पोटली में क्या-कहानी-देवेंद्र कुमार/
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भोलू अपनी माँ के साथ गाँव में रहता था। बहुत पहले भोलू के पिता धन कमाने के लिए परदेस गए थे। कुछ समय तो वह घर रुपए भेजते रहे। कभी-कभी पत्र भी आ जाया करते थे। पर फिर सब बंद हो गया। न पैसे, न पत्र, न कोई संदेश। भोलू अकसर माँ से पूछता था, “माँ, बापू कहाँ गए हैं? कब आएँगे?”
माँ चुपचाप आँसू बहाने लगती, कुछ कह न पाती। वह भोलू को क्या बताती, उसे खुद भी कुछ पता नहीं था। मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना करती थी कि भोलू के पिता जहाँ भी हों स्वस्थ हों। उसने इतने वर्ष बीत जाने पर भी पति के लौटने की आशा नहीं छोड़ी थी।दोनों माँ-बेटा अभाव का जीवन जी रहे थे। भोलू की माँ जमींदार की हवेली में काम करती थी। जो कुछ मिलता उसी से जैसे-तैसे जीवन चल रहा था।
भोलू अक्सर ही गाँव वालों को रोजगार की तलाश में गाँव से जाते देखता। माँ से कहता, “माँ, मैं भी जाना चाहता हूँ दूसरे गाँववालों की तरह। आखिर मुझे भी तो कुछ करना चाहिए। हो सकता है मुझे बप्पा कहीं मिल जाएँ। मैं उन्हें घर जरूर लौटा लाऊँगा।”इकलौते बेटे के परदेस जाने की बात भोलू की माँ को बेचैन कर देती। वह एक तरह से अपने पति को खो चुकी थी इसलिए बेटे को अपने से दूर भेजते हुए डरती थी।लेकिन भोलू हर समय जाने की जिद करता रहता। कहता, “माँ डर की कोई बात नहीं है। अब मैं बड़ा हो गया हूँ। तुम कहती हो न भगवान सबकी रक्षा करते हैं। बस वह मेरी भी रक्षा करेंगे। मुझे जाने दो, रोको मत।
गाँव से जाने वाले साथ में पोटली लेकर जाते थे। पोटली में कुछ कपड़े और थोड़ा भोजन होता था। आखिर माँ ने कहा, “भोलू मैं तुझे कैसे भेज दूँ। तेरे पास न कपड़े हैं, न साथ ले जाने के लिए भोजन। क्या खाली हाथ सफर पर जाएगा? क्या घर की हालत तुझे पता नहीं?”
भोलू चुप लगा गया। लेकिन परदेस जाकर धन कमाने और पिता को ढूँढने की इच्छा मन में बनी ही रही। एक दिन यही सब सोचता हुआ नदी तट पर बैठा था। तभी उसने देखा झाड़ियों में ऐ कपड़ा अटका हुआ फड़फड़ा रहा है। उसने इधर-उधर देखा, पर दूर-दूर तक कोई न था। भोलू वहाँ काफी देर तक बैठा रहा। फिर न जाने मन में क्या आया झाड़ियों में अटके कपड़े को उतार लिया। इधर-उधर बिखरे कुछ कंकड़ और घासफूस उस कपड़े में बाँधकर छोटी-सी पोटली बना ली और उस पोटली को लेकर घर आ गया।
1
