उसे क्या चाहिए-कहानी-देवेंद्र कुमार
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“पापा, देखो, जल्दी देखो!” अमित ने पिता से कहा। वह कार की पिछली सीट पर अपनी मम्मी के साथ बैठा था। पिता रमेश दत्त कार चला रहे थे। कार चौराहे की लाल बत्ती पर रुकी हुई थी। पर उसकी बात का जवाब नहीं मिला। तभी लाल बत्ती हरी हो गई। पीछे से हार्न की आवाजें आने लगीं। रमेश दत्त ने चुपचाप गाड़ी आगे बढ़ा दी।
अमित को लगा जैसे पिता ने उसकी उपेक्षा कर दी हो। उसने चिड़चिड़े भाव से माँ की ओर देखा और फिर कार की खिड़की से बाहर देखने लगा। अमित का मन हुआ पिता से पूछे कि उन्होंने उसकी बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया। पर फिर चुप बैठा रह गया।
उस दिन रविवार था। शाम को मम्मी ने कहा, “अमित बेटे, तैयार हो जाओ।
आज हमें एक जन्मदिन पार्टी में जाना है। ‘
“मैं नहीं जाऊँगा, मेरा मन नहीं है।” अमित बोला।
“क्यों नहीं जाओगे?” उसके पापा ने अंदर आते हुए पूछा।
अमित ने कहा, “मैं आपसे नाराज हूँ। आप मेरी बात सुनते ही नहीं।“मैंने लाल बत्ती पर आपसे कुछ देखने का कहा था, पर आपने मेरी बात अनसुनी करके कार आगे बढ़ा दी थी।”
रमेश दत्त ने कहा, “जानते हो, जो कुछ तुम दिखाना चाहते थे उसे तो मैं रोज देखता हूँ।”
“भला आपको क्या पता कि मैं आपसे क्या देखने को कह रहा था!” अमित ने उलझन भरे स्वर में कहा।
“चलो, अब भी हम उसी सड़क से जाएँगे। उसी लाल बत्ती से गुजरेंगे। तब मैं दिखा दूँगा तुम्हें।” रमेश दत्त ने हँसते हुए कहा, “अब जल्दी से तैयार हो जाओ।”
अमित हैरान था, पर उसने कुछ कहा नहीं। शाम को जन्मदिन की पार्टी में जाते समय उनकी कार सुबह की तरह लाल बत्ती पर रुक गई। रमेश दत्त ने सामने की तरफ इशारा करते हुए कहा, “देखो अमित, उस लड़के को देखो, उसी को दिखाना चाहते थे न तुम मुझे!” लाल बत्ती पर एक लड़का बैसाखी के सहारे चलता हुआ कारों के शीशे साफ करता घूम रहा था। दो कार वालों ने उसे पैसे दिए पर एक बिना दिए चला गया।
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अमित को हैरानी हुई। उसने पूछ लिया, “तो आपने मेरी बात सुनी थी।”
“हाँ, पर उस समय रुकने का मौका नहीं था, क्योंकि लाल बत्ती हरी हो गई थी। पीछे से हार्न की आवाजें आ रही थी।” रमेश दत्त ने कहा, “मैं तो इसे रोज ही देखता हूँ।”
“और तब भी आपने उसे कुछ नहीं दिया।” अमित ने कहा।
“हाँ, नहीं दिया, क्योंकि वह भीख नहीं माँगता, कारों के शीशे साफ करके जो मिल जाए ले लेता है।”
“आपने देखा, उसका एक पैर खराब है। बैसाखी के सहारे चलने में उसे कितनी परेशानी होती होगी। क्या हमें ऐसे लड़के की मदद नहीं करनी चाहिए।” अमित ने कहा।
रमेश दत्त ने अमित की ओर देखा, फिर धीरे-से बोले, “अगर वह मेरी कार के शीशे साफ करेगा तो मैं उसे कुछ दे दूँगा। तुम बताओ, उस लड़के की क्या मदद करना चाहते हो?”
