Sunday 8 November 2020

पानी जैसा मन-कहानी-देवेंद्र कुमार

 

पानी जैसा मन-कहानी-देवेंद्र कुमार

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   गरमी का मौसम था। बादल आते गड़गड़ करते पर बिना बरसे चले जाते। नदी-तालाबों का पानी सूखने लगा। गरमी से बेहाल एक मेढ़क पानी और छायादार स्थान की तलाश में निकला। फुदकता हुआ झाडि़यों में जा पहुंचा। फिर जो उछला तो एक गढ्डे में जा गिरा। असल में वह था एक सूखा कुआं। झाडि़यों के बीच छिपा होने के कारण पता नहीं चल पाता था।

   कुएं की तली में पानी नहीं था, झाड़-झंखाड़ उगे थे। मेढक जान गया कि मुसीबत में आ फंसा। वह कई बार सूखे कुएं के बाहर निकलने की कोशिश में उछला,पर कुआं था गहरा। उछलता और गिर पड़ता। वह समझ न पाया कि क्या करे। तभी उसने एक आवाज सुनी।  कोई कह रहा था-अरे भाई, ऐसी भी क्या जल्दी है। थोड़ी देर बाद चले जाना।“

   ‘‘यह कौन बोला?’’ मेढ़क ने घबरा कर पूछा।

   ‘‘यह तो मैं हूं-सूखा कुआं, जिसमें तुम गलती से आ गिरे हो।’’ आवाज आई।

   भला कुआं भी बोलता है कभी।’’ मेढ़क सोच रहा था, न जाने क्या मामला है।

   ‘‘सबकी तरह कुआं भी बोल सकता है, पर आवाज बाहर नहीं जाती। तुम मेरे अंदर आ गिरे हो, इसीलिए मेरी आवाज सुन पा रहे हो।’’ सूखे कुएं ने कहा।

   सूखा कुआं बोलता रहा। उसने मेढ़क को बताया कि कभी उसमें खूब पानी था। एकदम ठंडा और मीठा। उधर से गुजरने वाले पथिक पानी पीने अवश्य ठहरते। कुएं के कारण ही लोग उस जंगल को  मीठे कुएं वाला जंगल कह कर पुकारने लगे थे।

   ‘‘तो फिर तुम्हारा पानी सूख कैसे गया?’’ मेढ़क ने पूछा।

   ‘‘क्या बताऊं। एक दिन जोर की आवाज हुई। धरती हिलने लगी। मैं भी कांप उठा। मेरी दीवारों में दरारें बन गईं और फिर देखते-देखते पानी न जाने कहां समा गया। वह दिन और आज का दिन इसी तरह सूखा पड़ा हूं। जब मेरा पानी सूख गया, तो उसके कुछ समय बाद से ही लोगों ने मेरे पास आना बंद कर दिया। शुरू-शुरू में मुझे राहगीरों की अचरज भरी आवाजें सुनाई देती थीं । लोग बोलते  _अरे, यह क्या! कुएं में एक बूंद भी पानी नहीं। और फिर धीरे-धीरे आवाजें भी बंद हो गईं। लोग इधर आते ही न थे।

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   मेढ़क को अपने बाबा की कही एक बात याद आ रही थी। उसने सूखे कुएं से कहा-‘‘दोस्त, कुछ ऐसी ही घटना मेरे बाबा के तालाब में भी हुई थी। मैं तो तब पैदा भी नहीं हुआ था। उन्हीं के मुंह से सुना था कि एक दिन भूकंप आया थ। धरती हिलने लगी थी और फिर उनके तालाब का पानी जैसे किसी जादू के जोर से सूख गया था। मुझे लगता है जिस भूकंप में मेरे बाबा का तालाब सूख गया था, शायद उसी में तुम्हारे साथ भी वैसा ही हुआ था।“

    सूखे कुएं ने कहा-‘‘हो सकता है तुम ठीक कह रहे हो। भूकंप तो आकर चला गया, पर लोगों ने मुझे इस तरह क्यों भुला दिया। अगर कोई मुसीबत में फंस जाए तो क्या उसे इसी तरह अकेला छोड़ देना चाहिए। मनुष्यों का यह कैसा विचित्र स्वभाव है।’’

   मेढक ने कहा-‘‘कुएं भाई, दुख न करो। दुनिया ऐसी ही है।’’

