उपहार --कहानी-देवेंद्र कुमार
बच्चों के बाबा यानी श्यामजी का
जन्मदिन उनके मना करने पर भी मनाया जाता है।इस बार उनके 75
वर्ष पूरे होने पर बेटे रमेश ने विशेष आयोजन किया है। ज्यादा लोगों को
बुलाया गया है। धीरे-धीरे मेहमान आने लगे। सबके हाथों में रंगीन कागजों में लिपटे
उपहार के पैकेट हैं। रचना और राजन एक तरफ खड़े देख रहे हैं।वे रमेश की संतान हैं| एकाएक श्यामजी ने पूछा- ‘‘बच्चों, क्या
तुम मुझे कोई उपहार नहीं दोगे ?’’
सुनकर रचना और राजन दूसरे कमरे में
दौड़ गए और रंगीन पन्नी में लिपटा एक बड़ा-सा पैकेट ले आए।
बढ़कर उपहार का पैकेट बाबा को थमा दिया।
फिर उनके पैर छूने के लिए झुकने लगे तो श्यामजी ने उन्हें आलिंगन में बांध लिया
फिर पूछा- ‘‘इसमें क्या है?’’
‘‘खोलकर
देख लीजिए।’’ रचना ने कहा।
बाबा कुछ देर पन्नी में लिपटे पैकेट को
उलटते-पलटते रहे फिर
उन्होंने पन्नी उतार दी। सबने देखा वह एक
लकड़ी की छोटी-सी संदूकची थी|
संदूकची बहुत पुरानी लग रही थी।श्यामजी
ने संदूकची को एक-दो बार उलटा-पलटा फिर बोले- ‘‘बच्चों,
तुम्हें यह संदूकची कहां मिली! मैं तो इसे न जाने कब से ढूंढ़ रहा था।‘’ श्यामजी
ने संदूकची का ढक्कन खोल डाला फिर मेज पर उलट दिया-उसमें कोई कीमती चीज नहीं थी।
थे कुछ धुंधले फोटो, कुछ कागज, छोटी-छोटी कई थैलियां और कई पुराने पोस्टकार्ड।
उन्होंने कहा-‘‘बच्चों ने तो जैसे खोया खजाना ही दे दिया है। जानते हो, इनमें बहुत पुराने फोटाग्राफ तथा चिट्ठियां हैं
मेरे हाथों की लिखी हुई।’’श्यामजी ने रचना
से पूछा- ‘‘यह पुरानी संदूकची तुम्हें कहां मिली।’’
जवाब राजन ने दिया। बोला- ‘‘हमारी हमवर्क की कापी मिल नहीं रही थी। ढूंढ़ते
हुए हम स्टोर में चले गए जहां बेकार चीजें रखी रहती हें।’’
‘‘कापी
मिली या नहीं?’’
‘‘कापी
तो नहीं मिली-पर कबाड़ में हमें यह संदूचकी दिखाई दी तो हमने बाहर निकाल ली।’’ रचना बोली। “उसमें रखा सामान देखा पर कुछ समझ
नहीं आया। तब हमने सोचा बाबा को जरूर पता होगा इन
पुराने कागजों और फोटाग्राफ्स के बारे में।‘’
श्यामजी ने कहा- ‘‘ये सभी चीजें बहुत पुरानी हैं-शायद 65 वर्ष या उससे भी ज्यादा पुरानी।
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तभी रमेश ने एक पोस्टकार्ड उठा लिया।
पढ़ने लगे”-आदरणीय बाबूजी, यहां सब ठीक है।
फिर पत्र के अंत में लिखा नाम पढ़ा-श्याम. यह तो...’’
श्यामजी बोले- ‘‘हां, यह
मेरा ही नाम है। घर में थे मेरी नानी , पड़नानी और मेरे
बड़े भैया... आगरे में मेरी नानी के भाई रहते थे। मैं उन्हीं को नानी की ओर से
चिट्ठी लिखता था।’’
रमेश ने ने देखा एक पोस्टकार्ड पर लिखी
कुछ पंक्तियां लाल स्याही से कटी हुई थीं। श्यामजी बोले- ‘‘हां, यह चिट्ठी मैंने लिखी थी आगरे वाले मामाजी के
नाम, पर इसे डाक में नहीं डाला गया था।’’
‘‘क्यों?’’ रमेश ने पूछा- ‘‘और
लाइनों को लाल स्याही से क्यों काटा गया है।‘’ -लिखा था-‘मेरा दोस्त अविनाश बहुत बीमार है। हमारे पड़ोस
में रहने वाली कला की तबीयत भी काफी खराब रहती है।’
श्यामजी बताने लगे -‘आगरे वाले मामाजी जब दिल्ली आते तो मुझसे कहते-‘‘श्याम, तू चिट्ठी में घर की बातें लिखता है।
क्या तेरे पास अपनी कोई बात नहीं होती लिखने के लिए।’’
‘‘तब
मैंने सोचा मैं अपनी बात भी लिखूंगा-अविनाथ मेरा दोस्त था-मैंने उसकी बीमारी की
बात लिख दी। पड़ोस में रहने वाली कला के बारे में भी लिखा। मैं सोच रहा था मामाजी
जब दिल्ली आएंगे तो मैं उन्हें अविनाश और कला से मिलाने ले जाऊंगा।‘‘तभी
