Sunday 16 October 2022

कबूतरों वाली हवेली -कहानी-देवेंद्र कुमार

 

   कबूतरों वाली हवेली   -कहानी-देवेंद्र कुमार

 

उसे सब कहते थेकबूतरों वाली हवेली। शहर से स्टेशन की तरफ जाते हुए जहाँ सड़क नदी के पास से गुजरती है, वहीं बनी है वह हवेली। उसकी ऊँची अटारी दूर से ही दिखाई देती है। लगता है जैसे पुराने जमाने का कोई महल हो। उसके मालिक हैं सेठ लखमा जी। बहुत पैसे वाले हैं। लोग कहते हैं, उनके धन का कोई हिसाब नहीं है। लेकिन आज-कल सेठजी यहाँ नहीं रहते। इंग्लैंड, अमरीका, यूरोप में बिजनेस है, वहीं घूमते रहते हैं। हवेली के दरवाजे पर पीतल की नेम प्लेट लगी थी। उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा थासेठ लखमा जी बरसावरिया। बरसावरिया उनके गाँव का नाम है।

लेकिन फिर भी लोग उसे कबूतरों वाली हवेली कहते हैं। सेठजी का नाम कभी नहीं लेतेऐसा क्यों है? यह हवेली के सामने जाने पर ही पता चलता है। हवेली के सामने वाली जमीन पर सुबह से शाम तक हजारों कबूतरों को दाना चुगते देखा जा सकता है। हवा में पंखों की फड़फड़ाहट और कबूतरों की संतुष्ट गुटरगूँ सुनाई देती है। लोग आते हैं, दाना खरीदकर कबूतरों को चुगाते हैं और संतुष्ट भाव से चले जाते हैं।

हवेली के सामने वाली पटरी पर बहुत-से लोग बैठकर दाने बेचते थे। पूरे शहर में कबूतरों वाली हवेली और उसके मालिक का नाम मशहूर हो गया था। हवेली नौकरी के हवाले थी। वे हफ्ते में एक बार आकर झाडू-पोंछा कर देते थे। बाकी समय विशाल हवेली अंदर से खामोश रहती थी। कबूतर अधिकार पूर्वक हवेली के हर हिस्से में उड़ते फिरते थे।

लेकिन एक सुबह वहाँ विशेष हलचल दिखाई दी। कई कारें आकर रुकी। अनेक लोग उतरे और हवेली में चले गए। काफी सामान भी साथ था। खबर फैल गई, हवेली के मालिक अमरीका से आए हैं। अब यहीं रहेंगे।  पूरे दिन हवेली में हलचल रही। दिन भर बड़ी-बड़ी कारों में लोग आते-जाते रहे। दर्जनों नौकर अंदर बाहर भागदौड़ कर रहे थे। लेकिन कबूतरों पर कोई फर्क नहीं पड़ा था। वे उसी तरह हजारों की संख्या में दाना चुगते, उतरते और उड़ते रहे। उनके पंखों की सम्मिलित फड़फड़ाहट काफी दूर-दूर तक सुनी जा सकती थी।

अगली सुबह हवेली के मालिक ड्रेसिंग गाउन पहने बाहर निकले ओर इधर-उधर घूम-घूमकर देखने लगे। कुछ देर खड़े रहे फिर अंदर चले गए। थोड़ी देर बाद दो नौकर बाहर आए और उन्होंने तालियाँ बजाकर कबूतरों को उड़ा दिया। आवाज होने से कबूतर उस समय तो उड़ गए, लेकिन थोड़ी देर बाद पंख फड़फड़ाते हुए फिर नीचे उतरे ओर मजे से दाना चुगने लगे। कबूतर दाना चुगने लगते तो नौकर उन्हें फिर उड़ा देते। हवा में गूँजने वाली पंखों की आवाज और  भी तेज हो गइ। सारा दिन यही खेल चलता रहा, आसपास देखने वालों की भीड़ लग गई कि कबूतरों वाली हवेली पर क्या तमाशा हो रहा है।

अमरीका से लौटे सेठजी को कबूतरों का यह रवैया पसंद नहीं था। उन्होंने नौकरों से कह दिया, “कबूतर यहाँ गंदगी फैलाते हैं, हर समय आवाज होती है, तमाशबीन मजमा लगाए रहते हैं। कबूतरों को यहाँ मत बैठने दो। फिर तो एक-दो आदमी दिन भर हवेली के बाहर खड़े रहते और कबूतरों को आराम से दाना चुगने देते। कबूतर नीचे उतरते तो वे आवाज करके उड़ा देते। पर कबूतर थे कि हर बार लौट आते।

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बहुत से फटेहाल लोग लाइन में बैठकर हवेली के सामने दाना बेचते थे। यह भी सेठजी को ठीक नहीं लगता था। उनकी राय में इससे हवेली की शान में फर्क आता था। हवेली के सामने वाली जमीन भी सेठजी की थी। उन्होंने उसके चारों ओर कँटीले तारों की बाड़ लगवा दी। सेठजी को उम्मीद थी कि इस तरह कबूतरों का आना रुक जाएगा। लेकिन इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ा। कबूतर आकाश से उतरते और लोग तारों के बीच से दाने उछालकर अंदर की तरफ फेंक देते।