“मैंने देखा है, एक कार वाले ने शीशों पर कपड़ा मारने के बदले उसे एक रुपए का सिक्का दिया था। क्या एक रुपया देना ठीक है? एक रुपए में तो आजकल कुछ भी नहीं आता।” अमित ने कहा।
“तो ठीक है, जब वह हमारी कार के शीशे साफ करे तो तुम जो चाहे दे देना।” उसके पिता ने कहा।
“अगर उसने शीशे साफ नहीं किए या बत्ती हरी ही रही, तब मैं उसकी मदद कैसे करूँगा? क्योंकि तब तो मैं उससे बात ही नहीं कर पाऊँगा।”
“तो यों कहो कि तुम उसे भीख देना चाहते हो?” माँ बोली।
“नहीं, नहीं, मैं भी समझता हूँ कि वह भिखारी नहीं है। पर मैं उसकी मदद करना चाहता हूँ।”
“मदद किसलिए,” पिता ने पूछा।
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अमित चुप रहा। पिता के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था उसे। वह तो बस इतना जानता था कि उसे चौराहे पर बैसाखी के सहारे चलकर मजदूरी करने वाले लड़के की मदद जरूर करनी चाहिए।
उसी चौराहे की लाल बत्ती पर कार रुकी। अमित ने उत्सुक दृष्टि
से इधर-उधर देखा, पर बैसाखी वाला लड़का उसे कहीं नजर नहीं आया। उसे गहरी निराशा हुई। रमेश दत्त ने बेटे की ओर देखा। वह उसके मन की बात अच्छी तरह समझ रहे थे। चौराहा पार करते हुए उनकी नजरें भी उसी बैसाखी वाले लड़के को ढूँढ़ रही थीं।तभी अमित चिल्लाया, “पापा, देखो, वह रहा। वहाँ बैठा है फुटपाथ पर।” थोड़ा आगे जाकर रमेश दत्त ने कार रोक दी। फिर अमित से कहा, “तुम जाकर उसे बुला लाओ। मैं उससे कार के शीशे साफ करा लूँगा। फिर तुम उसे कुछ दे देना।”
अमित कार से उतरकर तेजी से उस लड़के के पास पहुँचा। कार में बैठे उसके मम्मी-पापा दोनों की बातें करते देख रहे थे। फिर वह लड़का धीरे-धीरे बैसाखी के सहारे चलकर कार के पास आ पहुँचा। उसने रगड़कर कार के शीशे साफ किए। रमेश दत्त ने बटुए से पाँच का सिक्का
निकाल लिया पर तभी अमित ने उनका हाथ पकड़ लिया। फुसफुसाकर बोला, “आप नहीं, मैं दूँगा उसे। मुझे पचास रुपए चाहिए।”
“नहीं, वह ठीक नहीं होगा। पाँच रुपए ही ठीक रहेंगे।”
“नहीं, पचास रुपए दीजिए।” अमित ने नाराज स्वर में कहा। रमेश दत्त कुछ पल बेटे की तरफ देखते रहे, फिर उन्होंने बटुए से निकालकर पचास रुपए का नोट अमित को दे दिया। वह दौड़कर बैसाखी वाले लड़के के पास जा पहुँचा। रमेश दत्त ध्यान से देख रहे थे। उन्होंने देखा अमित ने उस लड़के को पचास रुपए का नोट दिया, पर उसने लिया नहीं।
अमित धीरे-धीरे कार की तरफ आ गया। “उसने रुपए लेने से इनकार कर दिया। वह घमंडी है। मुझे उसकी मदद करने की बात सोचनी ही नहीं चाहिए थी।” अमित ने कहा|
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रमेश दत्त ने हौले से अमित का कंधा थपथपा दिया। बोले, “बेटा, मैं तो पहले ही मना कर रहा था। भला शीशे साफ करने की मजदूरी पचास रुपए कौन देता है किसी को। इसीलिए उसने नहीं लिए | वह घमंडी नहीं है। बस उसे लगा कि तुम उस पर तरस खाकर पचास रुपए देना चाहते हो। तुम्हारा इस तरह रुपए देना उसे भीख की तरह लगा, इसीलिए उसने नहीं लिए।”
अमित सिर झुकाए सीट पर बैठा रहा। उसने धीरे से कहा, “तब फिर क्या करना चाहिए मुझे?”
‘ उससे दोस्ती करने की कोशिश करो। उसके परिवार के बारे में पूछो। हो सकता है तुम पढ़ने में उसकी मदद कर सको। गरीब और विकलांग का स्वाभिमान बहुत ऊँचा होता है। पैर खराब होने पर भी वह मेहनत करके पैसे कमाना चाहता है। उसे दया नहीं, दोस्ती चाहिए।‘
“आप ठीक कहते हैं सचमुच मुझे उस लड़के को पचास रुपए देने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी। पर अब क्या वह कभी मुझसे बात करेगा? मैं उसे दोस्त बनाना चाहता हूँ।” अमित ने कहा।
“अगर तुम कोशिश करोगे तो वह तुम्हारा दोस्त बन सकता है।” पिता ने कहा और कार को मोड़कर फिर चौराहे के दूसरी तरफ ले गए। बैसाखी वाला लड़का अब भी फुटपाथ पर बैठा था। रमेश दत्त ने कार थोड़ी दूर पर रोक दी। अमित ने कार का दरवाजा खोला और उतरकर उस लड़के की तरफ बढ़ चला। कार में बैठे हुए उसके माता-पिता ध्यान से देख रहे थे।
रमेश दत्त ने अमित की माँ से कहा, “इस बार अमित खाली हाथ नहीं लौटेगा। वह मित्र बनाने गया है। मित्रता तो हर कोई चाहता है।‘ उन्होंने देखा अमित उस लड़के से बात कर रहा था। अमित की बात पर वह लड़का धीरे से हँसा और अमित ने हँसते हुए मुड़कर पीछे देखा। उन दोनों की बात सुनना कठिन था, पर रमेश दत्त को मालूम था थोड़ी देर में अमित को एक नया दोस्त मिल जाएगा।”
(समाप्त )
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