बड़े भैया वहां आए। वह मेरा लिखा पोस्टकार्ड उठाकर पढ़ने लगे। फिर गुस्से से बोले-
‘‘यह अविनाश और कला कौन हैं-यह क्या बकवास लिख डाली है।’’ फिर
उन्होंने लाल स्याही से अविनाश और कला वाली पंक्तियां काट दीं और पोस्टकार्ड लेकर
चले गए
“मुझे तो रोना आ गया। मैंने कुछ गलत तो
नहीं लिखा था। इसके कई दिन बाद मैं भैया के कमरे में गया तो देखा मेज पर वही
चिट्ठी रखी थी-यानी भैया ने मेरी लिखी चिट्ठी डाक में नहीं डाली थी। मैंने चुपचाप
चिट्ठी उठा ली और बाहर चला आया।
‘‘फिर
क्या हुआ’’ रमेश ने पूछा।
‘‘फिर
मैंने चुपचाप मामाजी को दोबारा चिट्ठी लिखी. उसमें अविनाश और कला की बीमारी के बारे में
बताया और जाकर उसे लेटर बॉक्स में डाल आया। इसके कुछ दिन बाद मामाजी आगरा से दिल्ली आए तो उन्होंने मुझसे पूछा- ‘‘श्याम, यह
अविनाश और कला कौन हैं?’’ उस समय बड़े
भैया भी वहीं खड़े थे। उन्होंने घूरकर मुझे देखा जैसे कह रहे हों-तुझसे मैं बाद
में निपटूंगा। बाबा की यह बात सुनकर कमरे में मौजूद सभी हंस पड़े। रचना और राजन भी
मुसकरा उठे।
‘‘तो
आपके भैया ने आपको खूब डांटा फटकारा होगा।’’ रमेश
ने पूछा।
श्यामजी भी हंस पड़े।‘ आज इतनी पुरानी
बातें तो पूरी तरह याद नहीं। हो सकता है भैया ने मुझे डांटा हो।
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मामाजी ने कहा -''मैं तुम्हारे
बीमार दोस्तों को देखने चलूंगा।’’मामाजी की बात
सुनकर मैं उत्साह से भर उठा। कुछ देर बाद मैं दौड़ा हुआ अविनाश के घर गया। उसे
मामाजी के बारे में बताया। मामाजी को मैं अविनाश और कला के घर ले गया। मामाजी ने
उनका हाल-चाल पूछा। फिर हम लौट आए।‘श्यामजी ने आगे बताया- ‘‘मामाजी को मैंने उन दोनों के घर की स्थिति बता
दी थी। उन्हें पैसे की तंगी थी। मामाजी
अविनाश और कला के इलाज के लिए कुछ रुपये देना चाहते थे। पर मैंने साफ कह दिया कि
मेरे मित्रों के घरवाले पैसे कभी नहीं लेंगे।
‘मामाजी कुछ देर सोचते रहे फिर
उन्होंने मुझसे पूछा कि अविनाश और कला का इलाज कौन डाक्टर कर रहा है। मैंने उन्हें बताया तो
मामाजी मेरे साथ डाक्टर के पास गए। उनसे
बात की और कहा कि वह अविनाश और कला का अच्छे से अच्छा इलाज करें। मामाजी ने डाक्टर
से कहा कि वह आगरा से उन्हें पैसे भेजते रहेंगे पर वह अविनाश और कला के घरवालों से
इस बारे में कुछ न कहे|’’इतना
कहकर श्यामजी चुप हो गए। कमरे में खामोशी छाई थी। तभी रचना ने पूछा- ‘‘बाबाजी ,फिर क्या हुआ?’’
बाबा सिर झुकाए बैठे थे। उन्होंने उदास
स्वर में कहा-‘‘मामाजी डाक्टर को पैसे भेजते रहे। डाक्टर
उन दोनों का मुफ्त इलाज करते रहे। अविनाश तो ठीक हो गया पर-पर...कला की बीमारी ठीक
न हुई।’’
रचना और राजन दौड़कर श्यामजी से लिपट
गए। माहौल कुछ उदास हो गया था। श्यामजी ने पत्र और फोटो समेटकर संदूकची में रखकर
उसे बंद कर दिया। फिर बोले- ‘‘मैं देख रहा हूं
कि मेरे बचपन की पिटारी का खुलना तुम सबको उदास कर गया है। यह तो ठीक नहीं. जो बीत
गया, बीत गया-उस पर ज्यादा नहीं सोचना चाहिए।
हमें आने वाले कल के सपने देखने चाहिए।’’ और
फिर राजन और रचना को गोद में भरकर प्यार करने लगे।
बाबाजी के बचपन की पिटारी बंद हो चुकी थी। उन्होंने
संदूचकी को फिर से पन्नी में लपेटकर रमेश से कहा-‘‘इसे
अंदर रख आओ।’’जब रमेश बाबा की संदूकची रखकर लौटा तो
सब हंस रहे थे, क्योंकि सबकी फरमाइश पर बाबा ने एक गजल सुनानी शुरू कर दी थी। बाबा
के जन्म दिन का रंग जमने लगा था. (समाप्त )
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