चिड़िया और मैं-कविता-देवेंद्र कुमार
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अकेली चिड़िया
बाग़ में फुदकती
है
कभी पखों की फड
फड्
फिर चू चिर्र
मैं देखता हूँ
उसे
वह मिला रही है
धरती और आकाश
मैं जैसे नहीं
हूँ उसके लिए
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मैं फुर्सत में
हूँ
वह है कितनी
व्यस्त
नन्हे
मस्तिष्क में समाया है ब्रह्माण्ड
और मैं देख रहा
हूँ सिर्फ
वह कहाँ जाएगी
कहाँ से लाएगी
दाना
नीड में धड़कते
भविष्य के लिए
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एक नन्ही चिड़िया
निकली है
आकाश विजय के लिए
लो वह उड़ गई
अब नहीं लौटेगी
शायद
लेकिन फिर नन्हे
पंखों की
फड़फड़ ने स्पर्श
किया धरती को
यह तो
कोई और ही है
नन्ही चिड़िया की
स्वप्न परंपरा
जीवित रहेगी
एक से अनेक मे
मैं रहूँगा साक्षी
इसी तरह देखता
हुआ
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