एक-दो दिन इसी तरह चला, फिर एक दिन पुलिस की गाड़ी आई और हवेली के बाहर बैठकर दाना बेचने वालों को पकड़ ले गई। सेठजी ने शिकायत की थी कि कुछ लोग गैरकानूनी ढंग से हवेली के बाहर वाली जमीन पर कब्जा जमाए बैठे रहते हैं।

तार लग गए, दाने बेचने वाले उठा दिए गए, पर कबूतर फिर भी आते थे। लोग दूर से दाना लाकर वहाँ डाल देते थे। इसी तरह खेल चलता रहा, सेठजी का गुस्सा था कि बढ़ता जा रहा था। एक सुबह कबूतरों का झुंड वहाँ दाना चुग रहा था और कँटीले तारों के बाहर लोग रोज की तरह खड़े थे! तभी सेठजी हाथ में शाटगन लेकर निकले। हवा में जोर की आवाज हुई। सारे कबूतर उड़ गए, लेकिन कुछ मरकर वहीं गिर पड़े। खून के छींटे दूर-दूर तक बिखर गए।

लेकिन कबूतर अभी गए नहीं थे, वे ऊपर आकाश में मँडरा रहे थे। सेठजी ने जोर से कहा, “मैं सारे कबूतरों का खत्मा कर दूँगा। देखता हूँ, अब यहाँ कैसे दाना चुगते हैं। कहकर वे जोर से हँस पड़े। और उन्होंने आकाश की ओर बंदूक का मुँह करके फिर छर्रे दाग दिए। एक साथ कई आवाजें हुईं। कँटीले तारों के बाहर खड़े सब लोग डरकर भाग गए। कबूतर भी एकाएक जाने कहाँ चले गए। उनके पंखों की फड़फड़ाहट और संतुष्ट गुटरगूँ एकदम बंद हो गई। रह गए हाथ में शाटगन थामे सेठजी। उनके सामने जमीन पर कुछ मरे कबूतर पड़े थे और बिखरी थीं खून की बूंदें। तभी कँटीले तारों के पार खड़े एक बूढ़े ने कहा, “वाह सेठजी, खूब किया। लोग जंगल में मंगल करने की सोचते हैं, लेकिन आपने तो पूरी बस्ती को ही खँडहर बना दिया।

बस्ती! सेठजी ने अचरज से पूछा।

यहाँ हजारों कबूतर आते थे, सैंकड़ों लोग उन्हें दाने डालते थे। न जाने कितने लोगों की रेाजी चलती थी। हरी-भरी बस्ती ही तो थी यह कबूतरों वाली हवेली। अब खूनी हवेली कहलाएगी। आपकी बंदूक में इतनी ताकत तो है कि वह मार दे, दूर भगा दे, लेकिन उसमें इतनी शक्ति नहीं कि यहाँ फैले सन्नाटे को दूर कर दे। यह कहकर वह चला गया। सेठजी शून्य में देखते खड़े रहे, फिर अंदर चले गए। सचमुच बहुत सन्नाटा छा गया था वहाँ। न हवा में कोई आवाज थी, बाहर कोई हलचल। सारी आवाजें जैसे एक-साथ खो गई थीं।

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फिर तो वह सन्नाटा जेसे वहाँ जड़ जमाकर बैठ गया। सेठजी बाहर आते। आते तो जल्दी-से कार में बैठ कर चले जाते। हवेली के चारों ओर सन्नाटे ने जैसे अपना जाला बुन लिया था। कबूतर और मनुष्य-दोनों ने उनका भाव समझ लिया था। लोग वहाँ से गुजरते तो आपस में इशारे करते हुए। पूरा शहर जान गया कि कबूतरों वाली हवेली का आँगन खून से रंगा था। सेठजी उस सन्नाटे को ज्यादा दिन तक नहीं सह सके।

कुछ दिन बाद लोगों ने देखा कि कई कारें एक साथ हवेली से निकलीं। उन पर काफी सामान लदा हुआ था। फिर कारें वापस आईं। पूछने पर पता चला सेठजी सपरिवार तीर्थयात्रा पर गए हैं, और वही से वापस अमरीका चले जाएँगे। उन्होंने वहाँ रहने का इरादा छोड़ दिया था। कोई समझ सका कि ऐसा क्यों हुआ था। फिर एक दिन देखा गया कि मजदूर आकर कँटीले तार हटा रहे हैं। पता चला सेठजी ऐसा ही आदेश दे गए थे।

थोड़े दिन बाद कबूतर वहाँ फिर मँडराने लगे। दाने बेचने वालों की कतार नजर आने लगी। सब कुछ पहले जैसा हो गया। कबूतरों वाली हवेली कबूतरों को वापस मिल गई थी। (समाप्त )

 

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