घर आकर भोलू ने माँ को दिखाकर कहा, “माँ मेरे जाने का इंतजाम हो गया। पास के गाँव में अपने दोस्त से मिलने गया था। कल वह भी परदेस जा रहा है। उसने मुझसे भी साथ चलने का कहा है। दोस्त की माँ ने मेरे लिए भी कुछ भोजन और जरूरी सामान इस पोटली में बाँध दिया है। अब तुम मुझे मत रोकना।” भोली माँ, अपने बेटे की बात पर विश्वास कर बैठी।
माँ से झूठ बोलते हुए भोलू सोच रहा था- अगर माँ न पोटली खोलकर देख ली तो क्या होगा! लेकिन उसकी माँ ने पोटली को छुआ नहीं। उसे हवेली में काम पर जाने की जल्दी थी। काम से भोलू की माँ रात को लौटी! दोनों ने रूखा-सूखा खाया और सोने के लिए लेट गया।
भोलू की माँ मेहनत करके आई थी, लेटते ही सो गई। पर भोलू न सो पाया। वह सोच रहा था- माँ से झूठ बोलकर घर से जाना क्या ठीक है। मान लो अगर परदेस में कोई काम न मिला तो क्या होगा। उसे माँ की भी चिंता थी जो उसके पीछे से अकेली रह जाने वाली थी। बहुत सोच-विचार के बाद उसने जाने का ही निश्चय किया, क्योंकि उसे लगता था, घर से बाहर निकले बिना कुछ होगा नहीं। आखिर माँ कब तक इस तरह मेहनत करेगी। और फिर उसे पिता को ढूँढने की उम्मीद भी थी।
अगली सुबह माँ के पैर छूकर भोलू सफर पर निकल पड़ा। उसे पता नहीं था कि वह कहाँ जाएगा। गाँव से निकला ही था कि आकाश में बादल घिर आए, बारिश होने लगी । तभी रास्ते पर एक टप्परगाड़ी गुजरी। गाड़ी भोलू से आगे जाकर रुक गई। फिर गाड़ीवान उतरकर भोलू के पास आया। पूछने लगा, “कहाँ जाना है भैया?”
“लेकिन मेरे पास देने के लिए किराया नहीं है।” भोलू ने कहा। वह सोच रहा था यह तो घर से निकलते ही मुसीबत शुरू हो गई। मन हुआ लौट चले और माँ को सब-कुछ सच-सच बता दे। पर वह पेड़ के नीचे खड़ा ही रहा।गाड़ीवान ने कहा, “अरे भैया, मैं पैसे कहाँ माँग रहा हूँ। चलो आ जाओ। अगले पड़ाव पर उतर जाना।”
भोलू संकोचपूर्वक टप्परगाड़ी में चढ़ गया। गाड़ी में एक युवक पहले से बैठा था। उम्र भोलू से कुछ ज्यादा थी। उसने कहा, “गाड़ीवान को मैंने भेजा था तुम्हें बुलाने के लिए, क्योंकि तुम भीग रहे थे। कहाँ जाना है?” उसने अपना नाम निमाई बताया।
“परदेस।” भोलू के मुँह से निकला।
और कुछ नहीं कह सका, क्योंकि उसे कहाँ किसके पास जाना है, इस बारे में तो भोलू को कुछ पता नहीं था। वह तो बस घर से झूठ कहकर निकल पड़ा था।
2
बारिश और भी तेज हो गई। भोलू मन-ही-मन उस अजनबी निमाई को धन्यवाद दे रहा था जिसने उस गाड़ी में बैठकर भीगने से बचा लिया था। तभी गाड़ी जोर से हिली और एक तरफ को झुक गई। टप्परगाड़ी का एक पहिया गड्ढे में फँस गया था। झटके से उछलकर भोलू दूर जा गिरा और बेहोश हो गया। बेहोश होते-होते उसके मुँह से निकला, “मेरी पोटली...”
