए। देर होती देख मंत्री ने कहा, “महाराज, आपको नए महल का निर्माण स्थल भी देखना है। आज्ञा हो तो रथ यहाँ लाया जाए।

आज नहीं, फिर कभी।राजा ने हाथ हिला दिया। उनका मन वहाँ से उठने का नहीं हो रहा था। उन्होंने विष्णुसेन से कहा, “आचार्य, मैं चाहूँगा कि आप चलकर राजधानी रहें। आपके लिए सारा प्रबंध राज्य की ओर से किया जाएगा। आपको कोई असुविधा नहीं होगी। कोई आपके अध्ययन में विघ्न नहीं डाल सकेगा। मैं भी आपसे अनुमति लेकर ही आपसे मिलने आऊँगा।

आप तो इससे भी अधिक दे सकते हैं, पर मैं ले नहीं सकता।

क्यों?” राजा ने आश्चर्य से पूछा।

हम पति-पत्नी यहाँ आनंद से रहते हैं। अब और कुछ नहीं चाहिए। मैं महल में नहीं, आकाश के नीचे रहना चाहता हूँ।

तो मैं यहाँ व्यवस्था करा देता हूँ, आप जो चाहें।

यहाँ सब कुछ है, शुद्ध हवा, पानी, ताजे फल, धूप... इसके अतिरिक्त और कुछ चाहिए नहीं।विष्णुसेन ने कहा।आप इसे मेरा अहंकार समझें। जीवन के अंतिम दिनों में सचमुच मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।आचार्य का स्वर विनम्र था।

कुछ तो बताइए कि मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ।राजा ने पूछा।

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तो फिर उस सैनिक को दंड दें जिसने मुझे यहाँ पकड़ा था। क्योंकि वह तो अपना कर्तव्य पालन कर रहा था, बस।

यह भी आपने अपने लिए नहीं, दूसरे के लिए माँगा है।राजा ने खड़े होते हुए कहा।

इसीलिए कि उसे दंड और क्षमा देना दोनों आपके अधिकार में है।

अच्छा, तो मैं आपसे अपने लिए कुछ माँगता हूँ।राजा ने कहा।

मुझसे! मैं भला क्या दे सकता हूँ?”

यही कि मैं जब चाहूँ यहाँ सकूँ।

यह राज्य आपका है, मैं आपकी प्रजा हूँ।विष्णुसेन ने कहा।

सब कुछ मेरा है पर सरस्वती का यह मंदिर तो आपका है।राजा ने सिर झुका दिया।

विष्णुसेन ने हौले से राजा की कलाई थाम ली। वह हँस रहे थे।

आकाश में तारे उगने लगे थे। पीछे जंगल में विचित्र स्वर सुनाई पड़ रहे थे। झोंपड़ी में विष्णुसेन की पत्नी ने दीपक जला दिया था। हल्का पीला प्रकाश बाहर बिखर रहा था।

महाराज, नया महल...” मंत्री ने कहा।

नया महल तो बन गया, आज इसी जगह...उसका नाम है सरस्वती मंदिर!” राजा ने भावपूर्ण स्वर में कहा।( समाप्त )

 

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