पुस्तकें बदल गईं- कविता-देवेंद्र
कुमार
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मैं कहीं और था
यहां
पुस्तकें बदल गईं
बाहर ही रोककर
पूछा गया
यह नहीं
कि क्या था मेरे पास
बताऊं
मैं हूं किसके साथ?
मैं था जंगल में
डरी हुई चिडि़या से बातों में
और यहां
वे लगे थे
धरती-आकाश मिलाने में
सच
बहुत कुछ बन गया था
पूरी बस्ती
खर्च हो गई थी
एक दीवार उठाने में
मैं फिरा था
हवा में
फूलों पर टलमल मोतियों
में
इंद्रधनुष देखता
वहां
हंसी का अर्थ
खिलना
यहां
खिलखिल अमरबेल
चढ़ी है
गैर आंसुओं की मुंडेरी
सचमुच
पुस्तकें बदल गईं।
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