   कुछ देर वहां मौन छाया रहा। फिर जोर की आवाजें हुईं। धरती हिलने लगी, पेड़ गिरने लगे। जगह-जगह दरारें दिखाई देने लगीं।

   ‘‘भूकंप फिर आया।’’ दोनों के मुंह से निकला। ‘‘न जाने इस बार क्या होने वाला है।’’ कुएं की घबराई आवाज आई। फिर उसे कहीं पानी बहने की आवाज सुनाई दी। कुएं की दीवारों में जगह-जगह दरारें उभर आईं और पानी जोर से अंदर आने लगा। बात की बात में सूखा कुआं लबालब भर गया। जैसे पानी कुएं को छोड़कर गया था, वैसे ही लौट आया था।

   ‘‘पानी...पानी...’’ कुआं खुशी से चिल्लाया। पानी ऊपर तक आया तो मेढ़क को भी कैद से मुक्ति मिली।एक ही कूद में वह पानी से निकल कर सूखी जमीन पर आ गया। पर फिर जो इधर-उधर देखा तो होश उड़ गए। सब तरफ पेड़ गायब थे। धरती पर जगह-जगह चौड़ी -चौड़ी दरारें दिखाई दे रही थीं। बात की बात में वह स्थान जैसे कुछ और ही हो गया था। मेढक सोचने लगा-कुएं से तो बाहर निकल आया हूं, पर इस जगह से बचकर कैसे जाऊंगा। चौड़ी –चौड़ी दरारों को भला कैसे पार करूंगा।

   तभी उसने कुएं की खुशी भरी आवाज सुनी-‘‘मैं फिर से मीठे पानी का कुआं बन गया हूं। और यह तुम्हारे आने से हुआ है मेढ़क भाई। मैं बता नहीं सकता कि आज मैं कितना खुश हूं। बहुत खुश...अब लोग फिर से मेरे पास आने  लगेंगे। उन्हें मीठे पानी वाला कुआं फिर से याद आ जाएगा।’’ कुआं बोलता रहा, हंसता रहा, पर मेढक चुप था।वह घबराई दृष्टि से चारों ओर के भयानक उजाड़ को देख रहा था

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   ‘‘मेढक भाई, चले गए क्या। बोलते क्यों नहीं? जरा मेरा पानी पीकर तो देखो। मैं जानता हूं यह पहले जितना ही मीठा हो गया होगा।’’

   मेढक ने कहा-‘‘मीठा पानी तुम्हें मुबारक हो दोस्त। लेकिन मुझे नहीं लगता कि अब कभी कोई इधर आ सकेगा।’’

   ‘‘क्यों...क्यों...ऐसा अशुभ क्यों कह रहे हो।’’ कुएं की आवाज में घबराहट थी।

   मेढक ने बता दिया कि जो भूकंप कुएं में पानी वापस ले आया था, उसने कुएं के आसपास का जंगल नष्ट कर दिया था। वह स्थान इतना उजाड़, इतना डरावना बन गया था कि कोई आदमी शायद ही कभी वहां तक जा सके। यह सुन कर कुआं उदास हो गया। फिर बोला-‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम मेरे साथ मजाक कर रहे हो। मेरा दिल न तोड़ो। अगर सचमुच ऐसा हुआ तो मुझे बहुत दुख होगा।’’

   मेढक ने कहा-‘‘कुएं भाई, तुम भी कितने विचित्र हो। अभी तक पानी न होने के दुख से दुखी थे, अब पानी वापस आ गया है तब भी तुम खुश नहीं हो। अरे, और क्या चाहिए कुएं को,यही न कि उसमें पानी भरा रहे।’’

   ‘‘हां, पानी हो और कोई उसे पीने वाला न हो तो कैसा लगेगा। भोजन हो पर उसे खाने वाला न हो। पानी का मन है मेरा। पानी का काम है प्यास बुझाना-मनुष्यों की, धरती की, पशु पक्षियों की। अगर वह ऐसा न कर सके तो उसका जीवन किस काम का।’’

   और फिर मेढक ने धीमे-धीमे रोने की आवाज सुनी। सचमुच बहुत दुखी था कुआं।पहले पानी न होने का दुख था, और अब पानी का होना मन को पीड़ा दे रहा था। भरे हुए कुएं का दुख कौन दूर कर सकता था !     ( समाप्त)

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