जब भोलू को होश आया तो वह एक कमरे में आरामदेह पलंग पर लेटा था । भोलू आश्चर्य से इधर-उधर देखने लगा, तभी निमाई नजर आया। वह हँस रहा था। भोलू उठने लगा तो उसने कहा, “लेटे रहो। अभी तुम पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो।”
“मेरी पोटली...” भोलू के होंठों से निकला।
निमाई ने कहा, “वह सामने रखी है तुम्हारी पोटली। तुम बेहोशी में बार-बार दो शब्द ‘माँ’ और ‘मेरी पोटली’ कह रहे थे। इससे मैं समझ गया कि तुम्हारी पोटली में जरूर कोई कीमती चीज है इसलिए मैं पोटली का लेता आया हूँ। तुम्हारे गिरने के साथ ही पोटली भी गड्ढे में गिर गई थी पर मैं इसे ढूँढकर ले ही आया।”
भोलू को पता चला कि वह निमाई के घर में था। निमाई ने कहा, “पहिया टूटने से टप्परगाड़ी बेकार हो गई थी, और तुम बेहोश थे, तुम्हारा इलाज जरूरी था। इसलिए मैं घर लौट आया। फिक्र न करो, ठीक होते ही जहाँ चाहो चले जाना अपनी पोटली लेकर।” और फिर वह मुस्कराया।
“मैं अपने घर माँ के पास जाना चाहता हूँ। माँ को बताऊँगा कि तुमने मेरी जान बचाई है।” भोलू बोला। फिर धीरे-धीरे अपने बारे में सब-कुछ बता गया, हाँ पोटली में क्या था यह नहीं बताया।
“लेकिन तुम तो रोजगार के लिए परदेस जा रहे थे फिर घर क्यों वापस जा रहे हो?” निमाई ने पूछा। “वैसे तुम्हारे गाँव के पास ही मेरे पिताजी का एक कारखाना है। मैंने उनसे बात कर ली है। तुम्हें वहाँ काम मिल जाएगा। वहाँ काम करते हुए तुम माँ के पास भी रह सकोगे।”
भोलू ने कहा, “मैं तुम्हारा कोई नहीं हूँ फिर भी तुम मेरे लिए इतना कर रहे हो। अगर मुझे काम मिल जाए तो माँ को जमींदार की हवेली में मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। मैं अपने पिता को भी खोजना चाहता था लेकिन...”
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निमाई ने कहा, “भोलू, तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पिताजी कहाँ हैं। आखिर कहाँ ढूँढोगे उन्हें। अच्छा यही रहेगा कि तुम यहाँ से माँ के पास जाओ और वहीं अपने पिता के लौटने का इंतजार करो।”
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भोलू का मन भी यही कह रहा था उससे। वह जैसे उड़कर माँ के पास पहुँच जाना चाहता था। दो दिन बाद एक बैलगाड़ी में बैठकर भोलू अपने गाँव की ओर लौट चला। साथ में निमाई भी था। भोलू को वापस आया देख उसकी माँ खुशी के मारे रोने लगी। भोलू दौड़कर माँ से लिपट गया। उसने माँ को बताया कि निमाई के कारण ही उसके प्राण बचे हैं।
घर पहुँचकर भोलू ने पोटली को एक तरफ डाल दिया, फिर निमाई उसे कारखाने में ले गया। जैसा कि निमाई ने भोलू से कहा था उसे कारखाने में नौकरी मिल गई। कारखाना गाँव से ज्यादा दूर नहीं था। वहाँ से भोलू रोज शाम को माँ के पास लौट सकता था।
निमाई ने कहा, “भोलू, अब मैं चलूँगा।” चलने से पहले उसने भोलू की माँ से कहा, “माँजी! आप भोलू की जरा भी चिंता न करें। अब हम दोस्त बन गए हैं। मैं यहाँ आता रहूँगा।”
चलते समय निमाई ने हँसकर भोलू से कहा, “भोलू, अपनी पोटली में रखी चीजें सँभाल लेना।” बैलगाड़ी निमाई को लेकर चली गई। भोलू घर के दरवाजे पर खड़ा जाती हुई बैलगाड़ी को देखता रहा। वह कुछ सोच रहा था-निमाई ने उसके जीवन में सब-कुछ किस तरह बदल दिया था।
घर में जाकर उसने पोटली उठाई और बाहर निकल आया। वह उसे फेंकने जा रहा था। तभी न जाने मन में क्या आया, उसने पोटली को खोल डाला। घासफूस और कंकड़ों के बीच उसे एक कागज मिला, वह निमाई का पत्र था भोलू के नाम। लिखा था—दोस्त, माफ करना। मैंने पोटली खोलकर देख ली है और उसमें जो कुछ है उसने मुझे पूरी बात दी है। अब कहीं मत जाना। अपनी माँ का ध्यान रखना।
-तुम्हारा दोस्त निमाई
भोलू की आँखें भीग गईं। निमाई सब-कुछ जान गया था, पर
भोलू से उसने कभी कुछ नहीं कहा।एक सच्चा दोस्त मिल गया था उसे | (समाप्त
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